tag:blogger.com,1999:blog-44029458816930999392024-02-19T10:12:52.193-08:00बीच बहसनवनीत पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/14332214678554614545noreply@blogger.comBlogger13125tag:blogger.com,1999:blog-4402945881693099939.post-74934322625533440972014-06-26T19:14:00.000-07:002014-06-26T21:56:00.823-07:00बेचारा पाठक! (संदर्भ अखिलेश का नया उपन्यास ’निर्वासन’) - नवनीत पाण्डे<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<span style="font-size: large;"> <span style="color: blue;">बेचारा पाठक! (संदर्भ अखिलेश का नया उपन्यास ’निर्वासन’) - नवनीत पाण्डे</span></span></h2>
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<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span><span style="color: purple;">मामला बिल्कुल ताज़ा ताज़ा है...हमारे समय के महत्त्वपूर्ण कथाकार अखिलेश के नए उपन्यास ’निर्वासन’ पर एक ही दिन में हिन्दी के दो दिग्गज आलोचकों के विरोधाभासी वक्तव्य हमारी आलोचना के दो चेहरे हमारे सामने रखते हैं। सवाल ये है कि पाठक क्या करे क्यों कि यह आकलन इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि मामला पाठक की जेब से छ सौ रुपए निकलवाने का है। शायद ऎसे ही कारण और उदाहरणों ने आलोचक- आलोचना को संदेहों के घेरे ला खड़ा किया है। इससे यह भी प्रमाणित होता है कि आलोचक भी आलोचक होने से पहले एक पाठक ही होता है जिसकी अपनी पसंद नापसंद होती है.. कोई रचना किसी के लिए दो कौड़ी की तो किसी के लिए अमूल्य और महत्त्वपूर्ण हो सकती है। </span></span></div>
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<span style="color: #38761d; font-size: large;">Prabhat Ranjan</span></div>
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<span style="color: #38761d; font-size: large;">June 22 · Edited</span></div>
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<span style="color: #38761d; font-size: large;">प्रकाशक द्वारा लखटकिया पुरस्कार के ठप्पे के बावजूद अखिलेश का उपन्यास 'निर्वासन' प्रभावित नहीं कर पाया. कई बार पढने की कोशिश की लेकिन पूरा नहीं कर पाया. महज विचार के आधार पर किसी उपन्यास को अच्छा नहीं कहा जा सकता है. साहित्य भाषा के कलात्मक प्रयोग की विधा है. 'निर्वासन' की भाषा उखड़ी-उखड़ी है. 'पोलिटिकली करेक्ट' लिखना हमेशा 'साहित्यिक करेक्ट' लिखना नहीं होता है. सॉरी अखिलेश! एक जमाने में आपको पढ़कर लिखना सीखा. लेकिन आज यही कहता हूँ- आप चुक गए हैं! (और हाँ! एक बात और, 349 पृष्ठों के इस उपन्यास की कीमत 600 रुपये? क्या यह किताब सिर्फ पुस्तकालयों के गोदामों के लिए ही है, पाठकों के लिए नहीं)</span></div>
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<span style="color: #741b47; font-size: large;">Virendra Yadav</span></div>
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<span style="color: #741b47; font-size: large;">June 22 · Edited</span></div>
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<span style="color: #741b47; font-size: large;">अखिलेश का उपन्यास 'निर्वासन' इन दिनों पढ़ा .सचमुच यह उपन्यास -अपनी समग्रता में अपने समय के सम्पूर्ण यथार्थ का उपन्यास है . यह उपन्यास जिस तरह पश्चिमी आधुनिकता और दिशाविहीन अंधविकास का क्रिटिक प्रस्तुत करता है वह कई नवीनताओं को लिए हुए है . जिन दिनों विकास की डोर पर जीडीपी की पतंग लहराई जा रही हो और विकास माडल के नाम पर सत्ताएं बन-बिगड़ रही हों, इस उपन्यास में अन्तर्निहित विकास बनाम विनाश का विमर्श स्वयमेव नयी अर्थवत्ता ग्रहण कर लेता है . हाल के वर्षों में हिंदी के अधिकांश उपन्यास इन अर्थों में सीमित यथार्थ के उपन्यास रहे हैं कि इनमें किसी एक कालावधि ,विशेष मुद्दे ,प्रवृत्ति या विमर्श की केन्द्रीयता रही है . लेकिन ‘निर्वासन’ एक साथ सवर्ण पितृसत्ता, कुलीनता और उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रत्याख्यान है. अखिलेश का यह उपन्यास दलित हरहू राम से लेकर अमरीका पांडे और गाँव गोसाईंगंज से लेकर महानगरीय यथार्थ का जिस तरह से विस्तार लिए हुए है वह एक साथ स्थानिक और वैश्वीकृत है. अच्छा यह है कि बेदखलियों की यह कथा रोजमर्रा के अनुभवों, अपने इर्दगिर्द मौजूद जीते जागते लोगों , घर-परिवार के घात-प्रतिघातों और बदलते समय के पदचापों को सुनते हुए जिस तरह से रची-बुनी गयी है वह अलग और नयी है . अर्थहीनता को अर्थ देते , उपस्थित में अनुपस्थित को लक्ष्य करते और भोगवाद का प्रतिपक्ष पेश करते हुए अखिलेश का यह औपन्यासिक हस्तक्षेप लेखक की सामाजिक भूमिका का भी निर्वहन है . कहना न होगा कि ‘निर्वासन’ इस दौर के उपन्यासों में एक महत्वपूर्ण और स्वागतयोग्य उपलब्द्धि है.</span></div>
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<span style="color: #274e13; font-size: large;">Maitreyi Pushpa</span></div>
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<span style="color: #274e13; font-size: large;">इन दिनों ! प्रिय रचनाकारों !</span></div>
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<span style="color: #274e13; font-size: large;">तय करो कि तुम पाठकों के लिए लिखते हो या समीक्षक / आलोचकों के लये ?कबीर की मिसाल सामने है जिसने समाज के लिए कहा। तुलसी के लेखन की समीक्षा किसने की ?प्रेमचंद ,निराला और रेणु को जिन्होंने पहले ही हल्ला पटक लिया ,बाद में दांत निपोरते फिरे। इन दिनों समीक्षकों की योग्यता क्या है , दोस्ती और दुश्मनी की दलबन्दी। पाठकों में यह दुर्गुण नहीं होता । दोस्त समीक्षक पीठ ठोकें और पाठक अपना माथा पीटें तो हमारी रचना की जगह कूड़ेदान में होनी चाहिए।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #b45f06;">मैं मैत्रेयी जी के विचारों से सहमत हूं, लेखकों को समीक्षकों- आलोचकों से अधिक अपने पाठकों पर भरोसा करना चाहिए और उन्हीं से सीधा संवाद स्थापित करने का ध्येय रखना चाहिए क्योंकि मेरी दृष्टि में रचना वह हाथी हैं जिस में रचित उत्स-मर्म का हर पाठक अपने- अपने अंध-स्पर्श (पाठकीय क्षमता) से दर्शन करता है, आलोचक भी आलोचक से पहले पाठक ही होता है। </span></span></div>
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<span style="font-size: large;"><span style="color: #b45f06;">- नवनीत पाण्डे</span></span></div>
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नवनीत पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/14332214678554614545noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4402945881693099939.post-28631833120879378572014-06-25T04:59:00.000-07:002014-06-26T09:37:41.516-07:00प्रार्थना में हिंसा – नील कमल<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: 0.0001pt; text-align: justify;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjO3X937d3zrmB8ckTFo6gjEiL3d76rUBe1sw-rw1cBRySFg_rmbI5p4-Ki3xb9R6A3auz2ZOBPvzCFXSb4BDuGJ3FvKEBqWLQRbt_B82ufYROX7lXevb8dfp3eN0jDhvy1LwpmNnAuP-o/s1600/neel.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjO3X937d3zrmB8ckTFo6gjEiL3d76rUBe1sw-rw1cBRySFg_rmbI5p4-Ki3xb9R6A3auz2ZOBPvzCFXSb4BDuGJ3FvKEBqWLQRbt_B82ufYROX7lXevb8dfp3eN0jDhvy1LwpmNnAuP-o/s1600/neel.jpg" height="200" width="200" /></a><span style="color: blue; font-family: Mangal, serif;"><span style="font-size: 19px;"><b>मित्रो बीच बहस में आज प्रस्तुत है मठाधीशी- आलोचना, पुरस्कारों पर उठ रही अंगुलियों व सवालों पर युवा कवि नील कमल का एक धारदार व्यंग्य आलेख </b></span></span><br />
<br />
<h2>
<span style="color: #e69138; font-family: Mangal, serif; font-size: x-large;"><b>प्रार्थना में हिंसा – नील कमल</b></span></h2>
<b style="font-family: Mangal, serif; font-size: 19px;"><span style="color: #3e454c;"> </span><span style="color: #351c75;"> समाज में हर युग में खल शक्तियां रही आई हैं । भाषा और साहित्य भी समाज का ही अभिन्न हिस्सा है । लाजमी है कि यह खल शक्तियों से अछूता नहीं रह सकता । शुभ और अशुभ का द्वंद्व बहुत पुराना है । मनुष्यता के हित में जो है वही शुभ है, अच्छा है, भला है । जो मनुष्यता का अहित करने वाला है वह अशुभ है, बुरा है, खराब है । असुर तमाम खल शक्तियों का ही रूप है । सुर शुभ शक्तियों का प्रतीक है । बहुत से लोग असुर शब्द सुनते ही भड़क जाते हैं । क्यों ? क्योंकि असुर एक जनजाति है । मेरी उन तमाम मित्रों के तर्क के साथ पूरी सहानुभूति है । और करबद्ध निवेदन भी है कि असुर शब्द को वहीं तक संकुचित न करें । मैं बिना किसी पूर्वग्रह के तमाम खल और अशुभ शक्तियों के लिए असुर शब्द का प्रयोग करने की अनुमति चाहता हूँ ।</span></b><br />
<span style="color: #351c75; font-family: Mangal, serif;"><span style="font-size: 19px;"><b> मुझे इस बात का ज्ञान है कि असुर जनजातियों को खनिज से लौह धातु बनाने का तरीका मालूम था । आज भी वे बहुत कठिन जीवन गुजारते हैं । उनकी अवमानना का कोई उद्देश्य नहीं । लेकिन समाज में बुरी शक्तियों के लिए असुर शब्द का प्रयोग कोई नई परिघटना नहीं है । महिषासुर वध की कथा भारतीय सन्दर्भों में सभी जानते हैं । बंगाल में तो दुर्गापूजा के पंडालों में महिषासुर-मर्दिनी देवी दुर्गा की पूजा को सांस्कृतिक उत्सव के रूप में मनाने की लम्बी और ऐतिहासिक परम्परा रही है । और पूरी विनम्रता के साथ कहना चाहूँगा कि तीन दशक से भी लम्बे समय के शासन में किसी कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी ने भी इस सांस्कृतिक प्रतीक का विरोध कभी किया हो याद नहीं आता ।</b></span></span><br />
<span style="color: #351c75; font-family: Mangal, serif;"><span style="font-size: 19px;"><b> खल शक्तियों का समाज में होना शुभ नहीं है । शुभ होता तो दुनिया में इतने युद्ध न लड़े जाते । मनुष्य जब अशुभ शक्तियों को लड़ कर परास्त नहीं कर पाता तब वह इनके अंत के लिए प्रार्थना करता है । पूंजीवाद से लड़कर जब हम जीत नहीं पा रहे तब उसके सर्वनाश की कामना तो करते ही हैं । कामना क्या करते हैं, हम तो सड़कों पर उतर कर नारे भी लगाते हैं । साम्राज्यवाद हो या पूंजीवाद इनके अंत के लिए की गई प्रार्थनाएं मेरे लिए पवित्र रही हैं । अब यदि किन्हीं कारणों से इन शक्तियों को मैं महिषासुर नाम दूँ तो किसी के पेट में दर्द क्यों उठना चाहिए भला ?</b></span></span><br />
<span style="color: #351c75; font-family: Mangal, serif;"><span style="font-size: 19px;"><b> एक बार दुर्गापूजा के समय कलकत्ता के पूजा मंडपों से लौट कर मैंने मित्र को बताया कि मैंने देवी दुर्गा से हिन्दी के तमाम महिषासुरों के समूल नाश के लिए प्रार्थना की है । मित्र सुनते ही उखड़ गए। मेरा हुक्का पानी बंद हो गया । तो क्या यह विचार करना उचित नहीं कि साहित्य के परिसर को गंदा करने वाले और इसके भीतर असाध्य बीमारियाँ फैलाने वाले प्राणियों का स्थान क्या होना चाहिए । एक गृहस्थ अपने अनाज को चूहों से बचाने के लिए उन्हें विष से मारता है, एक किसान अपनी फसल को कीड़ों से बचाने के लिए उन्हे विष से मारता है, घर के कोनों अंतरों में छिपे तिलचट्टो को हम-आप मारते हैं । क्या वह गृहस्थ हत्यारा है जो अपने अनाज को चूहों से बचाना चाहता है ? अपनी फसल को कीड़ों से बचाने वाला किसान क्या हत्यारा है ? और अपने घर को तिलचट्टों से मुक्त करने वाले आप या हम क्या हत्यारे लोग हैं ?</b></span></span><br />
<span style="color: #351c75; font-family: Mangal, serif;"><span style="font-size: 19px;"><b> यहाँ तो बात सिर्फ एक प्रार्थना है कि हिन्दी के महिषासुरों का समूल नाश हो । कुछ उदाहरणों से बात साफ़ होगी । एक साहित्यिक हैं । बड़ी शख्सियत वाले आलोचक हैं । कॉलेजों और युनिवर्सिटियों में नियुक्तियां करवा सकते हैं । इनके आगे पीछे चेलों की फ़ौज घूमती है । चेलों की सेवा और समर्पण से प्रसन्न ये साहित्यक इन्हें कॉलेजों में नियुक्तियां दिलवाने में माहिर हैं । इनकी सुनियोजित उपेक्षा के कारण न जाने कितनी प्रतिभाएं अपनी काबिलियत के अनुरूप जगह न पा सकीं । एक यशस्वी सम्पादक हैं । वे लेखक पैदा कर देते हैं, जब भी चाहें । और उनके पैदा किए लेखक महान मान भी लिए जाते हैं । </b></span></span><br />
<span style="color: #351c75; font-family: Mangal, serif;"><span style="font-size: 19px;"><b> प्रायोजित चर्चा पुरस्कार योजनाओं आदि का एक रैकेट है । क्या ऐसे संपादकों का बना रहना ठीक है ? एक बड़ा प्रकाशक है । वह लेखक की किताब बेचकर मालामाल है और लेखक सम्मानजनक जीवन जीने तक को मोहताज है । एक वरिष्ठ कवि हैं । ये विभिन्न सम्मान पुरस्कार दिलाने वाली समिति में अपरिहार्य रूप से रहते हैं । कृपा पात्रों को सम्मान और पुरस्कार दिलवाते हैं । इनका क्या किया जाना चाहिए । वन्दना तो नहीं करेंगे न ? अंतिम उदाहरण एक युवा कवि का । वह दस वाक्य हिन्दी के कायदे से नहीं लिख बोल पाता है । लेकिन वह इतना जानता है कि किसका पैर छूने से उसे लाभ मिलने वाला है । वह हर उस जगह शीश नवाता है जहां से उसे लाभ प्राप्त हो सकता है । और एक के बाद एक उसकी किताबें आने लगती हैं । वहीं दूसरी तरफ खून पसीने की कविता लिखने वाले डिप्रेसन की गोलियां खाते मिलते हैं । ऐसे युवाओं का क्या करेंगे आप ? फलने फूलने का आशीर्वाद देंगे ?</b></span></span><br />
<span style="color: #351c75; font-family: Mangal, serif;"><span style="font-size: 19px;"><b> उदाहरण पांच की जगह पचास दिए जा सकते हैं । एक महत्वाकांक्षी युवा लिटरेरी एजेंट का काम करता मिल जाएगा आपको । एक अस्सी साल का कवि महँगी शराब की बोतल से तृप्त एक घटिया किताब का ब्लर्ब लिखता मिल जाएगा आपको । रचना के साथ विज्ञापन का चेक भेज कर खुद को छपवाने वाले साहित्यिक भी दुर्लभ नहीं है । तो प्रश्न यह है कि क्या इनकी बरबादी की कामना भी न की जाए । मैं विश्वास करना चाहता हूँ कि समाज में और साहित्य में भी अच्छे और शुभ का उत्थान हो । प्रतिभाओं को उचित स्थान मिले । जिसकी जो जगह है उससे वह छीनी न जाए । यह क्या इतना आसान है ? क्या ही अच्छा होता कि समाज में इतने अच्छे लोग होते कि बुरे लोग सिर उठा कर चलने का साहस न कर पाते । जो शुभ है, जो सुन्दर है वही सर्वथा सम्मानित होता । वह उपेक्षित न होता । क्या यह सोचना अपने आप में बहुत अव्यवहारिक है ? यदि नहीं तो क्या यह अपने आप हो जाएगा ? इसके लिए किसी शुभ दिन का इंतजार करना चाहिए ? नहीं । ऐसे किसी शुभ दिन के इंतजार से बेहतर है ऐसे दिन के लिए छोटे-छोटे कदम उठाना । कदम उठाने की शुरुआत आगे बढ़ने की इच्छा से होती है । यह हमें ही तय करना होगा कि हमारी प्रार्थनाओं में हम किसको बचाएं और किसको मिटा दें।</b></span></span><br />
<span style="color: #351c75; font-family: Mangal, serif;"><span style="font-size: 19px;"><b><br /></b></span></span>
<br />
<div style="text-align: right;">
<span style="color: #351c75; font-family: Mangal, serif;"><span style="font-size: 19px;"><b>– नील कमल</b></span></span></div>
<span style="color: #0c343d; font-family: Mangal, serif;"><span style="font-size: 19px;"><b>जन्म : १५.०८.१९६८(वाराणसी , उत्तर प्रदेश), शिक्षा : गोरखपुर विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर, कविता-संग्रह "हाथ सुंदर लगते हैं" २०१० में कलानिधि प्रकाशन , लखनऊ से व ’यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है’ ऋत्विज प्रकाशन से प्रकाशित, कविताएँ,कहानियां व स्वतन्त्र लेख महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित [प्रगतिशील वसुधा , माध्यम , वागर्थ , कृति ओर , सेतु , समकालीन सृजन , सृजन संवाद , पाठ , बया, इन्द्रप्रस्थ भारती , आजकल , जनसत्ता , अक्षर पर्व , उन्नयन , साखी , शेष व अन्य</b></span></span><br />
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<br /></div>
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</div>
नवनीत पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/14332214678554614545noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4402945881693099939.post-2642797103654430402014-04-03T05:48:00.000-07:002014-04-05T19:15:23.882-07:00फ़ेसबुकिए-बिनफ़ेसबुकिए v/s फ़ेसबुकिए-बिनफ़ेसबुकिए - नवनीत पाण्डे<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<h2 style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">(आभासी दुनिया वैचारिक घमासान) </span></h2>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="background-color: #e69138; font-size: large;">(क्षमा सहित आभार बुध्दिजीवी अग्रजो/ मित्रो गणेश पाण्डेय, दयानंद पाण्डे, कल्ब ए कबीर (कृष्ण कल्पित), शिरीष कुमार मौर्य, निलय उपाध्याय, नील कमल, लालित्य ललित, सूरज प्रकाश डा.सुनीता, रवीन्द्र के दास, अविनाश मिश्र, स्वतंत्र मिश्र, आशुतोष कुमार, अशोक कुमार पाण्डे, दखल प्रकाशन, गिरिराज किराड़ू, ओम थानवी, उदय प्रकाश, प्रभात रंजन, केशव तिवारी, वीरेंद्र यादव आदि का जिनकी फ़ेस बुक पोस्ट्स के बिना यह विचार- आलेख असंभव था- नवनीत पाण्डे)</span></div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"><span style="font-size: large;"> </span></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span><b>"फेसबुक बहुत मज़ेदार जगह है। किसी का भी स्टेटस जहां से शुरू होता है, वहां से बहुत दूर जाकर कहीं और निकलता और खुलता है। टिप्पणियां टिप्पणीकारों के मूड के साथ आगे बढ़ती हैं - ज़रूरी नहीं होता कि वे स्टेटस पर फोकस हों। बात कुछ की कुछ बनती चली जाती है। एक स्टेटस में इतनी सम्भावनाएं होती हैं कि देख कर कभी तो चकित रह जाता हूं। कभी सामान्य बातचीत झगड़े में बदल जाती है और झगड़ा दोस्ताना टिप्पणियों में बदल जाता है। आप कोई सैद्धान्तिक या गम्भीर बात कर रहे होते हैं लेकिन सामने वाला आपको छेड़ने का रवैया अपनाता है, कोशिश भर चिढ़ाता है - यही आप भी किसी और के स्टेटस पर कर रहे होते हैं। अकसर मज़ाक में कही गई बातों पर बातचीत बहुत गम्भीर रूप ले लेती है और कभी गम्भीरता का मज़ाक बन जाता है। मुझे यह सब होना बहुत अच्छा लगता है। इधर लगातार महसूस कर रहा हूं कि यह जगह भले आभासी कही जाए पर जीवन यहां पूरी वास्तविकता में खिल कर सामने आता है। शुक्रिया मेरे सभी दोस्तो मेरे लिए इस एक जगह इस तरह एक साथ सम्भव होने के लिए।" शिरीष कुमार मौर्य</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>"फ़ेस बुक अपने एकान्त मे सहकर्मियो की तलाश है।" - निलय उपाध्याय</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span><b>"ऐसे दोस्त हैं जो फेसबुक को विदा अलविदा बोलते हैं और दो-चार दिन से ज्यादा इससे दूर नहीं रह पाते, कई तो कई बार ये करतब कर चुके. ऐसे भी हैं जिन्होंने जाने की कोई ड्रामाई घोषणा नहीं की और गायब हो गए. इस दूसरी केटेगरी में सबसे ज्यादा अचम्भा चन्दन पाण्डेय के गायब होने से हुआ. इधर मेरे मन में भी ख़याल आ रहा है. पिछले आठेक महीनों में मैं जितना ऑनलाइन रहा हूँ पहले कभी उसका चौथाई भी नहीं रहा. सोच रहा हूँ गायब होने से पहले एक बार दिन में दस स्टेटस लगाने पचासेक कमेन्ट करने, दो सौ लाईक मारने और कुछेक हैप्पी बड्डे बोलने का परचा पास कर के पूरा सोशल हो कर ही नेटवर्क से जाऊं.- गिरिराज किराड़ू </b></span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span><b>"फ़ेसबुक का मैदान अब राजनीति के तीन खानों में बंट गया है। राहुल, मोदी और केजरीवाल। अपने को विवेकवान मानने वाले एक से एक विद्वान धोबिया पछाड़ पर आमादा हैं। तलवारें हवा में लहरा रही हैं। तो कोई इन के-उन के नाम पर मटर छील रहा है। कोई स्वेटर बुन रहा है। तर्क अब पूरी तरह कुतर्क में तब्दील है। लता मंगेशकर, सलमान खान भी लगे हाथ भुट्टे की तरह भुने जा रहे हैं। कोई मोदी को धूर्त बता रहा है, कोई चाय वाला। कोई राहुल को चुगद बता रहा है तो कोई आदर्श का मारा और सहनशील। तो कोई केजरीवाल को अराजक और कोई गेम-चेंजर बता रहा है। अजीब अफ़रा-तफ़री है। पेड वाले फ़ेसबुकिए अलग पेंग मार रहे हैं। विद्वान लोग अलग करेला नीम पर चढ़ कर बेच रहे हैं। सारी जंग फ़ेसबुक पर आ गई है। गोया एक नया कुरुक्षेत्र बन गया हो। हल्दीघाटी और पानीपत से लगायत सारी लड़ाइयां जेरे जंग हैं। क्या कहा, विवेक? हा-हा तो वह तो भुट्टे भुन रहा है इस सर्दी में। लेकिन सवाल यह है कि खा कौन रहा है और खेल कौन रहा है? धूमिल याद आ रहे हैं : एक आदमी/ रोटी बेलता है/ एक आदमी रोटी खाता है/ एक तीसरा आदमी भी है/ जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है/ वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है/ मैं पूछता हूँ--/ 'यह तीसरा आदमी कौन है ?'/ मेरे देश की संसद मौन है। ' और अब शायद अपनी जनता भी मौन है। बोल रहे हैं तो सिर्फ़ सर्वे, चैनल और हां फ़ेसबुकिए। राहुल, मोदी, केजरीवाल ! जैसे रोटी-दाल, नू्न -तेल, सब्जी-दाल,प्रेम मुहब्बत, अस्पताल, स्कूल, टैक्स, पेट्रोल, गैस आदि हेन-तेन सब घास चरने चले गए हैं। कि सोने? फेको रहो ज्वानो ! खूब कस के ! कोई भी कैच नहीं कर पाएगा।" - दयानंद पाण्डे</b></span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>"गुटनिरपेक्षता इतिहास में दर्ज है...किसी जमाने में दरबारी लेखक-लेखिकाएँ हुआ करते थे...राजे-राजवाड़े से होते हुए आज 'गिरोहबाद' 'गुटबाजी' और 'केचुआबादी' परम्परा की पैदाइश बेशुमार बढ़ी है... जिससे समाज का दर्पण खंड-अखण्ड और अनगिनत टुकड़ों में विभाजित हो चूका है... इस विभाजन रेखा से किसको कितना लाभ और हानि हुआ है...? इस बिंदु को लेकर जब 'शब्दशिल्पियों' और 'वर्णउच्चारकों' के दरबार में गयी तो अदभूत अनुभव का समाना करने को देखी... कहते हैं कि- 'हमाम में सब नंगा है...' यही नंगई साहित्य के समस्त विधाओं में विकराल रूप में विरजमान है... कुछ ने जबाब दिया...कुछ ने नाम न बताने के शर्त पर लपेट कर...ओड्चा भर भड़ास निकाली...कुछ ने इसे 'समुन्दरमंथन' के समक्ष रखा...क्योंकि 'विष' और 'अमृत' दोनों के बिन समय के कसौटी पर इन सरोकारों को कसना मुमकिन नहीं है...</b></span><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="font-size: large; white-space: pre;"> "</span><b style="font-size: x-large;">लगातार बहुत सारे लोगों के लिखे को पढ़ रही हूँ...खेमे और खुमचो में बटे लोग...देशहित/साहित्य/सरोकार/सृजन/सम्मान/अस्तित्व और अस्मिता की बात करते हुए...बड़े अजीब लगते हैं...क्योंकि बहुतेरे जाने-अनजाने स्त्री-पुरुष दोनों 'फुट डालो और राज्य करो' की भावना प्रदर्शित करते हुए जान पड़े... सही को सही/अंधे को अँधा/शराबी को शराबी/ घुमक्कड़ को घुमक्कड़ और गिरोबादी को गुट्बाज बर्दास्त नहीं होते...वस्तुतः सच्चाई यही है कि हम जो होते हैं उसका ठप्पा सहन नहीं कर पाते हैं... फिर भी उनके उगले गये शब्दों से आँख मूंदकर आगे नहीं बढ़ सकते हैं...इसीलिए नित्य किये गये कैय करें स्वीकार...उसके बाद करें... सृजन/सरोकार और सम्मान की उलटी बात...हाय...फेकने-फेकने भये हैं...जीवन के पल दो-चार...ईश्वर उनकी भला करें चारो धाम... डॉ. सुनीता</b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>"मेरे स्पष्ट बोलने के कारण इस फ़ेसबुक पर बहुत लोग नाता भी तोड कर जा चुके हैं.... तो क्या मुझे अपनी स्पष्टवादिता छोड देनी चाहिए ?" - रवीन्द्र के दास</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>"मैं तो फेस-बुक को चतुर्भुज-स्थान समझता था, पार्थ ! </b></span><span style="font-size: large;"><b>लेकिन यह तो एक क़त्ल-गाह है, सार्त्र !</b></span><b style="font-size: x-large;">- कल्बे कबीर (कृष्ण कल्पित)</b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मित्रो! हिन्दी फ़ेसबुकी साहित्य जगत का मुझे यह संक्रमण काल लग रहा है। जिस में एक नहीं, कई तरह के संक्रमण हैं और जिन में सब से अधिक आत्ममुग्धता, फ़तवाबाजी, उपेक्षा, प्रलाप आदि हैं। इन में भी सबसे अधिक आत्ममुग्धता है जिस में एक अनेक नहीं कई कंपनियां सक्रिय हैं जिन में कट्टर बाजारु प्रतियोगिताएं दिखायी देती है और इस प्रतियोगिता में एक दूसरे को धोबी- पाट देने के लिए किसी भी हद तक जाते और तथाकथित बुध्दिजीवी मर्यादाओं बगलें झांकते और मुंह छिपाते देखा गया है। पिछले एक दो बरसों से एक नयी बात जो हुयी है.. वह है हिन्दी कविता- कहानी में कुछ नए नाम अवतरित कराए गए और लगातार यह क्रम जारी है.. जिनका लिखने- पढने की दुनिया में कहीं कोई उपस्थिति दर्ज़ नहीं थी। मज़े की बात ये कि जिस तरह ऎसे नाम आए... वैसे ही उन में से अधिकतर गायब भी हो गए.... सिर्फ़ एक माहौल बनाने वाली बात होकर ही रह गए.. ऎसे आत्ममुग्ध लेखकों- आलोचना- संपादक विशेषज्ञों की हर गतिविधि अपने निर्धारित दायरों- अपनी धारा में ही केंद्रित रहती है, बावजूद इसके कुछ अन्य बातें भी किसी कंपनियों के अपने अपने उत्पाद को सबसे अलग विशेष बताने वाले हम उसी उत्पाद को क्यों लें वाले बड़े-बड़े विज्ञापन में रिझानेवाले अतिश्योक्ति पूर्ण तमाम तामझाम व कथन यहां भी मिलेंगे फ़र्क है तो बस यह कि इन में उन कंपनियों की तरह विज्ञापन में वह नन्हा सा स्टार नहीं होता जिस में उत्पाद सम्बंधी शर्तें छुपी होती है.. स्टार प्रचारक, एबेंसेडर जरूर हैं। और होता अधिकतर यहां भी वही है ऎसे विज्ञापनों वाले कंपनी उत्पाद खरीदने पर होता है। खोदा पहाड़ निकली चूहिया। सुनवाई कंपनियों में भी नहीं होती, यहां भी नहीं हैं। अगर आपने हिम्मत कर फ़तवे को स्वीकार नहीं किया, या सहमत नहीं हो कुछ कह-सुन दिया तो आप खेमे- समूह से बाहर और उपेक्षित। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"> मीडिया के मैनेज होने का आरोप लग रहा है लेकिन साहित्य में तो यह चक्कर बरसों से हैं..और अब फ़ेसबुक पर भी... लिखने से लेकर छपने, बिकने, चर्चित, स्थापित और पुरस्कृत होने का एक पैटैर्न है..अगर आप उस पैटैर्न के समर्थक, साथ नहीं हैं तो आप कुछ भी विरोध में कहें- लिखें हाय तौबा किसी के क्या फ़र्क पड़नेवाला है क्योंकि यहां तो अधिकतर बहती गंगा में हाथ धोने में विश्वास रखनेवाले लोग होते हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">फ़ेस बुक के तीन फ़ेस </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">1. सर्वाधिक - वे जो सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी और अपने परिवार, मित्रो से सम्बन्धित उपलब्धियां (जिनके केंद्र में वे खुद या उनके अपने हैं), की पोस्ट या चित्र शेयर करते है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">2. सर्वाधिक से थोड़े कम - कुछ उदार परिवार, मित्रो से थोड़े आगे बढ अपने शहर, प्रांत की पोस्ट या चित्र शेयर करते हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">3. सबसे कम - अपनी और अपने परिवार, मित्रो से सम्बन्धित उपलब्धियां (जिनके केंद्र में वे खुद या उनके अपने हैं) से अधिक समाज, आम आदमी, देश-विदेश के सम सामयिक सामाजिक, राजनैतिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और कलाओं से सम्बन्धित घटना-क्रमों, मुद्दों पर वैचारिक अपनी सोच, बहस और मंथन से ध्यानाकर्षण करते हैं</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">फ़ेस बुक के तीन अनुभूत सत्य</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">पहला- पोस्ट चाहे जैसी हो अगर प्रोफ़ाइल फ़िमेल हैं तो दावा है खूब सारे लाइक और कमेण्ट मिलेंगे</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">दूसरा- पोस्ट चाहे जैसी हो अगर पोस्ट किसी प्रोमिनेंट फ़िगर की हैं तो भी खूब सारे लाइक और कमेण्ट मिलेंगे</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">तीसरा- पोस्ट चाहे कितनी ही अच्छी, सही और मुद्दे की हो लेकिन अगर प्रोफ़ाइल सामान्य और दमदार नहीं तो बहुत मुश्किल है कि आपकी बात को आपके निजी मित्रों से बाहर किसी का समर्थन मिल पाए।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>चार साला फेसबुक सर्फिंग से प्राप्त बोध </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>१. यहाँ आत्म-विज्ञापन ही होता है </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>२. यहाँ "सुविधावादी" मानसिकता अधिक प्रबल है. </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>३. यहाँ सिर्फ और सिर्फ आत्मानुकूलित बातें कही-सुनी जाती हैं.</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>४. यहाँ "अपने को कुछ समंझने वाले" दूसरे को अपने प्रशंसक से अधिक नहीं मानते हैं. </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>५. यहाँ सभी "अपनी धारणाओं" को 'सच' कहकर परोसने का यत्न करते है. </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>६ . यह पाठ्य से अधिक दृश्य माध्यम है. </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>विशेष : तथापि नए संपर्क बनते हैं जो आत्म-विस्तार की गरज से बेहतर है जो इससे पहले संभव न था. (रवीन्द्र के दास)</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>आप अपनी वाल पर जो चाहें जैसे चाहें विचार लिखें और उन पर आयी टिप्पणियों पर अपने हिसाब से फ़ैसले लें लेकिन आपको कोई हक नहीं कि आप अपने मित्र की वाल पर व्यक्त विचारों पर किसी टिप्पणी या टिप्पणियों पर सारी मर्यादाएं ताक पर रखते हुए अभद्रता और असहनीय बद्तमीज़ी पर उतर आएं भले ही विचारों कितनी ही असहमतियां हों लेकिन यह भाईगिरी दिखाने का मंच तो कतई नहीं है जैसा कि कुछ लोगों ने समझ रखा है.. ऎसे मित्रो से तो...ऎसी ही समस्या से त्रस्त हो आज एक मित्र को अमित्र करना पड़ा है..</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span><b>"महान कौन? <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>कुछ लोग महान पैदा होते हैं. कुछ लोगों को महानता विरासत में मिलती है. कुछ लोग महान बनने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाते हैं, वे काम तो बहुत औसत दर्जे का और कभी-कभी बहुत घटिया काम भी करके अपने जीवन में महान बने फिरते हैं लेकिन मरते ही उनकी गली, उनका दरबार, उनके दरबारी दुसरे महान किस्म के लोगों कि खोज में लग जाते हैं. वे अपने आसपास घिरे लोगों के बीच ही महान बने रहते हैं. पर कुछ लोग सिर्फ काम करते हैं और सिर्फ काम करते हैं. अपने काम का जिक्र भी सिर्फ सन्दर्भ आने पर ही बहुत ही संक्षेप में करके आगे चल पड़ते हैं. वे यह समझते हैं जीवन तो एक ही मिला है या तो काम हो सकेगा या नाम. काम मरते दम तक कर लो नाम बाद में उनके काम से होता रहेगा। वे यह समझ कर काम करते हैं कि पेड़ का हर पत्ता छाया और हवा देने के काम नहीं आता, कुछ आँगन में बिखरकर, सड़कर अपने समाज के लिए खाद बनकर जीवन को लहलहाने के काम ही आ सकें तो भी जीवन सार्थक।" - स्वतंत्र मिश्र </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span><b>"आत्मप्रचार एक अच्छी चीज है क्योंकि इससे 'आत्म' संपृक्त है, लेकिन फिर भी अपनी कविताओं को, उनके लिंक्स को या कहीं प्रिंट में पब्लिश होने की उनकी सूचना को फेसबुक स्टेट्स में शेअर करना मुझे हमेशा अनुचित लगता रहा है।" </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b> - अविनाश मिश्र</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>फ़ेस बुक २</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>किसी की वाल पर जाकर टैग करना....</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>अचानक आए संकट से निपटने के लिए </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>नींद में सोए आदमी के घर </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>आधी रात को</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>दरवाजे पर दस्तक देना है। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>संकट में मित्रो का</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>सहयोग करना अच्छा लगता है </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>यह तो अपनी भी सुरक्षा है।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>पर कच्ची नींद मेंं</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>ये लगे कि कोई </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>अपनी कुंठा का वमन करने आया है </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>तो....</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>आप ही बताईए </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>आपको कैसा लगता है? - निलय उपाध्याय</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"><span style="font-size: large;"><b> </b></span></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>फ़ेसबुक के वे मित्र जो अपनी हर पर्सनल एक्टीवीटी के छाया -चित्र यूं चस्पां करते हैं जैसे वे कोई ऎतिहासिक हो जिन्हें फ़ेसबुक पर्यटकों द्वारा देखा जाना अनिवार्य है मैं टूथ ब्रुश करते हुए, मैं नहाते हुए, धोते हुए, मैं खाते हुए, मैं खिलाते हुए, मैं सोते हुए, मैं जागते हुए, मेरी टिकट कन्फ़र्म हो गयी, मैं ये मैं वो, मैं ऎसे, मैं वैसे.. जाने कितने उदाहरण होंगे ऎसे...हद नहीं मित्रो ये बेहद की पराकाष्ठा है और ऎसे चित्रो को टैग करना तो उफ़्फ़! क्या हैं आप.. एक सह्र्दय मित्र होने के नाते एक सलाह- सुझाव देना चाहूंगा कृपया अपनी बेहद निजी ज़िंदगी को सार्वजनिक बाजार बनाने से बेहतर हो कि आपसी संवाद के इस बेहतरीन माध्यम का उपयोग और ऊर्जा हम यहां हमारे सार्वजनिक जीवन में हासिल प्रतिभा- उपलब्धियों, विशेषताओं को साझा करने में करें न कि नितांत व्यक्तिगत क्रिया- कलापों के प्रदर्शन में...अपने ही मित्रो की सहनशीलता और धैर्य की ऎसे परीक्षा न लें कृपया! ..मैंने पहले भी अपनी एक पोस्ट में ध्यान दिलाने का प्रयास किया था.. मित्रो! फ़ेसबुक सोशल मीडिया माध्यम के रूप में हमें मिली वह संजीवनी है जिसके माध्यम से हम हमारी वैचारिक अभिव्यक्तियां दूसरों के साथ न केवल साझा करते है अपितु उस विषय में विशेषज्ञों से संवाद-बहसें भी करते है। इस माध्यम ने हमें वह मंच दिया है जो हकीकतन हमें शायद ही मिलता.. एक और उपलब्धि और खासियत यह कि यहां हमें अपने उन अग्रजों- विशेषज्ञों से सीधे संवाद- सम्पर्क का भी मौका मिला है जिनको हम सिर्फ़ सूचना- प्रचार- प्रिण्ट माध्यमों से जानते थे..अत: इस मंच पर हमारी उपस्थिति और मान- मर्यादा किसी और के नहीं हमारे खुद ही के हाथों में हैं..इसका सम्मान करें और अपने चाहनेवालों - मित्रो के बीच उदाहरणीय बनें और इस वैश्विक आंगन को अपना बैडरूम बनाने से बचाएं...इसे इसे अन्यथा न लें, आपके हित में ही हमारा हित है.. आपकी मित्रता- विचार हमारे लिए अमूल्य है....आपकी नित्य दैनिक क्रियाएं कदापि नहीं..</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">देखिए! देखिए तो!</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">मेरा घर</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">मेरी रसोई</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">बच्चों का कमरा</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">मेरी स्टडी</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">हमारा बैडरूम</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">छोटी बॉल्कोनी</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">और इसी में </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">हमारी छोटी सी</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">प्यारी सी फ़ुलवारी</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">ये हमारे दो गुसलखाने</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">एक देसी, एक यूरोपियन</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">और खुली- फ़ैली छत भी</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">सच ऎसा है मेरा घर</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">मैंने भी पहली बार देखा है</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">अपना ये पूरा घर</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">आपको जो दिखाना था</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">छत बची है</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">उस पर अगली बार ले जाऊंगा...नोट:- यह कविता नहीं है</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अक्सर देखता हूं कि कुछ मित्र अपने खाने की टेबल दिखाते हैं कि उनके खाने के मीनू में क्या- क्या है इसी तरह ड्रिंक की टेबल भी.. उन्हें लाइक और उन पर कमेण्ट्स देख हैरत होती है। इसी तरह दो - तीन दिन पहले मित्र विचारक- आलोचक आशुतोष कुमार ने किसी सीढियों का उखड़े हुए रंग प्लास्टर के साथ एक चित्र "पहचाना? बताइये यह किसकी छवि है ?" और हम बुध्दिजीवियों का कमाल देखिए उस पर उन्हें अब तक 67 लाइक्स और 104 कमेंट्स मिल चुके हैं..सिर्फ़ इसलिए वह पोस्ट फ़ेसबुक पर ज्वलंत मुद्दों को उठाने और सार्थक बहसें करनेवाले एक सक्रिय एक प्रोमिनेंट फ़िगर की है.. इसलिए उनकी यह फ़ालतू चीज भी कितने काम की है। और ऎसे हादसे आजकल आम हो चुके हैं। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>लगता है आनेवाले समय में लोग अपनी दैनिक नित्य क्रियाएं व अंतरंग निजी पलों को भी पब्लिकली साझा करने लगेंगे.... अपना खाना- पीना, पहनना- ओढना तो सबके साथ बांटना शुरु कर ही चुके हैं...यहां अपने इस फ़ेसबुकी प्लेटफ़ार्म की साफ़- सफ़ाई और शालीनता हमारे ही हाथ में है भिड़ू ! मैं झूठ बोलिया कोई ना.. </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">इस बारे में मित्र स्वतंत्र मिश्र की यह पोस्ट ’<b>सिमटते हुए समाज में फेसबुक का एक दर्दनाक पहलू यह भी है. यहाँ dislike का विकल्प नहीं है।’ और एक अन्य मित्र रविंद्र के दास का ’मेढकों को कब तक रखेंगे खुले तराजू में ?[इन-बॉक्स जिन्न]’ आपसदारी से मित्रता (?) का अलख भले जगे ..... कविता का अंडा नहीं से सकते.’</b> व व्यंग्य <b>"फेसबुक बारहवीं तक ब्वायेज स्कूल में पढ़े और फिर कालेज में को एड में आ गए लड़कों की क्लास जैसा होता है जहाँ सब पोलिटिकल करेक्ट होने की कोशिश में एक्टिंग उर्फ़ पोस्टिंग करते रहते हैं." </b>मुझे बहुत महत्त्वपूर्ण लगती है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इसके विपरीत फ़ेसबुक पर सम समसामयिक जवलंत मुद्दों के साथ- साथ सामाजिक, राजनैतिक, साहित्यिक और आचार- व्यवहार सम्बन्धी सार्थक बौध्दिक विचार- विमर्श और बहसें भी मित्रों के बीच होती रहती है जिनके परिणाम स्वरूप मित्रताएं भी खतरे में पड़ जाती है और कभी- कभी तो खतरे में भी पड़ जाती हैं पिछले वर्ष मेरे और दूलाराम सहारण, ओम थानवी- अशोक कुमार पाण्डे, मोहन श्रोत्रिय, गिरिराज किराड़ू आदि के बीच हुयी वैचारिक बहसों के हश्र क्या हुए थे, फ़ेसबुकी मित्रो को स्मरण होगा.. कुछ मित्र तो आज तक आपस में ब्लॉक हैं। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">"<b>लोगों का क्या है, कुछ भी बोल देते हैं ! अब देखिए न, कल तक जो लोग इसी मंच पर मित्रों को वैचारिक असहमतियों के नाम पर ब्लॉक करते रहे हैं आज अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए गला फाड़ रहे हैं ।" - नील कमल</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="background-color: #38761d; font-size: x-large;">फ़ेसबुक साहित्यिक अखाड़े में बुध्दिजीवियों की वैचारिक बहसों, आरोपों -प्रत्यारोपों के कुछ ऎतिहासिक सोपान </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>"नये रचनाकारों का शोषण अक्सर बड़े लोग करते है ये वे लोग है जिन्हें हम बड़ा बनाते है जिसमे सूरज प्रकाश,तेजेंद्र शर्मा,मधु अरोरा का नाम लिया जा सकता है जो मेल के जरिये इनबॉक्स के जरिये एक नई लेखिका को धमकाने में लगे है कि तुम लिखना बंद करो,तुम्हें लिखना नहीं आता .मुझे जब पता चला मित्रों मैं तो हैरान हो गया कि कुछ तथाकथितों की वजह से नई पीड़ी क्या लिखना बंद कर दें या जो जो वोह गाहे बगाहे सीख दे उस पर चले .हद्द हो गई शराफत की .इस से वे साबित क्या करना चाहते है की क्या वे प्रेमचंद हो गए .उफ़ जब कि फर्ज यह होना चाहिए कि आप आने वाले नए सृजनका स्वागत करे उसे शाबाशी दे ना कि उसे प्रताड़ित करे .बड़े बनते है ,काहे के .......लालित्य ललित</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span><b>"मैं इस समय ट्रेन में हूँ। कुछ मित्रों ने बताया कि मेरे ही कुछ बेहद सगे मित्र फेसबुक पर मेरा चरित्र हनन कर रहे हैं। ज।न कर आश्चर्य नहीं हुआ। संयोग से जिनकी ओर से मुझ पर आरोप लगाया गया है उनके साथ हुई सारी चैट मेरे इनबाक्स में सुरक्षित है। मैं जग जाहिर करता हूँ और उम्मीद करता हूं कि सामने वाला या वाली भी अपने आरोपों के साथ मुझसे हुई तथा कथित चैट जगजाहिर करे या सार्वजनिक रूप से माफी मांगे। - सूरज प्रकाश</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span><b>"मुझे कुछ कहना है। भारी मन से। पिछले चार बरसों में फेसबुक ने मुझे हज़ारों बेहतरीन मित्र, पाठक, कहानियों के प्रशंसक और कई कहानियों के यादगार पात्र दिये और मैं हर रोज फेसबुक से अपने लेखन के लिए असीम ऊर्जा पाता रहा। लेकिन कुछ दिन पहले मेरे भोले भंडारी दोस्त ललित लालित्य ने मुझ पर एक नवोदित लेखिका को लेखन से गुमराह करने और उसे लेखन के प्रति हतोत्साहित करने के गंभीर आरोप लगाये। मेरा कुसूर मात्र इतना था कि मैंने उस लेखिका की एक खराब कहानी को सचमुच खराब बता दिया था जब कि फेसबुक पर उसे कहानी पर अच्छी खासी टीआरपी मिल रही थी। इस और कुछ और तथाकथित शिकायतों का पुलिंदा बना कर लेखिका ने कुछ मित्रों को मेरा चरित्र हनन करते हुए एक मैसेज भेजा। मैंने लेखिका को मुझ पर लगाये गये आरोपों का साबित करने या माफी मांगने के लिए लिखा तो उसने खुदकुशी करने की धमकी दे डाली। भगवान न करें, कहीं उसने सचमुच खुदकुशी कर न ली हो। मेरे पास उस महिला मित्र से हुई सारी चैट सुरक्षित है। उसमें कहीं भी कुछ भी ऐसा नहीं है जो मुझे आरोपों के घेरे में खड़ा करता हो। यह चैट सिर्फ मुझ तक रहेगी। मैं अब भी कह रहा हूं कि वह लेखिका अब भी मुझ पर लगाये गये आरोप सिद्ध करे। मैं कोई भी ऐसा कदम नहीं उठाऊंगा जिससे एक उभरती हुई लेखिका के परिवार या कैरियर पर कोई आंच आये। मेरा जो होना था वो हो चुका। फेसबुक ने ये दिन भी दिखाना था। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>फिर भी मुझे विश्वास है कि मुझे आप सब मित्रों का आदर, स्नेह और अपनापन मिलता रहेगा। - सूरज प्रकाश</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span><b>"हमारे द्वारा ब्लाकित और मेले में न पहचाने जाने से आहत एक युवतर कवि-उप टाइप के कुछ सम्पादक, कूड़ा गिरोह के प्रखर प्रवक्ता अपनी नाहत इर्ष्या में हमारी फोटूओं और हर आयोजन में भागीदारी से विदग्ध हैं। हमें एहसास है कि उन्हें विस्तार से हमारी भागीदारियों की ख़बर न मिली होगी। तो यहाँ सब लिखे देते हैं ताकि वह जलें तो भरपूर इर्ष्याग्नि में जलें। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>1- समन्वय के आयोजन 'साहित्य में आम आदमी' में प्रोफ़ेसर सविता सिंह, आशुतोष कुमार, रमाकांत राय, प्रभात रंजन और गिरिराज किराडू के साथ</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>2- समन्वय के एक अन्य आयोजन 'युवा जीवन की अजब ग़ज़ब दास्ताँ' में महुआ माजी, गंगा सहाय मीणा, मनीषा पाण्डेय और प्रभात रंजन के साथ</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>3- ज्ञानपीठ के 'केदार ग्रंथावली' तथा 'बड़ी किताबों पर बड़ी फिल्मों' के विमोचन कार्यक्रमों का संचालन।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>4-ज्ञानपीठ की परिचर्चा 'युवा साहित्य का बदलता परिवेश' में अजय नावरिया, डा निरंजन श्रोत्रिय, प्रेमचंद गांधी, राजीव कुमार, उमाशंकर चौधरी और कुमार अनुपम के साथ भागीदारी।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>5- दलित लेखक संघ के कविता पाठ में मुख्य आतिथ्य</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>6-शिल्पायन के एक आयोजन में उमेश चौहान जी की सद्य प्रकाशित पुस्तक के विमोचन कार्यक्रम का संचालन।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>और दख़ल के 'कविता की शाम' तथा 'बीसवीं सदी में डा अम्बेडकर का सवाल' पुस्तक पर लेखक पाठक संवाद का सञ्चालन तो खैर करना ही था। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>"यह पोस्ट सिर्फ उन्हें इर्ष्याग्नि में जलने की प्रचुर सुविधा उत्पन्न कराने के लिए है। कुछ और लोग इसे आत्मप्रचार जैसा कुछ मानकर सुखी/दुखी/मैं न कहता था टाइप भाव पाल सकते हैं।" (अशोक कुमार पाण्डेय) </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>"बहसों से भागे हुए लोग जब अपनी वाल पर खीझ भरी टिप्पणियाँ करते हैं, झूठ लिखते हैं, मिस्कोट करते हैं तो मान लेना चाहिए कि वे 'जन' के ऊपर अपनी 'सत्ता' न चला पाने की भयानक कुंठा में डूबे हैं. जिन्हें कुछ 'लौंडों' के सवालों से दिक्कत होती है वे मानकर चलते रहे अब तक कि 'लौंडे' सिर्फ यस सर कहने के लिए, दारू पहुँचाने के लिए, फोटो खींच कर 'अहो भाग्य' मुद्रा में आ जाने के लिए, उनकी दो कौड़ी की किताब की चार पेज की समीक्षा (?) लिखने के लिए और उनके सामने याचक मुद्रा में खड़े होने के लिए होते हैं. उनका भ्रम तोड़ने के लिए हम मुआफी मांगने वाले नहीं...हाँ उनके दुःख के प्रति हमारी 'व्यंग्यात्मक संवेदना ' ज़रूर है. जिन्हें अपने सामने सबको चुप रखने तथा अपने बड़ों के आगे चुप रहने की आदत है, उन्हें हमारा बोलना अगर 'वाचालता' लगता है तो वे सुन लें... हम चुप्पियों पर वाचालता को हमेशा वरीयता देंगे. उन्हें बुरा लगे तो हमारी बला से! " - दखल प्रकाशन</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>"हमारे बीच एक कथाकार हैं जो कभी किसी को धमकियाँ देते हैं और रंगे हाथ पकड़े जाने पर चट से माफ़ी भी मांग लेते हैं. कभी किसी खास प्रकाशन से जुड़े हुई या अघोषित तौर पर एजेंट भी लगते हैं. वे पहले भी बहुत बड़े साहित्यकार-पत्रकार नहीं रहे न ही आज जो कर्म कर रहे हैं, वहीँ बहुत ख़ास योगदान दीखता है.यही वजह कि वे अब कथा कम अकथा ज्यादा रच रहे हैं. वे पुरष्कार पाने के लिए बेताबी में रहते हैं. वे छुट्टा सांड की तरह बौरा गए लगते हैं उन्हें काँटों और फूलों का फर्क करना नहीं आता. उन्हें इतनी बैचेनी क्यों है भाई? दिमाग जरा दिखवा दो भाई इनका, अन्यथा ये तो अपने बनाये पुल से कूदकर जान दे देंगे किसी दिन..... फिर हमसे मत कहियेगा कि मैने नहीं चेताया था.।" - स्वतंत्र मिश्र </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>"किसी दोस्त ने सूचना दी कि 'शुक्रवार' नामक दिल्ली से छपने वाली 'हिंदी' की व्यावसायिक-साहित्य की पत्रिका में कहीं से मेरा एक बहुत पुराना चित्र उड़ा कर छाप दिया है, जिसमें मैं भोपाल के 'हिंदी' कवि स्व. विनय दुबे और जीवित 'हिंदी' कवि श्री राजेश जोशी का कोई 'संस्मरण' प्रकाशित हुआ है । लेकिन न तो चित्र परिचय में न श्री जोशी जी के संस्मरण में कहीं भी मेरा कोई नाम है । </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>शायद यह चित्र तब का है, जब मैं भोपाल में म.प्र. संस्कृति विभाग में विशेष कर्त्तव्य अधिकारी था और वहाँ की संस्कृति तथा साहित्य में पसरे कट्टर ब्राह्मणवादी भ्रष्टाचार से उकता कर इस्तीफ़ा दे कर वहाँ से लौट आया था । </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>दिल्ली की पत्रिका 'शुक्रवार' के संपादक 'हिंदी' कवि श्री नागर और भोपाल के 'हिंदी' कवि श्री जोशी तथा उस 'कैप्शन-विहीन' फ़ोटो के बीच सुलगता हुआ सूत्र समान जाति के होने के साथ-साथ मध्य प्रदेश सरकार का 'हिंदी' साहित्य पुरस्कार 'शिखर-सम्मान' जुगाड़ने का तथ्य भी है । ये तीनों 'निर्विवाद' 'हिंदी' की 'जनवादी'कविता के 'िशखर' हैं । </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>दोस्तो, आपको हँसी आयेगी कि भोपाल के सभी लेखक संगठन और समस्त साहित्यिक संस्थानों पर एक ही 'जाति' का कई दशकों से क़ब्ज़ा है । यहाँ तक कि संस्कृति-साहित्य से संबंधित सरकारी संस्थाओं को तो गिनना छोड़िये, आदिवासी और जन-जातीय कला-संस्कृति भी इसी एक जाति के क़ब्ज़े में है । </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>(सावधान, इस सच को एक अपर्याप्त छोटे से पोस्ट के फ़ौरन बाद संस्कृति और साहित्य के परिदृश्य को भ्रष्ट जातिवादी वर्चस्व के कोण से देखने के विरुद्ध मेरे विरुद्ध कोई 'अभियान' उसी 'हिंदी' भाषा के कवियों-लेखकों द्वारा शुरू हो जाएगा, जिसमें लिखते हुए मैं अक्सर सोचता हूँ कि क्या यह मेरी भी 'भाषा' है ?</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>यह हमारी 'भाषा ' क़तई नहीं है दोस्तो । इसमें हमारे चित्रों में हमारा नाम न होना एक ग़नीमत है, आश्चर्य नहीं ।" (उदय प्रकाश) </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>”फेसबुक पर लोग दिन में कितना-कितना ज्ञान बांटते फिरते हैं ! निस्संकोच। गुरु-गंभीर मुद्रा में। जो दिल में आए, लिख मारते हैं। जैसे दुनिया भर का वैचारिक बोझ उन्हीं पर हो ! मुझे लगता है ऐसे फेसबुक बाबाओं में ज्यादातर वे हैं जो विफल शिक्षक, विफल लेखक या विफल पत्रकार रहे हैं।” क्या आप भी ये सद्कर्म यहां नहीं करते? ”हालांकि मैं भी सफल लोगों में नहीं (वरना किसी चैनल पर कव्वे न लड़ा रहा होता!); पर जिन्हें ज्ञान का अजीर्ण है, अपने कहे पर जरा संशय नहीं, उनका क्या करें?” (ओम थानवी)</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>"रोम जल रहा था नीरो बंशी बजा रहा था- यह मुहावरा पिछले दिनों अपने सबसे प्रिय अखबार के सबसे प्रिय संपादक की हरकतों से कुछ बेहतर समझ में आया. पिछले दिनों न्यायालय द्वारा सज्जन कुमार को ८४ के सिख विरोधी दंगों के आरोपों से मुक्त कर दिया गया. सरबजीत सिंह की पकिस्तान में एक तरह से हत्या कर दी गई. हमारे संपादक जी ने फेसबुक पर कोई स्टेटस इन घत्ब्नाओं को लेकर नहीं लिखा, जबकि पूरा देश उबल रहा था. वे क्या कर रहे रहे? एक संदिग्ध और साधारण कवि कमलेश शुक्ल को असंदिग्ध और असाधारण बताने के 'युद्ध' में जुटे हुए थे. संपादक जी की इस 'पक्षधरता' से मैं हतप्रभ हूँ. जिस संपादक से इतना सीखा उसके कृत्यों पर शर्म आ रही है.</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>"कवि कमलेश को मैं तब से जानता हूँ जब वे जॉर्ज फर्नांडीज के लिए काम करते थे. मैं दिल्ली में अपने स्थानीय अभिभावक हरिकिशोर सिंह(पूर्व विदेश मंत्री) के दरबार में उनको अक्सर देखा करता था. मुझे बहुत बाद में पता चला कि वे हिंदी के कवि भी हैं. कुछ लोगों की छवियाँ जरुरत से ज्यादा धवल बना दी जाती हैं. आदरणीय संपादक जी, आप जिस कवि कमलेश का चरित्र बचाना चाहते हैं पहले उसके चरित्र को तो जान लें."</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>"वाद विवाद किसी मुद्दे पर हो तो संवाद की सम्भावना बनी रहती है. श्री ओम थानवी ने जब कवि कमलेश शुक्ल के चरित्र को लेकर अति-उत्साह दिखाया तो मैंने उसका विरोध किया. लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि एक लेखक-संपादक के रूप में हम उनके अवदान को भूल जाएँ. ऐसे दौर में जब हिंदी पत्रकारिता के सारे स्तम्भ धराशायी हो रहे हैं ओम थानवी ऐसे अकेले संपादक हैं जो भाषा और साहित्य के लिए खड़े होते हैं. 'जनसत्ता' आज अगर अन्धकार में एक प्रकाश है तो उसके पीछे ओम जी ही हैं, इस बात को नहीं भूलना चाहिए. हाँ, जब भी वे कमलेश जैसे किसी 'जाली विद्वान' के चरित्र की चिंता करेंगे मैं उनका पुरजोर विरोध करूँगा. गलत को गलत कहना भी उनसे ही सीखा है, लेकिन सही को भी तो सही कहना होता है भाई लोगों!</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मेरा उद्देश्य कभी भी ओम थानवी जी को अपमानित करना नहीं था. लेकिन अगर मेरी टिप्पणियों से से उनको ऐसा लगा कि मैं उनका अपमान कर रहा हूँ या उनका चरित्र हनन कर रहा हूँ तो मैं इसके लिए उनसे माफ़ी मांगता हूँ. उनकी यह बात सही है कि मुझे कवि कमलेश के बारे में सुनी-सुनाई बातों के आधार पर कुछ नहीं लिखना चाहिए था. मैं उसके लिए भी माफ़ी मांगता हूँ. लेकिन इतने बड़े अखबार के जिम्मेदार संपादक होने के बावजूद उन्होंने भी सुनी-सुनाई बातों के आधार पर मुझे 'कांग्रेस का सेवक' कह दिया, वह भी बिना प्रसंग के, क्या उनके लिए यह शोभा देता है? बहरहाल, इस सवाल के साथ मैं उन सबसे एक बार फिर माफ़ी मांगता हूँ जिनका मैंने दिल दुखाया, जिनके प्रतिकूल टिप्पणी की, विशेषकर ओम थानवी जी से, जिनके साथ 'जनसत्ता' में काम करना मेरे जीवन का यादगार अनुभव रहा है. - प्रभातरंजन</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>"एक बेबुनियाद आरोप इतवार को एक अखबार में लगाया गया था - प्रतिलिपि 'पत्रिका' की थोक खरीद के लिये आवेदन करने और अस्वीकार होने पर पर आवेदन अस्वीकार करने वालों के खिलाफ अभियान चलाने का। जब एक मित्र ने प्रमाण मांगा तो कहा गया कहने वाले की प्रतिष्ठा इतनी है कि उसका कहा ही प्रमाण है! फिर कहा गया 'पुस्तक' की जगह पत्रिका सुनने की 'भूल' हुई है। फिर कहा गया फेवर मांगने और न मिलने का मामला है। और यह कि प्रतिवाद क्यूं छापें जब उनका 'हमारी जनतांत्रिकता' में ही विश्वास नहीं। प्रतिवाद तो करेंगे, छापना न छापना उनका काम है। जिस संस्था का एक लाख सालाना हम मंच से अस्वीकार कर चुके उससे तो फेवर मांगने का आरोप सुनकर भी हंसी ही आती है। प्रतिलिपि बुक्स ने जनवरी 2011 में किताबें प्रकाशित करना शुरु किया और फरवरी 2011 में कविता समय के पहले आयोजन में एक लाख सालाना अस्वीकार कर दिया गया। </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>"जानकीपुल पर अशोक वाजपेयी का जो ईमेल छपा है उसने यह तो सिद्ध कर दिया कि ओम थानवी ने 'थोक खरीद के लिये आवेदन करने' का जो आरोप लगाया था वह गलत था। अगर उनमें कोई नैतिकता हो तो उन्हें अपने अख़बार में भूल सुधार और खेद व्यक्त करना चाहिये। इस ईमेल में अशोक वाजपेयी ने जो कहा है कि 'वे अपने प्रकाशन से कुछ पुस्तकों के प्रकाशन के लिए फाउंडेशन से वित्तीय सहायता का आग्रह करने के लिए मुझसे मिले थे. हम उनके आग्रह को स्वीकार नहीं कर सके.' वह भी गलत है। प्रमाण मैं जारी करूंगा। इंतजार कीजिये क्यूंकि जनसत्ता के कारण यह मामला एक ऐसे पाठक समूह के भी सामने है जो सब यहाँ इंटरनेट पर नहीं है। जिन मित्रो ने मुझपे भरोसा जताया है वे बनाये रखें उन्हें निराश नहीं होना पड़ेगा।" - गिरिराज किराड़ू</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>"अपने ही बुने जाल में हँस-हँस कर फँसते हैं लोग। अपने एक फ़ेसबुकिया दोस्त की गति देख कर आज डा शंभुनाथ सिंह बहुत याद आ रहे हैं। उन की ही यह एक गीत पंक्ति है ; अपने ही बुने जाल में हँस-हँस कर फँसते हैं लोग। तो भैया फंस गए हैं। और अनाप-शनाप बक रहे हैं। छात्र राजनीति की लत अभी तक गई नहीं है। खैर, शंभुनाथ सिंह हैं तो देवरिया के मूल लेकिन काशी में रहते थे। विद्यापीठ में पढ़ाते थे। और एक से एक मधुर गीत लिखते थे। 'समय की शिला पर मधुर चित्र कितने/ किसी ने बनाए, किसी ने मिटाए/ किसी ने लिखी आंसुओं से कहानी/ किसी ने पढा़ किंतु दो बूंद पानी/ इसी में गए बीत दिन ज़िंदगी के/ गई धुल जवानी, गई मिट निशानी।' उन का ही मशहूर गीत है।" दयानंद पाण्डे</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>कामरेड की जय हो !</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>हमारे एक मित्र थे क्या, हैं अभी भी। हां फ़ेसबुक पर अब नहीं हैं। यह उन की अपनी सुविधा और उन का अपना चयन है। लेकिन आज उन्हों ने साबित कर दिया कि वे फ़ासिस्ट थे, फ़ासिस्ट ही रहेंगे। लेकिन साथ ही यह भी बता दिया कि वह पलायनवादी भी हैं। सच से और तर्क से आंख छुपाने में भी खूब माहिर हैं। कामरेड की जय हो ! - दयानंद पाण्डे</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>"'कच्चा चिठ्ठा ' खोलने की धमकी के प्रकरण में जिस तरह प्रभात रंजन की संलिप्तता उजागर हुयी है ,वह सचमुच हिन्दी समाज के सार्वजानिक जीवन के लिए एक शर्मनाक और अफसोसनाक दृश्य है .विशेषकर तब और भी जब इसके लिए कोई प्रकट कारण न हो .उनके इस आपराधिक कृत्य की तात्कालिक प्रेरणा के मूल में 'कथादेश' (जुलाई १३) में प्रकाशित "सी आई ए के प्रति ऋण बनाम 'अज्ञान का अँधेरा' "शीर्षक मेरा वह लेख था जो अर्चना वर्मा के लेख के प्रत्युत्तर में लिखा गया था . लेकिन इस लेख में निशाने पर प्रभात रंजन कहीं नहीं थे .स्वाभाविक ही था कि निशाने पर वे लोग थे जो 'सी आई ए के प्रति समूची मानवता ' के ऋणी होने का आह्वान और समर्थन कर रहे थे और वाम विचार को कलंकित करने का अभियान चला रहे थे .अस्वाभाविक नहीं है कि उनके निशाने पर मैं हूँ .ओम थानवी ने उदय प्रकाश प्रकरण में मेरे बारे में अपनी 'इज्जत 'भरी टिप्पणी से इसका खुलासा भी कर दिया .लेकिन यह सब खुली और प्रकट बातें हैं ,इनका क्या गिला ! कमर के नीचे के वार को सहने के लिए भी तैयार रहना ही चाहिए .दरअसल यह सब असहमति के विचार की भ्रूण हत्या की कोशिशें है जो हर दौर में होती रही हैं .- वीरेंन्द्र यादव </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>"जीवन में किसी ईमानदार आदमी को यह कहते हुए नहीं पाया कि वह घोषित रूप से ईमानदार है । किसी घोषित पराक्रमी, घोषित विद्वान, घोषित क्रांतिकारी को भी नहीं देखा । लेकिन यह साहित्य की दुनिया है, बड़ी उछल-कूद है यहाँ तो । ज़रा हट के, ज़रा बच के, ये है हिन्दी मेरी जान !" - नील कमल</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>उक्त उदाहरणों को देखते हुए ऎसे मामलों में मुझे लगता है..हमें वैचारिक सोच की दृष्टि से और अधिक परिपक्व और अधिक सहनशील हो संयम रखने की जरूरत है। मुझे विश्व पुस्तक मेले के दौरान लिखी मित्र अशोक कुमार पाण्डे की बहुत प्रभावित किया "मेले में कई ऐसे लोग मिले जिनसे फेसबुक के चलते लगभग दुश्मनी वाले हालात थे. कुछ खुद आगे बढ़के मिले. कुछ से हम आगे बढ़के मिले." व विमलेश त्रिपाठी की हरे प्रकाश उपाध्याय को ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार घोषणा पर लिखी "मतभेद होना और मनभेद होना अलग है और साहित्य वह बिरादरी है जहां अक्सर विवाद होते है पर महानता वही है जब हम पञ्च परमेश्वर की तर्ज पर सब भूलकर सही काम करें और सही निर्णय लें. " लिखी पोस्ट का यह अंश बहुत व्यवहारिक लगता है। ऎसा ही होना चाहिए।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इसी फ़ेसबुक पर कुछ मित्र लिखने - पढने की दुनिया के बहुत चेहरों के पीछे की साहित्यिक धांधलियों, नैतिकताओं की अनैतिक क्षुद्र मानसिक विकृतियां और विद्रूपताएं उजागर करते रहते हैं जिन्हें जान हम सिर्फ़ अफ़सोस कर सकते हैं.. इस बारे में युवा कवि पत्रकार- आलोचक - गद्यकार अविनाश मिश्र को क्षुब्ध हो कहना पड़ता है <b>”"आज सार्वजानिक रूप से कहना चाहता हूं। कभी-कभी लगता है कि अज्ञान भी आकर्षित करता है। वह भयमुक्त और सुरक्षित भी बनाता है। संभवत: इसलिए ही मेरे वरिष्ठ और प्रिय कवि अपने साक्षात्कारों, वक्तव्यों और सामान्य वार्तालापों में कुछ मूर्ख कवियों को एक भाषा की युवा कविता का प्रतिनिधि स्वर बताते आए हैं। वे उन्हें पुरस्कृत भी करते आए हैं।" </b> <b>"पति-पत्नी अगर लेखक-लेखिका भी हों और एक ही जैसी साहित्य-विधाओं में एक ही जैसा लिखते भी हों, तब दाम्पत्य सहज हो जाता है और सृजन उत्पादन। पत्रिकाएं और प्रकाशन मांगते ही जाते हैं रचनाएं और पांडुलिपियां, और दाम्पत्य देता ही जाता है, आखिर वह सहज जो है। लेकिन मुझे सहजता पसंद नहीं। मैं न सहज होना चाहता हूं, न करना। ऐसी परिस्थितियों से मैं खुद को विनम्रतापूर्वक अलग करता हूं।" [ बदनाम डायरी ] ,</b> "<b>तुम्हारे समय में खराब कविता क्या थी यह बताने के लिए तुम्हें अपनी अच्छी कविताएं प्रकाशित करवानी पड़ीं। कविताएं-- वे जो सालहा-साल बराबर लिखीं, दुनिया की नजरों से बचाकर लिखीं। वे प्रकाशित हों, यह तुम्हारे अशुभ दिनों के शुभचिंतकों की सलाह थी। तुम अपनी आत्ममुग्धता और अहंकार में सलाहें नजरअंदाज करते आए। लेकिन 'समीक्षा' ने भी तुम्हारा साथ तुम्हारी प्रेमिका की तरह ही दिया, लिहाजा तुम्हारे समय में खराब कविता क्या थी यह बताने के लिए तुम्हें अपनी अच्छी कविताएं प्रकाशित करवानी पड़ीं।" [ नए बाणभट्ट की आत्मकथा ] </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>यही क्षुब्धता और तल्खी युवा कवि रवींद्र के दास के शब्दों में,"<b>कविता छपे बड़े दिन हो गए .. मेरी हैसियत हो आपके ब्लॉग या पत्रिकाओं के लायक तो मंगा लीजिये मुझसे।", "मुझे शर्म आ रही है कि चूके हुए वक़्त में किन चूके हुए कविता पाठकों के साथ रह रहा हूँ मैं जिन्हें इस बात से उत्तेजना तक न हुई कि प्रकाशक को पैसे देकर कविता किताब छपाना नियति है.. नीचे की पोस्ट में मुझे बधाईयाँ देने वाले लोग मुझे नहीं पढ़ें अब।" </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>"वे जो कहते हैं कि फेसबुक पर कविता लिखने का कोई मतलब नहीं है तो ...उनसे पूछिए कि कहाँ कविता लिखने का 'कोई मतलब' है .... हम कविता वहीं लिखेंगे ... लेकिन लिखेंगे ज़रूर" "हे पिता, ये कमबख़्त जानते हैं कि कवि नहीं है, फिर भी लिखते-छपते हैं। इन्हें कभी क्षमा नहीं करना। (यीशू के प्रति आभार)"</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>"प्रगति मैदान में मेला लगा. वहां बड़े सारे ... समझो कि पूरे देश के कविगण अपना अपना थैला उठाकर आए. हम भी गए रहे. उस दिन किसी योग से आदरणीय प्रभात पाण्डेय जी भी आये थे [वे मुझे मेरा चेहरा देखकर ही पहचान लेते हैं]. मैं उनके साथ अपने मित्र के हॉल नं. ५ के सामने खड़े थे कि एक कलकत्ते के कवि आए. स्थान सँकरा था. वे प्रभात जी से बात भी की. मैं कवि जी की ओर देखा [देखा मतलब कि एक-डेढ़ फुट की दूरी से देखा] ... कुछ देर और देखा कि भाई देखेंगे, और अभिज्ञान-दृष्टि से देखेंगे. पर नहीं देखा. शायद उनके अन्दर स्टार-तत्त्व आ तो गया था पर स्टार बनना सीखना अभी शेष था. हो सकता हो, सोच रहे होंगे कि मैं या मेरे जैसे लोग गुहार मनुहार करेंगे. " और कवि शायक आलोक "कुछ लोग हैं .. वे वरिष्ठ हैं .. साहित्य की लम्बी सेवा की है .. फेसबुक पर हैं .. मेरी फ्रेंड लिस्ट में हैं और एक्टिव भी हैं .. पर क्या कहने जो कभी एक शब्द मेरे लिए जाया किया हो कि बाबू अच्छा लिख रहे हो खूब लिखो .. कभी नहीं .. प्रोत्साहन या सुझाव का एक शब्द नहीं .. [ यह बात ज्यादा महसूस इसलिए हुई कि ज्यादातर वरिष्ठों ने बहुत स्नेह और सम्मान दिया है मुझे जबकि मेरी लेखकीय उपलब्धियां ज्यादा नहीं हैं ]"</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>सवाल है कि वे कौन से कारण हैं जिनके कारण मित्र केशव तिवारी को, <b>"कुछ लोग फेसबुक पर अलग दिखना और अलग कुछ करके दिखाते रहना चाहते हैं। सम्भवत: उनका जीवन भी ऐसा ही होगा। कभी ये अलगपन खिझाने लगता है, लगता है कुछ परग्रही बसे हुए हैं हमारे बीच, जिन्हें हमारे जीवन, समाज, राजनीति आदि में कोई दिलचस्पी नहीं। वे बस अपनी कहते जाते हैं एक अटूट स्वर में, ख़ुद को दिखाते जाते हैं- न किसी को सुनते हैं न देखते हैं। वे लोग पता नहीं किस उद्देश्य से यहां हैं पर वे हैं और कुछेक काफ़ी सफल भी हैं.... जैसी पोस्ट लिखनी पड़ती है।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>"लोग पूछते हैं कि फलां मामले पर आपका पक्ष क्या है । भाई, पक्ष जो भी है, पक्षधरता जो भी है यदि वह जीवन व्यवहार में और उसके बाद लेखन में कहीं नहीं दिख रही है तो उसे साबित करने के लिए मैं अपनी छाती चीर कर नहीं दिखा सकता । दो लाइन का स्टेटस फेसबुक पर लिख देने से जो पक्षधरता साबित हुआ करती है वह मेरे किसी काम की नहीं ।" - नील कमल</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मुझे लगता है.... फ़तवे- और उपेक्षा के शिकार बेबस हाशियों के पास ऎसे प्रलापों के अलावा क्या रह जाता है। इस में समानधर्मी प्रलापी- उपेक्षित जुड़ने लगते हैं और यह भी एक प्रति पक्ष के रूप में खड़ा दिखायी देता है। इस तरह समान धाराएं अचानक समानांतर और विरोधी धारा के रूप में बहती दिखायी देती है और समय समय पर अपनी कमीज़े सफ़ेद बताते हुए एक दूसरे की कमीज़े उतारने तक उतारु हो जाती है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>ऎसी दुरभिसंधियों और मतभेदों से अधिक मनभेदी त्रासदियों में मुझे कवि- आलोचक शिरीष कुमार की इस पोस्ट में बहुत उम्मीदें दिखायी देती है-</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span><b>"आने दीजिए, नयों को आने दीजिए.....साहित्य में उनका स्वागत कीजिए। जैसे नये साल साल का स्वागत करते हैं वैसे नये लेखक का स्वागत करिए..... नुक्स साल ख़त्म होने पर निकाल लीजिएगा। अभी से आने वालों के नाम चेतावनी के पैग़ाम अच्छे नहीं। हम ही हम नहीं होंगे धरा पर। और भी बाक़ी सब कुछ इतना है कि हम बाद में नज़र भी आ जाएं तो शुक्र मनाइएगा। सबकी अपनी चाल है, अपने हाल हैं - उन्हें बयां करने का अधिकार भी उनका हैं। कच्चा-पक्का कुछ रचने तो दीजिए। जो सोच रहा है मनुष्यता के बारे में, विचार के बारे में, अन्याय के बारे में और रच रहा है - हमारा है। कुछ बरस पहले हम भी ऐसे ही थे। उनकी अभी तरुणाई है और हम अपने-अपने हिसाब से पकने लगे हैं, कुछ समय बाद शायद पिलपिले हो जाएं जैसे हमारे आगे वाले कुछ हो गए। सावधान होने का समय नए आने वाले के लिए नहीं , हमारे लिए है। सचेत रहना ज़रूरी है- उन्हें नहीं, हमें।" </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>सहमति रखते हुए मित्र रविंद्र के दास के इन आत्मसम्मान भरे विचारों को जोड़ना चाहूंगा, <b>" जहाँ मुझे लोग नापसंद आएँगे ... मुझे वहां से उठके आ जाने में ही सुहूलियत जान पड़ती है. सांस रोक के सांसत में रहने से अकेला होना बेहतर लगता है. ’दो 'अन्य' लोगों के रिश्ते को करेक्ट करने की कोशिश करेंगे तो आप कोई न कोई गलती ज़रूर करेंगे. दूसरों को आज़ादी देनी चाहिए. आप अकेले सारी दुनिया का सही गलत नहीं जानते. किसने किसको क्या और किस तरह का नुकसान पहुंचाया, यह आपको नहीं पता, पर आपको किसी एक को गलत कहना ज़रूरी लगता है ... क्यों ? यह सिर्फ़ आपकी अहम्मन्यता है, पर आप मानेंगे थोड़े ! पूरी निष्ठा और ईमानदारी से अपनी बातें रखो.... ऐसे में यदि किसी संबंध की दीवार दरकती है तो दरकने दो. मान लो कि वे संबंध विश्वसनीय नहीं थे’ </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span><b>’कौन है जो फेसबुकिया लेखन से पीड़ित और त्रस्त है ? मशहूर और अर्थ-गर्भित शब्द है यह फेसबुकिया लेखक. मान लीजिए कि दोयम दर्ज़े के होते हैं. उनसे भूल हुई जो वे लिखते रहते हैं. लिखते क्या, बकवास करते हैं. और आप का तेल क्यों निकल रहा है ? आप क्यों इसी फेसबुक पर आकर उसकी निंदा करना चाहते हैं? वे लोग जो फेसबुक पर भी नहीं चल पाते हैं .... वे सियार की मुँह ऊपर कर " फेसबुकिया .... फेसबुकिया.... " भूकने लगते हैं. ’ रवीन्द्र के दास</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>"सात रंग होते हैं रौशनी में । आप जानते ही हैं कि इन्हीं सात रंगों से इंद्रधनुष बनता है । बैगनी, नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी और लाल ये सात रंग जब आपस में घुल-मिल जाते हैं तो सफ़ेद रंग बनता है । सफ़ेद की खासियत यह नहीं है कि उसमें कोई रंग नहीं होता । वह तो अपने भीतर सातों रंग छुपाए रहता है । जो कुछ सफ़ेद है उससे परावर्तित होकर ये सातों रंग लौट जाते हैं। जो सफ़ेद है वह अपने पास कोई रंग नहीं रखता । जो सारे रंगों को अपने पास रख लेता है वह काला दिखता है ।</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रंग मनुष्य को भरमाते हैं । पिछले कुछ दशकों में कुछ खास रंगों का मतलब कुछ खास राजनैतिक दलों और विचारों के साथ भी जुड़ता चला गया है । लाल इनका है तो हरा उनका, नीला किसी तीसरे का, केसरिया किसी चौथे का । जब रंगों के अर्थ बदल जाते हैं तो जीवन में उनके संदर्भ भी आखिर क्यों न बदलें । लोग अपने-अपने रंगों के झंडे लिए दौड़ रहे हैं । इधर मनुष्य के जीवन से ही रंग गायब होने लगे हैं । अब तो खास रंगों को खास नामों के साथ भी पहचाना जाने लगा है । चरित्र का काला आदमी रंगीन झंडों के साथ अच्छा नहीं लगता । एक चीनी लोककथा में एक नन्हा सा बच्चा राजा को कहता है कि राजा तुम नंगे हो जबकि उस दौर के युवा ही नहीं बड़े बुजुर्ग भी राजा के पीछे उसका जयगान करते जुलूस में चल रहे थे । पता नहीं उस कहानी में उस बच्चे का क्या हुआ । उस बच्चे के साहस की ज़रूरत आज सबसे बढ़ कर है ।" - नील कमल </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">कैसा समय है कि हर तरफ काला ही काला छाया हुआ है । कमाल यह कि हर वह जो काला है ख़ुद को रंगीन साबित करने के लिए मचल रहा है । रंगों का यह तमाशा तब तक चलता रहेगा जब तक हम और आप काले को काला और सफ़ेद को सफ़ेद कहने का साहस नहीं जुटायेंगे । काले को देखकर वह भी हँस रहा है जो ख़ुद भी काला है । काला काले की पीठ ठोंक रहा है । इस काले दौर में आज कुछ खूबसूरत रंगों की ज़रूरत सबसे ज़्यादा है । यह आईना दिखाने के साथ-साथ आईना देखने का भी मुनासिब वक़्त है । आईने की तरफ पीठ न करें, दोस्त !</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अंत में अपनी कहूं तो मुझे सोशल मीडिया के रूप में फ़ेसबुक अपनी अभिव्यक्ति के वरदान लगता है, जहां किसी का एकाधिकार नहीं, ठेकेदारी न होकर एक सम्पूर्ण स्वतंत्र लोकतांत्रिक प्रणाली है, फ़ेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइटों ने कुछ अपवादों (मनीषा पाण्डे, कट्टर पंथियों व उन जैसे अपने पूर्वाग्रहों से पीड़ितों को छोड़) सभी को, सभी से संवाद का एक बहुत बड़ा मंच दिया है जिसकी वजह सामाजिक, सांस्कृतिक, कला क्षेत्र में काम करनेवाली नामी-गिरामी हस्तियों से लेकर गुमनाम नामों तक, के बीच संवाद कायम करते हुए, बीच की खाई तो पाटी ही है, साथ ही बहुतेरे उजले-काले अध्यायों को भी सामने रखा है और जिन पर गंभीर चर्चाएं, समीक्षाएं हुयी है। भले ही लोग फ़ेसबुक को आभासी दुनिया का आत्म- प्रलाप कह कर मुंह बिचकाते हों और इस पर होने वाली बहसों, विवादों और उपलब्धियों को बहुत सतही और हलके में लेते हो लेकिन यह भी सच है कि इसी फ़ेसबुक और इस जैसे सोशल मीडिया माध्यमों से संवादों- साक्षात्कारों और मुलाकातों के नए अवसर मिले हैं, इस बारे में फ़ेसबुक पर ही मौजुद अग्रज शिक्षाविद- आलोचक, कवि महेश पुनेठा के हाल की पोस्ट को यहां उद्द्त करना समीचीन होगा जो कहते हैं,’फेसबुक भले ही आभासी दुनिया कही जाती हो पर यहाँ वास्तविक दुनिया के अनेक चेहरे बे-नकाब होते हैं .ऐसे अनेक चहरे हैं यदि फेसबुक नहीं होता तो उनसे अनजान ही रहते.... </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"><span style="font-size: large;"> </span></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>समस्या सिर्फ़ यही है कि कुछ लोगों ने इसे आमोद- प्रमोद का जरिया बना लिया है, अपने खाने-पीने- हंगने तक का सार्वजनिक प्रदर्शन करने लगे हैं और सामान्य की कोई बात नहीं, उन से अपना क्या लेना-देना लेकिन इस सद्कर्म- दौड़ में बड़े- बड़े बुध्दिजीवी- महापुरुषों को भी शामिल देख बड़ी कोफ़्त होती है। आप अपनी प्रतिभा, सार्वजनिक जीवन में हासिल उपलब्धियां साझा करें तो बात समझ आती है लेकिन अपने खाने-पीने- हंगने तक के सार्वजनिक प्रदर्शन से किसी को क्या मतलब, समझने और विचार- चिंतन की आवश्यकता है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अब समझ-मान भी लीजिए जनाब! सिर्फ़ कुछ लोगों के कह- नकार देने से संवाद का यह अनूठा जीवंत माध्यम विश्वमंच आभासी फ़ालतू नहीं हो जाएगा...सच तो यह है कि इसी एक माध्यम से न जाने कितने चेहरों से एक के बाद एक मुखौटे उतरे हैं छिपी हुयी क्षुद्र मानसिकताओं का भंडाफ़ोड़ हुआ है, इसके साथ ही वैचारिक संवाद- शास्त्रार्थ शुरु हुआ है वह अतुलनीय है..रही बात आनेवाले समय की तो.. किस को मालूम है.. क्या होगा..इस क्रांति के बारे में भी इसके आने से पूर्व किसे मालूम था.... </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: right;">
<span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
नवनीत पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/14332214678554614545noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-4402945881693099939.post-54434321675442750222014-01-22T01:27:00.000-08:002014-01-22T01:27:12.804-08:00पासे उल्टे भी पड़ जाते है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHFLHGbWyLxuZV9hj7vr-3A1rYan41l1WYT2hAD1GhTjiRFG9a979QojjUOCwORY0XkSORP6AAwS8Q5GE9GwAQuASDdODmDxixRT-d4mz62IA2WN_9yhxulWM-Ke6SK4Hh2kgwTTg_adg/s1600/dharna.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHFLHGbWyLxuZV9hj7vr-3A1rYan41l1WYT2hAD1GhTjiRFG9a979QojjUOCwORY0XkSORP6AAwS8Q5GE9GwAQuASDdODmDxixRT-d4mz62IA2WN_9yhxulWM-Ke6SK4Hh2kgwTTg_adg/s1600/dharna.jpg" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">फोटो साभार नेट </td></tr>
</tbody></table>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "Kruti Dev 010"; font-size: 14.0pt; line-height: 115%;"> </span></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span style="font-family: "Kruti Dev 010"; font-size: 14.0pt; line-height: 115%;">ikls mYVs
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<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span style="font-family: "Kruti Dev 010"; font-size: 14.0pt; line-height: 115%;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
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<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
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<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlSxciJZpG7ejrLG-Fy_4IkITOAT9fUZ8lhLtuMdWEkMHqT3GSS6k40nJU9M1SOpo93uLmkMmERQh3bqstaXIeh2Ntq3jRmu8Qw_6s7Ss2Dqba3t709fBhJ2cv6lQ3FmkBqTwyOIKxrXo/s1600/kejri.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlSxciJZpG7ejrLG-Fy_4IkITOAT9fUZ8lhLtuMdWEkMHqT3GSS6k40nJU9M1SOpo93uLmkMmERQh3bqstaXIeh2Ntq3jRmu8Qw_6s7Ss2Dqba3t709fBhJ2cv6lQ3FmkBqTwyOIKxrXo/s1600/kejri.jpg" height="197" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">फोटो साभार नेट </td></tr>
</tbody></table>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
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<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
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<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhUuTKDIsCW4CdMwY2cJXNQuB0Kt2_fNt57IfjLxrUTOgx9d5u6c8wrLsw-Hv-Axef9t7OGYOA8Dqm1aqB1IAVIqdXROv8bQ1ILz2_KgdgRZWQksXmN_5Xq9zlMSxNXJKIqY29oLymRbtI/s1600/kejriwal.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhUuTKDIsCW4CdMwY2cJXNQuB0Kt2_fNt57IfjLxrUTOgx9d5u6c8wrLsw-Hv-Axef9t7OGYOA8Dqm1aqB1IAVIqdXROv8bQ1ILz2_KgdgRZWQksXmN_5Xq9zlMSxNXJKIqY29oLymRbtI/s1600/kejriwal.JPG" height="231" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">फोटो साभार नेट </td></tr>
</tbody></table>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify; text-indent: .5in;">
<span style="font-family: "Kruti Dev 010"; font-size: 14.0pt; line-height: 115%;">,d
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<br />
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify; text-indent: .5in;">
<span style="font-family: "Kruti Dev 010"; font-size: 14.0pt; line-height: 115%;">jktuSfrd&
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<div class="MsoNormal" style="text-align: left; text-indent: 0.5in;">
<span style="font-size: 19px; line-height: 21.466665267944336px; text-indent: 0.5in;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: right; text-indent: 0.5in;">
<span style="font-size: 19px; line-height: 21.466665267944336px; text-indent: 0.5in;">नवनीत पाण्डे</span></div>
</div>
नवनीत पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/14332214678554614545noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4402945881693099939.post-40550420349370749032013-10-22T07:27:00.000-07:002013-10-22T07:29:22.166-07:00करवा का व्रत - स्व. यशपाल<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<table id="contenttbl" style="background-color: #dee7de; color: black; font-family: Mangal, CDAC-GISTYogesh, 'Arial Unicode MS', Mangal, Tahoma, Verdana, Arial, Helvetica, 'Bitstream Vera Sans', sans-serif; font-size: 13px; font-weight: bold; width: 100%px;"><tbody>
<tr><td valign="top"><div align="center" style="font-family: Mangal, 'Arial Unicode MS', Utsaah, CDAC-GISTYogesh, Tahoma, Verdana, Arial, Helvetica, 'Bitstream Vera Sans', sans-serif; font-size: 14px; font-weight: normal;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjjalXd_7rpaOrZsTi4gSqvcW7tFUSsmgh62OuIVGO8nPsCUmP21RC714YCfCCw7_zYsxOd2n0aJq23DAA_SPsp69FuUWt-zDyMhLjecsPYCfzUeea7ZILwKUdort5-aujGt04zZ92hUs8/s1600/yashpal.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjjalXd_7rpaOrZsTi4gSqvcW7tFUSsmgh62OuIVGO8nPsCUmP21RC714YCfCCw7_zYsxOd2n0aJq23DAA_SPsp69FuUWt-zDyMhLjecsPYCfzUeea7ZILwKUdort5-aujGt04zZ92hUs8/s1600/yashpal.jpg" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal, CDAC-GISTYogesh; font-size: large;">मित्रो! करवा चौथ का व्रत आज स्त्री विमर्श व बहस का बहुत बड़ा मुद्दा ब</span><span style="font-family: Mangal, CDAC-GISTYogesh; font-size: large;">ना हुआ है, आज बीच - बहस में प्रस्तुत है, प्रख्यात प्रगतिशील कथाकार स्व.यशपाल की इसी मुद्दे पर लिखी चर्चित सर्वकालिक सम सामयिक कहानी</span></div>
</td></tr>
</tbody></table>
<br />
<div>
<h2 style="text-align: left;">
<span style="background-color: white; font-family: Mangal;"><span style="font-size: x-large;">करवा का व्रत - स्व. यशपाल</span></span></h2>
<div style="text-align: justify;">
<span style="background-color: white; font-family: Mangal; font-size: x-small;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="background-color: white; font-family: Mangal;"><span style="font-size: large;">कन्हैयालाल अपने दफ्तर के हमजोलियों और मित्रों से दो तीन बरस बड़ा ही था, परन्तु ब्याह उसका उन लोगों के बाद हुआ। उसके बहुत अनुरोध करने पर भी साहब ने उसे ब्याह के लिए सप्ताह-भर से अधिक छुट्टी न दी थी। लौटा तो उसके अंतरंग मित्रों ने भी उससे वही प्रश्न पूछे जो प्रायः ऐसे अवसर पर दूसरों से पूछे जाते हैं और फिर वही परामर्श उसे दिये गये जो अनुभवी लोग नवविवाहितों को दिया करते हैं।</span></span></div>
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: white;"></span></span><br />
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">हेमराज को कन्हैयालाल समझदार मानता था। हेमराज ने समझाया-बहू को प्यार तो करना ही चाहिए, पर प्यार से उसे बिगाड़ देना या सिर चढ़ा लेना भी ठीक नहीं। औरत सरकश हो जाती है, तो आदमी को उम्रभर जोरू का गुलाम ही बना रहना पड़ता है। उसकी ज़रूरतें पूरी करो, पर रखो अपने काबू में। मार-पीट बुरी बात है, पर यह भी नहीं कि औरत को मर्द का डर ही न रहे। डर उसे ज़रूर रहना चाहिए... मारे नहीं तो कम-से-कम गुर्रा तो ज़रूर दे। तीन बात उसकी मानो तो एक में ना भी कर दो। यह न समझ ले कि जो चाहे कर या करा सकती है। उसे तुम्हारी खुशी-नाराजगी की परवाह रहे। हमारे साहब जैसा हाल न हो जाये। ...मैं तो देखकर हैरान हो गया। एम्पोरियम से कुछ चीज़ें लेने के लिये जा रहे थे तो घरवाली को पुकारकर पैसे लिये। बीवी ने कह दिया- ''कालीन इस महीने रहने दो। अगले महीने सही'', तो भीगी बिल्ली की तरह बोले, ''अच्छा!'' मर्द को रुपया-पैसा तो अपने पास में रखना चाहिए। मालिक तो मर्द है।</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">कन्हैया के विवाह के समय नक्षत्रों का योग ऐसा था कि ससुराल वाले लड़की की विदाई कराने के लिए किसी तरह तैयार नहीं हुए। अधिक छुट्टी नहीं थी इसलिए गौने की बात ' फिर' पर ही टल गई थी। एक तरह से अच्छा ही हुआ। हेमराज ने कन्हैया को लिखा-पढ़ा दिया कि पहले तुम ऐसा मत करना कि वह समझे कि तुम उसके बिना रह नहीं सकते, या बहुत खुशामद करने लगो।...अपनी मर्जी रखना, समझे। औरत और बिल्ली की जात एक। पहले दिन के व्यवहार का असर उस पर सदा रहता है। तभी तो कहते हैं कि ' गुर्बारा वररोजे अव्वल कुश्तन'- बिल्ली के आते ही पहले दिन हाथ लगा दे तो फिर रास्ता नहीं पकड़ती। ...तुम कहते हो, पढ़ी-लिखी है, तो तुम्हें और भी चौकस रहना चाहिए। पढ़ी-लिखी यों भी मिजाज दिखाती है।</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">निस्वार्थ-भाव से हेमराज की दी हुई सीख कन्हैया ने पल्ले बाँध ली थी। सोचा- मुझे बाजार-होटल में खाना पड़े या खुद चौका-बर्तन करना पड़े, तो शादी का लाभ क्या? इसलिए वह लाजो को दिल्ली ले आया था। दिल्ली में सबसे बड़ी दिक्कत मकान की होती है। रेलवे में काम करने वाले, कन्हैया के ज़िले के बाबू ने उसे अपने क्वार्टर का एक कमरा और रसोई की जगह सस्ते किराए पर दे दी थी। सो सवा साल से मजे में चल रहा था।</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">लाजवंती अलीगढ़ में आठवीं जमात तक पढ़ी थी। बहुत-सी चीजों के शौक थे। कई ऐसी चीजों के भी जिन्हें दूसरे घरों की लड़कियों को या नई ब्याही बहुओं को करते देख मन मारकर रह जाना पड़ता था। उसके पिता और बड़े भाई पुराने ख्याल के थे। सोचती थी, ब्याह के बाद सही। उन चीजों के लिए कन्हैया से कहती। लाजो के कहने का ढंग कुछ ऐसा था कि कन्हैया का दिल इनकार करने को न करता, पर इस ख्याल से कि वह बहुत सरकश न हो जाए, दो बात मानकर तीसरी पर इनकार भी कर देता। लाजो मुँह फुला लेती। लाजो मुँह फुलाती तो सोचती कि मनायेंगे तो मान जाऊँगी, आखिर तो मनायेंगे ही। पर कन्हैया मनाने की अपेक्षा डाँट ही देता। एक-आध बार उसने थप्पड़ भी चला दिया। मनौती की प्रतीक्षा में जब थप्पड़ पड़ जाता तो दिल कटकर रह जाता और लाजो अकेले में फूट-फूटकर रोती। फिर उसने सोच लिया- ' चलो, किस्मत में यही है तो क्या हो सकता है?' वह हार मानकर खुद ही बोल पड़ती।</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">कन्हैया का हाथ पहली दो बार तो क्रोध की बेबसी में ही चला था, जब चल गया तो उसे अपने अधिकार और शक्ति का अनुभव होने लगा। अपनी शक्ति अनुभव करने के नशे से बड़ा नशा दूसरा कौन होगा ? इस नशे में राजा देश-पर-देश समेटते जाते थे, जमींदार गाँव-पर-गाँव और सेठ मिल और बैंक खरीदते चले जाते हैं। इस नशे की सीमा नहीं। यह चस्का पड़ा तो कन्हैया के हाथ उतना क्रोध आने की प्रतीक्षा किए बिना भी चल जाते।</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">मार से लाजो को शारीरिक पीड़ा तो होती ही थी, पर उससे अधिक होती थी अपमान की पीड़ा। ऐसा होने पर वह कई दिनों के लिए उदास हो जाती। घर का सब काम करती। बुलाने पर उत्तर भी दे देती। इच्छा न होने पर भी कन्हैया की इच्छा का विरोध न करती, पर मन-ही-मन सोचती रहती, इससे तो अच्छा है मर जाऊँ। और फिर समय पीड़ा को कम कर देता। जीवन था तो हँसने और खुश होने की इच्छा भी फूट ही पड़ती और लाजो हँसने लगती। सोच यह लिया था, ' मेरा पति है, जैसा भी है मेरे लिए तो यही सब कुछ है। जैसे यह चाहता है, वैसे ही मैं चलूँ।' लाजो के सब तरह अधीन हो जाने पर भी कन्हैया की तेजी बढ़ती ही जा रही थी। वह जितनी अधिक बेपरवाही और स्वच्छंदता लाजो के प्रति दिखा सकता, अपने मन में उसे उतना ही अधिक अपनी समझने और प्यार का संतोष पाता।</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">क्वार के अन्त में पड़ोस की स्त्रियाँ करवा चौथ के व्रत की बात करने लगीं। एक-दूसरे को बता रही थीं कि उनके मायके से करवे में क्या आया। पहले बरस लाजो का भाई आकर करवा दे गया था। इस बरस भी वह प्रतीक्षा में थी। जिनके मायके शहर से दूर थे, उनके यहाँ मायके से रुपए आ गए थे। कन्हैया अपनी चिट्ठी-पत्री दफ्तर के पते से ही मँगाता था। दफ्तर से आकर उसने बताया, ' तुम्हारे भाई ने करवे के दो रुपए भेजे हैं।'</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">करवे के रुपए आ जाने से ही लाजो को संतोष हो गया। सोचा, भैया इतनी दूर कैसे आते? कन्हैया दफ्तर जा रहा था तो उसने अभिमान से गर्दन कन्धे पर टेढ़ी कर और लाड़ के स्वर में याद दिलाया- ' हमारे लिए सरघी में क्या-क्या लाओगे...?'</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">और लाजो ने ऐसे अवसर पर लाई जाने वाली चीज़ें याद दिला दीं। लाजो पड़ोस में कह आई कि उसने भी सरघी का सामान मँगाया है। करवा चौथ का व्रत भला कौन हिन्दू स्त्री नहीं करती? जनम-जनम यही पति मिले, इसलिए दूसरे व्रतों की परवाह न करने वाली पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ भी इस व्रत की उपेक्षा नहीं कर सकतीं।</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">अवसर की बात, उस दिन कन्हैया लंच की छुट्टी में साथियों के साथ कुछ ऐसे काबू में आ गया कि सवा तीन रुपए खर्च हो गए। वह लाजो का बताया सरगी का सामान घर नहीं ला सका। कन्हैया खाली हाथ घर लौटा तो लाजो का मन बुझ गया। उसने गम खाना सीखकर रूठना छोड़ दिया था, परन्तु उस साँझ मुँह लटक ही गया। आँसू पोंछ लिए और बिना बोले चौके-बर्तन के काम में लग गयी। रात के भोजन के समय कन्हैया ने देखा कि लाजो मुँह सुजाए है, बोल नहीं रही है, तो अपनी भूल कबूल कर उसे मनाने या कोई और प्रबंध करने का आश्वासन देने के बजाय उसने उसे डाँट दिया।</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">लाजो का मन और भी बिंध गया। कुछ ऐसा खयाल आने लगा-इन्ही के लिए तो व्रत कर रही हूँ और यही ऐसी रुखाई दिखा रहे हैं। ... मैं व्रत कर रही हूँ कि अगले जनम में भी 'इन' से ही ब्याह हो और मैं सुहा ही नहीं रही हूँ...। अपनी उपेक्षा और निरादर से भी रोना आ गया। कुछ खाते न बना। ऐसे ही सो गयी।</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">तड़के पड़ोस में रोज की अपेक्षा जल्दी ही बर्तन भांडे खटकने की आवाज आने लगी। लाजो को याद आने लगा-शान्ति बता रही थी कि उसके बाबू सरगी के लिए फेनियाँ लाए हैं, तार वाले बाबू की घरवाली ने बताया था कि खोए की मिठाई लाए हैं। लाजो ने सोचा, उन मर्दों को खयाल है न कि हमारी बहू हमारे लिए व्रत कर रही है; इन्हें जरा भी खयाल नहीं।</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">लाजो का मन इतना खिन्न हो गया कि सरगी में उसने कुछ भी न खाया। न खाने पर भी पति के नाम का व्रत कैसे न रखती। सुबह-सुबह पड़ोस की स्त्रियों के साथ उसने भी करवे का व्रत करने वाली रानी और करवे का व्रत करने वाली राजा की प्रेयसी दासी की कथा सुनने और व्रत के दूसरे उपचार निबाहे। खाना बनाकर कन्हैयालाल को दफ्तर जाने के समय खिला दिया। कन्हैया ने दफ्तर जाते समय देखा कि लाजो मुँह सुजाए है। उसने फिर डांटा- ' मालूम होता है कि दो-चार खाए बिना तुम सीधी नहीं होगी।'</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">लाजो को और भी रुलाई आ गयी। कन्हैया दफ्तर चला गया तो वह अकेली बैठी कुछ देर रोती रही। क्या जुल्म है। इन्हीं के लिए व्रत कर रही हूँ और इन्हें गुस्सा ही आ रहा है। ...जनम-जनम ये ही मिलें इसीलिये मैं भूखी मर रही हूँ। ...बड़ा सुख मिल रहा है न!...अगले जनम में और बड़ा सुख देंगे!...ये ही जनम निबाहना मुश्किल हे रहा है। ...इस जनम में तो इस मुसीबत से मर जाना अच्छा लगता है, दूसरे जनम के लिए वही मुसीबत पक्की कर रही हूँ...।</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">लाजो पिछली रात भूखी थी, बल्कि पिछली दोपहर के पहले का ही खाया हुआ था। भूख के मारे कुड़मुड़ा रही थी और उस पर पति का निर्दयी व्यवहार। जनम-जनम, कितने जनम तक उसे ऐसा ही व्यवहार सहना पड़ेगा! सोचकर लाजो का मन डूबने लगा। सिर में दर्द होने लगा तो वह धोती के आँचल सिर बाँधकर खाट पर लेटने लगी तो झिझक गई-करवे के दिन बान पर नहीं लेटा या बैठा जाता। वह दीवार के साथ फ़र्श पर ही लेट रही।</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">लाजो को पड़ोसिनों की पुकार सुनाई दी। वे उसे बुलाने आई थीं। करवा-चौथ का व्रत होने के कारण सभी स्त्रियाँ उपवास करके भी प्रसन्न थीं। आज करवे के कारण नित्य की तरह दोपहर के समय सीने-पिरोने, काढ़ने-बुनने का काम किया नहीं जा सकता था; करवे के दिन सुई, सलाई, और चरख़ा छुआ नहीं जाता। काज से छुट्टी थी और विनोद के लिए ताश या जुए की बैठक जमाने का उपक्रम हो रहा था। वे लाजो को भी उसी के लिए बुलाने आयी थीं। सिर-दर्द और मन के दुःख के करण लाजो जा नहीं सकी। सिर-दर्द और बदन टूटने की बात कहकर वह टाल गयी और फिर सोचने लगी-ये सब तो सुबह सरगी खाए हुए हैं। जान तो मेरी ही निकल रही है।...फिर अपने दुःखी जीवन के कारण मर जाने का खयाल आया और कल्पना करने लगी कि करवा-चौथ के दिन उपवास किए-किए मर जाए, तो इस पुण्य से जरूर ही यही पति अगले जन्म में मिले...।</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">लाजो की कल्पना बावली हो उठी। वह सोचने लगी-मैं मर जाऊँ तो इनका क्या है, और ब्याह कर लेंगे। जो आएगी वह भी करवा चौथ का व्रत करेगी। अगले जनम में दोनों का इन्हीं से ब्याह होगा, हम सौतें बनेंगी। सौत का खयाल उसे और भी बुरा लगा। फिर अपने-आप समाधान हो गया-नहीं, पहले मुझसे ब्याह होगा, मैं मर जाऊँगी तो दूसरी से होगा। अपने उपवास के इतने भयंकर परिणाम की चिंता से मन अधीर हो उठा। भूख अलग व्याकुल किए थी। उसने सोचा-क्यों मैं अपना अगला जनम भी बरबाद करूँ? भूख के कारण शरीर निढाल होने पर भी खाने को मन नहीं हो रहा था, परन्तु उपवास के परिणाम की कल्पना से मन मन क्रोध से जल उठा; वह उठ खड़ी हुई।</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">कन्हैयालाल के लिए उसने सुबह जो खाना बनाया था उसमें से बची दो रोटियाँ कटोरदान में पड़ी थीं। लाजो उठी और उपवास के फल से बचने के लिए उसने मन को वश में कर एक रोटी रूखी ही खा ली और एक गिलास पानी पीकर फिर लेट गई। मन बहुत खिन्न था। कभी सोचती-ठीक ही तो किया, अपना अगला जनम क्यों बरबाद करूँ? ऐसे पड़े-पड़े झपकी आ गई।</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">कमरे के किवाड़ पर धम-धम सुनकर लाजो ने देखा, रोशनदान से प्रकाश की जगह अंधकार भीतर आ रहा था। समझ गई, दफ्तर से लौटे हैं। उसने किवाड़ खोले और चुपचाप एक ओर हट गई।<span lang="en-us"></span>कन्हैयालाल ने क्रोध से उसकी तरफ देखा-' अभी तक पारा नहीं उतरा! मालूम होता है झाड़े बिना नहीं उतरेगा !'</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">लाजो के दुखते हुए दिल पर और चोट पड़ी और पीड़ा क्रोध में बदल गई। कुछ उत्तर न दे वह घूमकर फिर दीवार के सहारे फ़र्श पर बैठ गई।</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">कन्हैयालाल का गुस्सा भी उबल पड़ा- ' यह अकड़ है! ...आज तुझे ठीक कर ही दूँ।' उसने कहा और लाजो को बाँह से पकड़, खींचकर गिराते हुए दो थप्पड़ पूरे हाथ के जोर से ताबड़तोड़ जड़ दिए और हाँफते हुए लात उठाकर कहा, ' और मिजाज दिखा?... खड़ी हो सीधी।'</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">लाजो का क्रोध भी सीमा पार कर चुका था। खींची जाने पर भी फ़र्श से उठी नहीं। और मार खाने के लिए तैयार हो उसने चिल्लाकर कहा,' मार ले, मार ले! जान से मार डाल! पीछा छूटे! आज ही तो मारेगा! मैंने कौन व्रत रखा है तेरे लिए जो जनम-जनम मार खाऊँगी। मार, मार डाल...!'</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">कन्हैयालाल का लात मारने के लिए उठा पाँव अधर में ही रुक गया। लाजो का हाथ उसके हाथ से छूट गया। वह स्तब्ध रह गया। मुँह में आई गाली भी मुँह में ही रह गई। ऐसे जान पड़ा कि अँधेरे में कुत्ते के धोखे जिस जानवर को मार बैठा था उसकी गुर्राहट से जाना कि वह शेर था; या लाजो को डाँट और मार सकने का अधिकार एक भ्रम ही था। कुछ क्षण वह हाँफता हुआ खड़ा सोचता रहा और फिर खाट पर बैठकर चिन्ता में डूब गया। लाजो फ़र्श पर पड़ी रो रही थी। उस ओर देखने का साहस कन्हैयालाल को न हो रहा था। वह उठा और बाहर चला गया।</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">लाजो फ़र्श पर पड़ी फूट-फूटकर रोती रही। जब घंटे-भर रो चुकी तो उठी। चूल्हा जलाकर कम-से-कम कन्हैया के लिए खाना तो बनाना ही था। बड़े बेमन उसने खाना बनाया। बना चुकी तब भी कन्हैयालाल लौटा नहीं था। लाजो ने खाना ढँक दिया और कमरे के किवाड़ उढ़काकर फिर फ़र्श पर लेट गई। यही सोच रही थी, क्या मुसीबत है जिन्दगी। यही झेलना था तो पैदा ही क्यों हुई थी?...मैंने क्या किया था जो मारने लगे।</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">किवाड़ों के खुलने का शब्द सुनाई दिया। वह उठने के लिए आँसुओं से भीगे चेहरे को आँचल से पोछने लगी। कन्हैयालाल ने आते ही एक नजर उसकी ओर डाली। उसे पुकारे बिना ही वह दीवार के साथ बिछी चटाई पर चुपचाप बैट गया। कन्हैयालाल का ऐसे चुप बैठ जाना नई बात थी, पर लाजो गुस्से में कुछ न बोल रसोई में चली गई। आसन डाल थाली-कटोरी रख खाना परोस दिया और लोटे में पानी लेकर हाथ धुलाने के लिए खड़ी थी। जब पाँच मिनट हो गए और कन्हैयालाल नहीं आया तो उसे पुकारना ही पड़ा, ' खाना परस दिया है।'</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">कन्हैयालाल आया तो हाथ नल से धोकर झाड़ते हुए भीतर आया। अबतक हाथ धुलाने के लिए लाजो ही उठकर पानी देती थी। कन्हैयालाल दो ही रोटी खाकर उठ गया। लाजो और देने लगी तो उसने कह दिया ' और नहीं चाहिए।' कन्हैयालाल खाकर उठा तो रोज की तरह हाथ धुलाने के लिए न कहकर नल की ओर चला गया। लाजो मन मारकर स्वयं खाने बैठी तो देखा कि कद्दू की तरकारी बिलकुल कड़वी हो रही थी। मन की अवस्था ठीक न होने से हल्दी-नमक दो बार पड़ गया था। बड़ी लज्जा अनुभव हुई, ' हाय, इन्होंने कुछ कहा भी नहीं। यह तो जरा कम-ज्यादा हो जाने पर डाँट देते थे।'</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">लाजो से दुःख में खाया नहीं गया। यों ही कुल्ला कर, हाथ धोकर इधर आई कि बिस्तर ठीक कर दे, चौका फिर समेट देगी। देखा तो कन्हैयालाल स्वयं ही बिस्तर झाड़कर बिछा रहा था। लाजो जिस दिन से इस घर में आई थी ऐसा कभी नहीं हुआ था। लाजो ने शरमाकर कहा, ' मैं आ गई, रहने दो। किए देती हूँ।' और पति के हाथ से दरी चादर पकड़ ली। लाजो बिस्तर ठीक करने लगी तो कन्हैयालाल दूसरी ओर से मदद करता रहा। फिर लाजो को संबोधित किया, ' तुमने कुछ खाया नहीं। कद्दू में नमक ज्यादा हो गया है। सुबह और पिछली रात भी तुमने कुछ नहीं खाया था। ठहरो, मैं तुम्हारे लिए दूध ले आता हूँ।'</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">लाजो के प्रति इतनी चिन्ता कन्हैयालाल ने कभी नहीं दिखाई थी। जरूरत भी नहीं समझी थी। लाजो को उसने 'चीज' समझा था। आज वह ऐसे बात कर रहा था जैसे लाजो भी इनसान हो; उसका भी खयाल किया जाना चाहिए। लाजो को शर्म तो आ ही रही थी पर अच्छा भी लग रहा था। उसी रात से कन्हैयालाल के व्यवहार में एक नरमी-सी आ गई। कड़े बोल की तो बात क्या, बल्कि एक झिझक-सी हर बात में; जैसे लाजो के किसी बात के बुरा मान जाने की या नाराज हो जाने की आशंका हो। कोई काम अधूरा देखता तो स्वयं करने लगता। लाजो को मलेरिया बुखार आ गया तो उसने उसे चौके के समीप नहीं जाने दिया। बर्तन भी खुद साफ कर लिए। कई दिन तो लाजो को बड़ी उलझन और शर्म महसूस हुई, पर फिर पति पर और अधिक प्यार आने लगा। जहाँ तक बन पड़ता घर का काम उसे नहीं करने देती, 'यह काम करते मर्द अच्छे नहीं लगते...।'</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">उन लोगों का जीवन कुछ दूसरी ही तरह का हो गया। लाजो खाने के लिए पुकारती तो कन्हैया जिद करता, ' तुम सब बना लो, फिर एक साथ बैठकर खाएँगे।' कन्हैया पहले कोई पत्रिका या पुस्तक लाता था तो अकेला मन-ही-मन पढ़ा करता था। अब लाजो को सुनाकर पढ़ता या खुद सुन लेता। यह भी पूछ लेता, ' तुम्हें नींद तो नहीं आ रही ? ' <span lang="en-us"> </span>साल बीतते मालूम न हुआ। फिर करवा चौथ का व्रत आ गया। जाने क्यों लाजो के भाई का मनीऑर्डर करवे के लिए न पहुँचा था। करवा चौथ के पहले दिन कन्हैयालाल दफ्तर जा रहा था। लाजो ने खिन्नता और लज्जा से कहा, ' भैया करवा भेजना शायद भूल गए।'</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">कन्हैयालाल ने सांत्वना के स्वर में कहा,' तो क्या हुआ? उन्होंने जरूर भेजा होगा। डाकख़ाने वालों का हाल आजकल बुरा है। शायद आज आ जाए या और दो दिन बाद आए। डाकख़ाने वाले आजकल मनीआर्डर के पन्द्रह-पन्द्रह दिन लगा देते हैं। तुम व्रत-उपवास के झगड़े में मत पड़ना। तबीयत खराब हो जाती है। यों कुछ मंगाना ही है तो बता दो, लेते आएँगे, पर व्रत-उपवास से होता क्या है ? ' सब ढकोसले हैं।'</span></div>
<div style="background-color: white; text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">'वाह, यह कैसे हो सकता है! हम तो जरूर रखेंगे व्रत। भैया ने करवा नहीं भेजा न सही। बात तो व्रत की है, करवे की थोड़े ही।' लाजो ने बेपरवाही से कहा। संध्या-समय कन्हैयालाल आया तो रूमाल में बँधी छोटी गाँठ लाजो को थमाकर बोला, ' लो, फेनी तो मैं ले आया हूँ, पर व्रत-व्रत के झगड़े में नहीं पड़ना।' लाजो ने मुसकुराकर रूमाल लेकर अलमारी में रख दिया। अगले दिन लाजो ने समय पर खाना तैयार कर कन्हैया को रसोई से पुकारा, ' आओ, खाना परस दिया है।' कन्हैया ने जाकर देखा, खाना एक ही आदमी के लिए परोसा था- ' और तुम?' उसने लाजो की ओर देखा।</span></div>
<div style="background-color: white;">
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<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span style="font-family: Mangal;">' वाह, मेरा तो व्रत है! सुबह सरगी भी खा ली। तुम अभी सो ही रहे थे।' लाजो ने मुस्काकर प्यार से बताया। ' यह बात...! तो हमारा भी व्रत रहा।' आसन से उठते हुए कन्हैयालाल ने कहा। लाजो ने पति का हाथ पकड़कर रोकते हुए समझाया, ' क्या पागल हो, कहीं मर्द भी करवा चौथ का व्रत रखते हैं!...तुमने सरगी कहाँ खाई?'</span><span style="font-family: Mangal;"> </span></span></div>
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;"></span><br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">'नहीं, नहीं, यह कैसे हो सकता है ।' कन्हैया नहीं माना,' तुम्हें अगले जनम में मेरी जरूरत है तो क्या मुझे तुम्हारी नहीं है? या तुम भी व्रत न रखो आज!' लाजो पति की ओर कातर आँखों से देखती हार मान गई। पति के उपासे दफ्तर जाने पर उसका हृदय गर्व से फूला नहीं समा रहा था।</span></div>
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">
</span>
<h2 style="text-align: right;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: large;">स्व. यशपाल</span></h2>
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</div>
नवनीत पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/14332214678554614545noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4402945881693099939.post-64487837427213374432013-09-28T22:10:00.001-07:002013-09-28T22:14:18.804-07:00थोड़ा- बहुत तो ईमानदार होना ही होगा। (पुरस्कार-विवाद) - नवनीत पाण्डे<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<b>थोड़ा- बहुत तो ईमानदार होना ही होगा। (पुरस्कार-विवाद) - नवनीत पाण्डे</b></div>
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<b>(सर्वप्रथम कृतज्ञता सूचना का अधिकार (आरटीआई) प्रस्ताव लानेवालों और उसे कानून बनवानेवालों का जिसकी वजह से अकादमियों से प्राप्त सूचनाओं से पुरस्कारों बाबत वहां हो रही कारगुजारियों के बारे में कही, सुनी जा रही कहानियों के रोचक सच जान हतप्रभ हुआ, यह लम्बा आलेख उसी से उपजे आक्रोश का एक सांकेतिक दस्तावेज भर है जबकि असल और भी कटु और सह्र्दय सच्चे लेखक को हताश करने वाले है इस विषय अगर कोई लिखना चाहे तो इतना मसाला हैं कि पूरी किताब तैयार की सकती है। यह तो तब है जब मेरे पास केवल जब 2006 से 2012 तक के सिर्फ़ राजस्थानी भाषा से सम्बन्धित आंकड़े हैं। )</b></div>
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<br /></div>
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मित्रो! पुरस्कारों और विवादों का अब तो गहरा नाता-सा हो गया है। विवाद न हो, वो पुरस्कार ही क्या? पिछले सालों से साहितियक पुरस्कारों के होते जा रहे नित नए खुलासे को देख मुझे राजनेताओं, मंत्रियों, ब्यूरोक्रेटस और सरकारी कर्मचारियों द्वारा किए गए घोटालों के समाचार याद आते हैं और लगने लगा है कि अब तक इन सब चीजों से निरापद मानी-जानी जानेवाली शब्दकारों की दुनिया में भी ये विषाणु बुरी तरह फैलने और अपनी दुर्गंध फैलाने लगे हैं जो कि अच्छे संकेत नहीं है, वैसे तो इस बारे में अपने-अपने ब्लाग पर प्रखर आलोचक- कवि गणेश पाण्डेय, अशोक कुमार पाण्डेय, दयानंद पाण्डेय ने बहुत बार अपनी चिंताओं से व्यतिथ हो लिखा है और लिख रहे हैं। उन्हीं चिंताओं व व्यथाओं को अपनी जानकारी और सीमाओं के अनुसार मैंने भी अपने इस आलेख में समेटने का प्रयास किया है।</div>
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सबसे पहले विचारणीय प्रश्न जो इस मामले में मुझे जो लगता है, वह यह कि क्यों हर पुरस्कार के पीछे हमें कोई न कोई महाभारत दिखायी देने लगा है और यह तक कहा जाने लगा है कि पुरस्कार बंद ही कर दिए जाने चाहिए या निर्णायक ये होंगे तो निर्णय भी ऐसे ही होंगे। कमाल की बात ये कि पुरस्कारों पर उठने वाले विवादों के बाद उनके निर्णायक रहे विद्वजनों के अपने निर्णय के औचित्य बाबत विचार अपवाद स्वरूप ही देखने को मिलते हैं। रही बात पुरस्कारों को बंद करने की तो मेरे विचार से यह समस्या का हल नहीं है, पुरस्कार में क्या खराबी है, पुरस्कार तो आपके अच्छे, उत्तम, श्रेष्ठ कार्य का परिणाम है जो आपके भविष्य के कार्यों को परिष्कृत करता है, आपको प्रेरणा देता है जिससे आपको लगे कि आप जो भी कुछ कर रहे हैं, वह इस समय, समाज के समाजिक, साहितियक और सांस्कृतिक क्षेत्र में उल्लेखनीय, सराहनीय और महत्त्वपूर्ण है जो केवल आपकी ही नहीं आपके समाज, देश की प्रतिष्ठा में भी अभिवृद्धि करता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
घर में एक बच्चा भी जब ऐसा कोई असंभव, अनपेक्षित अच्छा कार्य करता है तो हम उसकी पीठ ठोंकते हैं, शाबासी देते हैं। उस पीठ ठुकने, और शाबासी मिलने के बाद कभी उसके चेहरे को देखें, उसके चेहरे पर एक दीप्ति, आलौकिक आत्मसंतुष्टि भरी मोहक गर्वोन्मुक्त मुस्कान दिखायी देगी। कुछ वैसे ही जैसे अकादमिक, प्रतियोगी परीक्षाओं में आनेवाली मैरिट और चयन एक होनहार, प्रतिभावाले विधार्थी के भविष्य के कई आयाम खोल देती है। इसीलिए पुरस्कार जरूरी है, बेहद जरूरी है। खराबी पुरस्कारों और सम्मानों में नहीं उन प्रकि्रयाओं में हैं जिनके तहत पुरस्कार-सम्मान दिए-लिए जाते हैं और जिनकी वजह से नौबत ये आ जाए कि किसी को कहना पड़े या ऐसी धारणा बनें कि पुरस्कार बंद ही कर दिए जाने चाहिए।</div>
<div style="text-align: justify;">
इधर जिस तरह से प्रतिभा की बजाय इतर राजनैतिक, खेमेबाजी, वादों- विवादों, तिकड़मों आदि कारणों से चाहे वह साहित्य, कला के क्षेत्र में हों कि अन्य खेल आदि क्षेत्र में पुरस्कार दिए- लिए जाने लगे हैं, न केवल पुरस्कारों की गरिमा घटी है, वास्तविक प्रतिभाओं का मोहभंग व उन में पुरस्कारों के प्रति नैराश्य भाव पैदा हुआ है। साथ ही पुरस्कार देने-लेने वालों की मनसा, वाचा व कर्मणा पर भी प्रश्नचिन्ह लगे हैं जिन्हें अनदेखा करके टालना इस समस्या को और बढावा देना ही होगा। मेरे विचार से <b><span style="color: #4c1130;">हर जिम्मेदार बुद्धिजीवी को इस में पूरी सक्रियता से हस्तक्षेप करना चाहिए और इस में अपनी क्षमतानुसार जहां, जो कुछ सुझाव व उपाय सुझाए जा सके, सुझाने चाहिए। कहा भी गया है कि कर्इ बार गंदगी को साफ करने के लिए गंदगी में उतर खुद भी गंदा होना पड़ता है। </span></b>यहां कहीं पढ कर नोट किया किसी का यह नोट 'प्रत्येक विवाद की परिणति अवांछित शोर या अर्थहीन कानाफूसियों में बदल जाना नहीं है। विवाद उतने नकारात्मक भी नहीं होते, जैसाकि इन्हें समझ लिया जाता है और न ही विवादों का मकसद हमेशा सिर्फ हंगामा खड़ा करना होता, बलिक उनके जरिए सूरत बदलने की राहें तलाशने की सकरात्मक कोशिशें भी की गई हैं। लेकिन वाद-विवाद-संवाद की पूरी प्रक्रिया को समझे बगैर ऐसा कर पाना संभव नहीं है।’ बहुत ही प्रासंगिक लगता है।<br />
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं यहां अपनी बात केंद्रीय साहित्य अकादमी द्वारा दिए जानेवाले पुरस्कार विवादों को केंद्र में रख करना चाहूंगा। इसके लिए सबसे पहले हालांकि लेखन से जुड़े अधिकतर विद्वजन इससे अनभिज्ञ नहीं होंगे फिर भी यहां सरसरी दृष्टि से अकादमी की पुरस्कार चयन- प्रकि्रया पर दृष्टिपात करना उचित लग रहा है।</div>
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केंद्रीय साहित्य अकादमी के नियमों मुताबिक सबसे पहले (1) सर्व प्रथम मान्यता प्राप्त प्रदत्त भाषा की विचारणीय पुस्तकों की एक आधार सूची बनेंगी जिसका निर्माण उस भाषा के एक विशेषज्ञ अथवा अकादमी अध्यक्ष के विवेक पर दो विशेषज्ञों द्वारा कराया जाता है। (2) परामर्श मण्डल का हर सदस्य अधिक से अधिक पांच नामों का पैनल भेजेगा और अकादमी अध्यक्ष प्राप्त पैनलों में से विशेषज्ञ या विशेषज्ञों का चयन करेंगे। (परामर्श मण्डल के हर सदस्य एक- दूसरे के टच में रहते हैं अत: सांठ- गांठ और अपने हितों से बाहर कुछ करेंगे, संभावना कम ही हैं) (3) विशेषज्ञों द्वारा तैयार आधार सूची संबद्ध भाषा परामर्श मण्डल(संयोजक सहित) को दो पुस्तकों के अनुमोदन हेतु भेजी जाती हैं जिस में वह सूची से बाहर अपनी पसंद की दो पुस्तकों के नाम भी दे सकते हैं।</div>
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इसके बाद प्रारंभिक पैनल में दस निर्णायक जिनका चयन परामर्श मण्डल के सुझावों पर विचार कर होता है और परामर्श मण्डल के सदस्यों से प्राप्त संस्तुतियों को संकलित कर उन्हीं के द्वारा सुझाए निर्णायकों को भेजा जाता है। ( है न मजे की बात) निर्णायक प्राप्त संस्तुतियों में से दो पुस्तकें अनुमोदित करेगा। इस में भी वह अपने विवेक से सूची से बाहर की भी पुस्तकें भेज सकता है। (तय है कि ऐसा अनुमोदन रिजेक्ट होना है)</div>
<div style="text-align: justify;">
प्रारंभिक पैनल के निर्णायकों की संस्तुतियों पर एक त्रि-सदस्यीय जूरी विचार करेगी और जूरी के सदस्यों का चयन भी संबद्ध भाषा के परामर्श मण्डल संयोजक व सदस्यों की संस्तुतियों पर विचार कर होगा और प्रारंभिक पैनल के निर्णायकों द्वारा संस्तुत पुस्तकें खरीद अकादमी जूरी के सदस्यों और संयोजक को भेजेगी। संयोजक, जूरी और अकादमी के बीच संपर्क सूत्र का काम करेगा और वही सुनिश्चित करेगा कि जूरी की बैठक उचित और संतोषजनक हो, वही जूरी रिपोर्ट पर अपने हस्ताक्षर करेगा। जूरी सर्वसम्मति या बहुमत से पुरस्कार हेतु एक पुस्तक की अथवा अपने विवेक से यह भी अनुशंसा कर सकती है कि इस वर्ष एक भी कृति योग्य नहीं है।</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
ज्ञानपीठ या केंद्रीय साहित्य अकादमी अथवा अन्य, आज की तारीख कोई भी पुरस्कार निष्कलंक नहीं रहा। केंद्रीय साहित्य अकादमी के पुरस्कारों पर समय-समय पर उठे विवादों के कारण जानने की गरज से मैंने अकादमी के पुरस्कार नियम- चयन प्रक्रिया के आधार पर विवादों के कारणों को जानने-समझने का प्रयास किया। इस संदर्भ में अकादमी के विभिन्न भाषा परामर्श मण्डल के कुछ सदस्यों से व्यकितश: बात भी की, उन से मिली जानकारी के आधार पर कहूं तो साफ लगता है सारे नियम- प्रक्रिया और उनकी तथाकथित पारदर्शिता-ईमानदारी सिर्फ देखने- दिखाने, छलावे और लीपापोती वाले हैं, यहां भी हाल हमारे लोकसभा के सांसदों के स्वहित से जुड़े मामलों में ध्वनि-मत से एक राय हो मुंडी हिला प्रस्ताव पास करने जैसा ही है। हर कदम संयोजक और परामर्श सदस्यों की संस्तुति- अनुशंसा अनिवार्य है। ये राजी तो रब राजी। चूंकि हर निर्णय की पुष्टि सामान्य सभा से करानी होती है इसलिए हर भाषा परामर्श मण्डल की दूसरी भाषा मण्डल संयोजकों-सदस्यों से फुल टयूनिंग और सैटिंग की हुयी होती है...मतलब कि आप हमारे लिए-किए निर्णयों पर सहमति दे मुहर लगाएं। हम आपके लिए- किए पर...बिल्कुल अंधे बांटे सीरणी वाली कहावत अक्षरक्ष: प्रत्यक्ष सिद्ध होती दिखायी देती है। इस में कई बार दूसरी भाषा के लेखकों को भी विशेषज्ञ, निर्णायक बना उपकृत करने के मामले सामने आए हैं यथा राजस्थानी भाषा के पुरस्कार का निर्णायकों में उर्दू, हिन्दी भाषा के लेखकों के शामिल होने के उदाहरण तो जगजाहिर है। इस तरह ये आपसदारियां लगातार निभायी जाती रहती है। सरकारी विभागों में जैसे स्थानांतरित हो हर जानेवाला भ्रष्ट अफसर- आनेवाले अफसर-कर्मचारी को चार्ज देते समय सारे गुर सिखा जाता है कुछ वैसे ही खेल यहां भी धड़ल्ले से चलते हैं। जरूरत होती है वोटींग- बहुमत आदि की कागजी तकनीकी औपचारिकताएं पूरी करने की, जो हो ही जाती हैं और यह सिर्फ पुरस्कार तक ही सीमित नहीं है, अकादमी की अन्य सभी अकादमिक योजनाओं में भी ऐसा ही तमाशा होता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
संयोजक-परामर्श मंडल व उनके सदस्यों की अनुशंसा जिसे मिलीभगत या संयोजक के दिशा-निर्देश कहा जाना ज्यादा उचित होगा...द्वारा अपने-अपने क्षेत्र से अपनी-अपनी पसंद के निर्णायकों की सूची मांगी जाती है और वह सूची चार वर्ष के परामर्श मण्डल के पूरे कार्यकाल में एक पैनल का काम करती है, पुरस्कार प्रस्ताव हेतु बनी आधार सूची(ग्राउंड लिस्ट) में अंतिम दौर में पहुंची (मजे की बात यह आधार सूची (ग्राउंड लिस्ट) भी संयोजक परामर्श मण्डल, सदस्यों व अकादमी में मान्यता प्राप्त संस्थाओं की अनुशंसा पर बनायी जाती है और उन्हीं के अनुसार मनमर्जी किताबों की सूची में से किताबें अंदर-बाहर कर दी जाती है) किताबें उस निर्णायक पैनल के निर्णायकों को अकादमी द्वारा भेजा जाता है। चालाकी देखिए पुस्तकों का चयन और संस्तुति संयोजक, परामर्श मण्डल के सदस्यों और अकादमी में मान्यता प्राप्त संस्थाओं द्वारा तैयार सूची में से पुरस्कार हेतु पुस्तकों की आधार सूची (ग्राउंड लिस्ट) तैयार की जाती है। यानि अगर आपकी किताब संयोजक, परामर्श मण्डल, और संस्था की जानकारी में नहीं है तो आप की किताब उस आधार सूची (ग्राउंड लिस्ट) में ही नहीं होगी, अगर आधार सूची (ग्राउंड लिस्ट) में ही नहीं है तो पुरस्कृत होने योग्य के बावजूद, वह लिस्ट में नहीं होगी, लिस्ट में नही तो पुरस्कार में कहां से होगी। इस में भी कई बार जब भूले से गलत आकलन की वजह से कोर्इ विरोधी पक्ष या अपवादी लेखक निर्णायक या मण्डल में आ जाता है तो उसके विरोध की वजह से आधार सूची (ग्राउंड लिस्ट) से बाहर की किताब भी शामिल हो जाती है और बावजूद असहमति पुरस्कार भी पा जाती है लेकिन ऐसे चमत्कारी अवसर बहुत ही कम आते हैं, बहुदा तो वही होता है जो परामर्श मण्डल का संयोजक चाहता है।<br />
इसलिए केंद्रीय साहित्य साहित्य अकादमी के पुरस्कार के लिए उस भाषा के परामर्श मण्डल का संयोजक एक अहम कड़ी होता है, अपने सोचे निर्णय को क्रियान्वित कराने के लिए उसकी अन्य भाषा के संयोजकों से सैटिंग और मीटिंग चलती रहती है। यही कारण है कि अकादमी के विभिन्न परामर्श मण्डलों में आपको घूम-फिर वही चेहरे- नाम दिखायी देते हैं, संयोजक के पास एक और अभेद्य हथियार है कि परामर्श मण्डल के कार्यकाल की समापित पूर्व अंतिम बैठक में वही आनेवाले परामर्श मण्डल के संयोजक (प्रदेशों से आए नामों में से) अपने मनचाहे नाम का प्रस्ताव कर उसे संयोजक बना जाता है अर्थात उत्तराधिकार जैसा ही कुछ। अत: यह स्वाभाविक ही है आनेवाला संयोजक भी भावनात्मक रूप से उसका कर्जदार होगा और उसकी सलाहें भी लेगा और इतिहास बताता है और देखा भी गया है कि उन सलाहों पर अमल भी किया जाता है। चूंकि एक व्यकित दो बार ही संयोजक बन सकता है तो यह पद एक अप्रत्यक्ष सौदे के तहत भी आपसदारी से लिया- दिया जाता रहा है। </div>
<div style="text-align: justify;">
इन सब तामझामों और प्रक्रियाओं के बीच इतने लंबे समय तक अकादमी में रहने की वजह से संयोजकों और परामर्श मण्डल के सदस्यों की अकादमी के कार्यालय स्टाफ से सम्पर्क साधने और कई प्रक्रियाओं में अपनी दखल दे देना कौन मुश्किल बात है। कार्यालयों की कार्यविधियों- कार्यकलापों से कोई अनजान नहीं। यही वजह है कि कई बार औपचारिक निर्णय तो बाद में आते हैं लेकिन अनौपचारिक रूप से वे निर्णय पहले ही मालूम हो जाया करते हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
कई उस्ताद तो अपने वांछित लेखकों की किताबें अपने वांछित निर्णायकों तक पहुंचाने की भी घुसपैठ रखते हैं। इसके अलावा जब पैनल के निर्णायक के पास अनुशंसा के लिए कोई किताब आती है तो वह उत्साह में अपने परामर्श मण्डल के संयोजक या सदस्य से संपर्क कर सूचना दे देता है और उसे आगे के दिशा-निर्देश दे दिए जाते हैं उन्हें किसकी अनुशंसा और कैसे करनी है चूंकि अपने को निर्णायक बनाए जाने से वह मुदित होता है वह वही करता है जो कहा जाता है। आखिर अहसानमंद जो होता है। कई बार तो ऐसे भी मौके आए बताए जाते हैं कि अकादमी द्वारा बुलायी बैठक में ही आमने- सामने बैठक कर हाथों- हाथ तय कर लिया जाता है जैसा कि पिछले दिनों समाचारों में युवा पुरस्कार की बैठक का आंखों देखा हाल सुनने में आया ही था। सो, अकादमी की गोपनीयता, निर्णय पारदर्शिता वाला ध्येय, सोच को धत्ता बताते हुए वह सब कर लिया, दिया जाता है जिसके करने का मंतव्य होता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण केंद्रीय साहित्य अकादमी द्वारा दिए जानेवाले राजस्थानी के युवा पुरस्कार के चयन में साफ दिखायी दिया था, अब तक घोषित तीन युवा पुरस्कारों में से दो इक्कतीस जिलों वाले राजस्थान के एक ही शहर के दो युवाओं को दिया जाना कम से कम मुझे तो घोर आश्चर्य के साथ अकादमी की चयन प्रक्रिया में साफ-साफ सेंधमारी और अकादमी की चयन-प्रक्रिया पर सवालिया निशान लगती है।</div>
<div style="text-align: justify;">
एक बंदर-बांट चलती रही है और चल रही है जिसे एक जिम्मेदार शब्दकर्मी द्वारा अनदेखा कर पल्ला झाड़ लेना अनुचित तो है ही, अपराध भी क्योंकि जिस तरह राजस्थानी अकादमी किसी की बपौती नहीं, केंद्रीय अकादमी भी किसी की बपौती नहीं है( जो कि हकीकत में समझ लिया गया है) जहां जो जी चाहे जैसे करें। वह भी हम सब भारतीयों की है क्योंकि उसकी स्थापना का मूल भाव और उददेश्य ही नितांत गैर राजनैतिक और राजनैतिक दखल से मुक्त रखने की नीयत था, यही कारण है कि आज तक अकादमी के किसी भी कार्य-आयोजन में खुले रूप से राजनैतिक, सरकारी दखलंदाजी नहीं है जब कि कर्इ बार ऐसे प्रस्ताव लाने की कोशिशें की गई हैं और अभी भी जारी हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
इसी प्रकार राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी द्वारा घोषित पुरस्कारों पर भी पिछले दिनों स्थानीय पत्रकारिता दबाव व अश्लीलता का आरोप लगा कुछ मित्रों द्वारा आरटीआई लगा अंगुली उठायी गयी और मनीषा कुलश्रेष्ठ की तरह एक महिला रचनाकार को अपमानित किया गया। खबर है वह महिला लेखिका एक निर्णायक और अन्य पर अखबार में अपनी कृति के बारे में प्रकाशित भददी टिप्पणी को आधार बना मानहानि का दावा ठोंक रही है। सवाल यह है कि यह सब क्या है? क्यों है? <b><span style="color: #4c1130;">हमारे लिए क्या महत्वपूर्ण है हमारा लिखना या हमारी महत्त्वाकांक्षाएं? अपना लिखा पढनेवाले पाठक महत्त्वपूर्ण है या लिखे पर पुरस्कार का प्रमाण-पत्र? हम हमारे लेखन से श्रेष्ठ बनना चाहते हैं कि हमारे द्वारा हासिल पुरस्कारों की संख्याओं से? </span></b>बहुत ही गंभीर और विचारणीय प्रश्न है मित्रो! और इसी प्रश्न का सही उत्तर हमारी सोच को दिशा देता है, मेरा ऐसा मानना है। यहां अपने लेखन प्रतिभा के बूते देश के नामचीन हस्ताक्षर बनें उन अग्रज उदाहरणीय लेखकों और लेखकों की पैरवी करनेवाले से भी एक सवाल पूछने का मन हो रहा है कि वे कौन से कारण और दबाव हैं जो किसी भी पुरस्कार से ऊपर हस्ती गोपाल दास 'नीरज को भारत- भारती सम्मान के लिए अड़ जाने और पदमश्री, राजस्थान रत्न विजयदान देथा को प्रदेश की अकादमी के एक तुच्छ से पुरस्कार हेतु लाबिंग कराने पर मजबूर करती है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पुरस्कारों, सम्मानों का सच मुझे तो उसी दिन पता चल गया था जब मैं पंद्रह-सोलह वर्ष का था, हिन्दी दिवस पर स्कूल में आयोजित बाल सभा में स्व:रचित हिन्दी कविता-पाठ प्रतियोगिता में मेरी स्व:रचित कविता की जगह हैड मास्टर साहब के बेटे की सुनायी सुभद्रा कुमारी चौहान लिखित 'झांसी की रानी को प्रथम घोषित कर दिया था क्योंकि प्रस्तुति अच्छी थी, उसने गा कर सुनाया था।</div>
<div style="text-align: justify;">
साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित होने के बाद हिन्दी के प्रसिèद कवि चंद्रकांत देवताले ने कहा कि साहित्य में राजनीति की तरह फ़ैसले बहुमत से नहीं लिए जाते हैं और यही कारण है कि कर्इ बार गलत लोगों को भी पुरस्कार मिल जाते हैं। उन्होंने कहा कि आज से करीब दो दशक पहले जब प्रख्यात कथाकार भीष्म साहनी अकादेमी के हिन्दी परामर्श समिति के संयोजक थे तब धर्मयुग के संपादक और अंधायुग जैसी कालजयी —ति के लेखक डा. धर्मवीर भारती को अकादेमी पुरस्कार इसलिए नहीं दिया जा सका क्योंकि बहुमत उनके पक्ष में नहीं था जबकि जूरी के सदस्य के रूप में मैंने उनका ही नाम प्रस्तावित किया था। इस बात का दुख मुझे आज तक है। (वाणी प्रकाशन समाचार- मार्च 2013)</div>
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अब एक दृष्टि सामान्यत: पुरस्कार देने की प्रकि्रया पर कुछ आकलन अर्थात जो भी पुरस्कार दिए जाने हैं उनके लिए नामित की अहर्ताएं और चयन के मानदण्ड। इसके बाद जो सबसे महत्त्वपूर्ण और विशेष काम है अहर्ता और मानदण्डों को परखने वाले योग्यतम विशेषज्ञ निर्णायकों का चयन। किसी भी पुरस्कार की गरिमा में निर्णायको की ही प्रमुख भूमिका होती है। निर्णायक एकानेक हो सकते है। निष्पक्षता की दृष्टि से अधिकतर यह संख्या तीन रखी जाती है ...तीन सुनते ही सबसे पहले मेरे जेहन में ताश का तीन पत्ती खेल आता है क्योंकि तीन की वजह से आज जो छिछालेदरी बीन बजते सुनायी दे रहे हैं, यह संख्या संदेहों के घेरे में आ गयी है। मतलब तीन की विश्वसनीयता खतरे में है? चाहे वे अकादमिक पुरस्कार हों या कार्पोरेटेड घरानों, संस्थाओं द्वारा बांटे जानेवाले पुरस्कार! अधिकतर में बंदरबांट, हित साधनेवाले प्रकरण या बाजार में नाम भुनाने की निम्न स्तर की कोशिशें साफ दिखायी देती हैं। और यही वजह है कि पुरस्कारों के साथ- साथ उसे देनेवालों- प्राप्तकर्ताओं की सिथति बहुत दयनीय और हास्यास्पद हो गयी है और इसका खामियाजा दोनों को भुगतना पड़ रहा है। दोनों ही अपमानित होते हैं।</div>
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गलत निर्णयों पर आम राय और भावना को अनदेखा कर और भविष्य के लिए उससे कोई सीख लेने की बजाय पुन: पुन: ऐसे ही निर्णय लिया जाना बहुत ही खेदजनक होने के साथ-साथ अकादमियों संस्थानों के कामकाज के तौर-तरीको और विश्वसनीयता को कठघरे में खड़ा तो करता ही है, साथ ही ये सवाल भी उठाता है कि आखिर ऐसा किन दबावों और कारणों से होता या किया जाता है?</div>
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तिस पर यह कहा जाना कि ये निर्णय तीन निर्णायकों द्वारा लिया बहुमत निर्णय है, कह कर उस पर निष्पक्ष होने की मुहर लगा निर्णय को जायज ठहराना तो और भी दुखद है जो कि अब एक परिपाटी सी बनती जा रही है। यहां मुझे हाल ही में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने की दशा में अकादमी के पूर्व अध्यक्ष यू आर अनंतमूर्ति के बयान को तोड़-मरोड़ प्रस्तुत करने पर उसकी प्रतिक्रिया में दिए उनके बयान का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण अंश स्मरण हो आया है जिस में वे कहते हैं,'बहुमत भी हमेशा सही हो यह जरूरी नहीं।</div>
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सूचना अधिकार के अंतर्गत केंद्रीय साहित्य अकादमी से सन 2006 से 2012 तक के निर्णयों बाबत मांगे गए दस्तावेजों के अध्ययन से जो कुछ समझ आया उसका सार ये कि सन 2006 से 2012 तक के सभी एकल चयन परिणाम पत्रकों में अधिकतर में सिर्फ पुरस्कार हेतु चयनित पुस्तक की ही संयोजक द्वारा संस्तुति, समीक्षा लिख (सरकारी भाषा में कहें तो नोटिंग) त्रि-सदस्यीय निर्णायकों के हस्ताक्षर करा नीचे संयोजक ने हस्ताक्षर कर दिए हैं। इस में भी किसी परिणाम पत्रक में एक, किसी में दो तो किसी में तीनों निर्णायकों के हस्ताक्षर हैं और अधिकतर चयन पत्रको के साथ तीनों में से सिर्फ एक या दो निर्णायक की लिखित संस्तुतियां है, वह भी अधिकतर उनकी की जो चयन बैठक में अनुपसिथत रहे हैं और अधिकतर संस्तुतियां भी चयनित पुस्तक के विपक्ष में..... इसके अर्थ क्या हैं, जरा सी समझ रखनेवाला भी आसानी से समझ सकता है। हिसाब से देखा जाए तो पुरस्कार दौड़ में अंतिम आधार सूची में शामिल सभी कृतियों के बारें में निर्णायक क्या सोचते हैं और उन्होंने किन आधारों पर अमूक पुस्तक को श्रेष्ठ और अमूक को उससे कम श्रेष्ठ पाया...के बारे में अपना अभिमत स्पष्ट लिखना चाहिए लेकिन यहां तों केवल मात्र उसी कृति की संस्तुतियां हैं जिसे पुरस्कृत करना है, उसके साथ प्रतियोगी रही कृति या कृतियों के बारे में किसी भी निर्णायक या संयोजक महोदय की कलम से एक शब्द तक नहीं लिखा गया। मतलब बैठक में जो बैठे हैं वे मौखिक रूप से ही सारे विमर्श कर संयोजक महोदय एक कृति की रिपोर्ट बना (उस रिपोर्ट में भी साथ की प्रतियोगी कृति के जिक्र बिना) निर्णायकों से घुग्गी ठुकवा अपनी घुग्गी ठोंक देते हैं। दौड़ में शामिल अन्य किसी भी कृति पर किसी की कलम से एक शब्द भी नहीं। ये किस तरह के निर्णय हैं जनाब। जितनी भी प्रतियोगिताएं होती हैं... पहले के साथ .दूसरा या तीसरा स्थान पानेवाले वाले के कुछ तो अंक या विचार निर्णायक लिखते- बताते ही हैं लेकिन यहां तो एक से ही कथा शुरु एक पर ही खतम...दूसरे के दूसरे रहने का कारणों का जिक्र तक नहीं। एक और घोर आश्चर्य कि राजस्थानी के लेखकों, पुरस्कारों का मूल्यांकन राजस्थानी के विद्वानों के स्थान पर इतर भाषा के निर्णायक कर रहे हैं। यह सच सिर्फ मुख्य पुरस्कार का ही नहीं, अन्य पुरस्कारों का भी है। पहले युवा पुरस्कार (2011) के चयन में एक निर्णायक रहे राजस्थानी साहित्य में नामवर सिंह माने- जानेवाले आलोचक डा. कुंदन माली ने पुरस्कृत कृति को प्राथमिक स्तर पर ही खारिज करते हुए उसके पुरस्कार में शामिल किए जाने पर ही सवाल उठा दिए थे कि अकादमी के परामर्श मण्डल का सदस्य कैसे इस में शामिल हो सकता है और उन्होंने इस के लिए डा. मदनगोपाल लढा और ओम नागर की कृतियों की खूबियां गिनाते हुऐ उन में से एक को पुरस्कृत करने की संस्तुति की थी ( पूरे दस्तावेजों में यही एक मात्र संस्तुति है जिस में किसी निर्णायक ने पुरस्कृत कृति के अलावा अन्य कृतियों की विस्तार से व्याख्या सहित संस्तुति की है) लेकिन परिणाम पत्रक पर संयोजक की टिप्पणी हैं...दूरभाष पर मि. माली से बात कर उन्हें राजी कर लिया है। ... सन 2006 के राजस्थानी भाषा मुख्य पुरस्कार परिणाम पत्रक पर केवल एक निर्णायक के हस्ताक्षर है, इस में भी संयोजक टिप्पणी करते हैं कि बाकी दो निर्णायकों ने अपने अभिमत भेज दिए थे लेकिन अकादमी द्वारा प्रेषित दस्तावेजों में वे अभिमत संलग्न नहीं है। इसी तरह 2009 के पुरस्कार जिस में जनकवि हरीश भादानी की कृति भी दौड़ में थी, परिणाम पत्रक पर संयोजक के मेजर जांगिड़ समर्थित नोट पर प्रो. के. के. शर्मा (राजस्थानी में जितना कुछ आज पढ पाया हूं, कभी ये नाम मेरे पढने में नहीं आया, हो सकता है मेरी ये मेरी पाठकीय सीमा हो) व कुंदन माली के सिर्फ हस्ताक्षर है। तीसरे निर्णायक जो शायद अनुपसिथत थे, ने परिणाम पत्रक पर भादानी जी की कृति की संस्तुति की है। ये सब क्या है और क्यूं? क्यूं हम किसी लेखक का वाजिब हक मार अपनी क्षुद्र मानसिकताओं से किसी अन्य को तमगे दे देते हैं सिर्फ इसलिए कि वे अन्य आपके लिए तरह- तरह के आयोजन -प्रायोजन, अपनी कृतियों का आपके पवित्र हाथों लोकार्पण करा अपने मंचों पर आसीन कर आपको मालाओं से लाद साफे बंधवाते हैं, आपका सम्मान कर तालियां बजवाते हैं। सच में, इतिहास बताता है कि कई पुरस्कार तो मिले ही उनको हैं जिन्होंने संयोजक, परामर्श मण्डल की खातरी की है, अर्थात जिसने बजार्इ हाजिरी, अधिकतर उनकी हुर्इ खातरी। अकादमी से प्राप्त अगर ये दस्तावेज पूर्ण है तो इन में लोचा ही लोचा और घोर अनियमितताएं हैं।<br />
यहां राजस्थानी परामर्श मण्डल के सदस्य रहे एक सदस्य की उपलबिधयों की बानगी देखें... चार वर्ष के कार्यकाल में दो अनुवाद प्रोजेक्ट खुद के और दो अपनी पत्नि (राजस्थानी भाषा के नए अनुवादक अवतार) के नाम स्वीकृत, साथ एक पुरस्कार की उपलब्धि..इसके अलावा वर्तमान परामर्श मण्डल के कुछ निर्णयों में भी सेंधमारी।<br />
ये सच तो सन 2006 से 2012 तक के आंकड़ों के हैं, इससे पूर्व क्या और कैसे- कैसे मैनेज किया और कराया गया होगा प्रबु<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>द्ध पाठक आसानी से समझ सकते हैं। कुल मिलाकर भैंस पानी में ही बैठी दिखायी दे दिखायी दे रही है। </div>
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कथाकार उदय प्रकाश ने परसाई जी को कोट करते हुए ठीक ही कहा है, 'साहित्य में यह विकलांग श्रèदा का दौर है, घोर नैतिक-मूल्यों के अवमूल्यन का दौर। जहां सिफऱ् विकलांग राज- व्यवस्था में बैठे अपने आकाओं की मिलीभगत से वे लोग साहित्य के स्वयंभू मसीहा बन बैठे हैं जिनका न साहित्य से सरोकार है न साहित्यकारों से। सिफऱ् अपना और अपनों का सिट्टा सेंकने में लगे हैं और विवाद होने पर वक्तव्यों के लिए अपने चेलों की जमात को आगे कर देते हैं </div>
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'आज —कृति छपने से पहले ही चर्चित हो जाती है, पढे जाने से पहले ही उसे सनद बख्श दी जाती है कि यह हिन्दी की पहली और आखिरी रचना है। उसी हिसाब से एक — कृति पर कई कई पुरस्कार दिए जाते हैं। मेरी चिंता केवल पुरस्कार तक सीमित नहीं है बलिक उस अन्याय और अपमान के प्रति है जो हर दिन, हर पल एक रचनाकार को सहना पड़ता है। नासिरा शर्मा (संचेतना)</div>
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'क्या वजह है कि जगदीश गुप्त को भारत-भारती सम्मान इस उम्र में आकर मिला? गिरिजा कुमार माथुर को अकादमी पुरस्कार इतनी देर से मिला, व्यास सम्मान तो स्वयं प्राप्त ही नहीं कर पाए। विष्णु प्रभाकर, देवेन्द्र सत्यार्थी, शैलेश मटियानी, रामदरश मिश्र, महीप सिंह, देवेंन्द्र इस्सर आदि को तो अभी भी याद नहीं किया गया है जबकि जगूड़ी को मिल गया है।....प्रताप सहगल(संचेतना)</div>
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'अरुण कमल को 1998 का साहित्य अकादमी सम्मान मिलने पर अशोक वाजपेयी ने जनसत्ता में अपने डिस्पेच असमंजस में लिखा था अव्वल तो पुरस्कार नेमिचंद जैन, विनोद कुमार शुक्ल, विष्णु खरे और चंद्रकांत देवताले की पुस्तकों के रहते इस पुस्तक को मिले यह रुचि या मानदण्ड की विभिन्नता का मामला नहीं हो सकता, तब जब जूरी में भीष्म साहनी, केदारनाथ सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी हों। यह खुले तौर पर प्रगतिशील निर्णय है।... पर क्या यह सही है कि उसी पीढी के मंगलेश डबराल का काम अरुण कमल से बेहतर और अधिक रहा है? श्री कमल से पिछली पीढी के रमेशचंद्र शाह, —कृष्ण बलदेव बैद, राजेंद्र यादव, और कमलेश्वर को वह नहीं मिला। कुल मिलाकर यह कि इस बार का पुरस्कार गैर साहित्यिक कारणों से किसी सुनिश्चित योजना के अंतर्गत दिया लगता है। यह दूसरी अधिक समर्थ —कृतियों को नज़र अंदाज करके दिया गया है।... अगर हमारे जिम्मेदार और वरिष्ठ लेखक-निर्णायक ऐसा निर्णय लेते हैं तो हमें यह जानने का हक है कि उसका ठोस आधार क्या है, कितनी देर, किन —कृतियों पर बहस हुयी?</div>
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'अब चूंकि ज्यादातर पुरस्कार पद, पहुंच और संभवतरू पार्टी (दारु आदि की भी, राजनीति की भी) और अन्य कारणों से अंजाम पाते हैं, मात्र उत्—श्रेष्ठ लेखन से नहीं। सो गांव, देहात, छोटे कस्बे और शहरों के लेखक या बिना पहुंच के लेखक उस सूची में आ ही नहीं पाते। दूसरी ओर ढेरों पुरस्कारों के घूरे पर बैठे महालेखकों का लेखन आज कहां है, पता भी नहीं चलता। -संजीव(समकालीन साहित्य समाचार- जन.98)</div>
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साल 2009 के लिए अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल को संयुक्त रुप से ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने की घोषणा और पुरस्कार राशि को सात लाख के बजाय पांच-पांच लाख किए जाने का निर्णय पहली नजर में भारतीय ज्ञानपीठ की यह उदारता प्रभावित करती है। लेकिन तीन लाख का नुकसान सहते हुए भी ऐसा किया जाना न केवल नैतिक रुप से गलत है बल्कि राशि के आधी या कम किए जाने का प्रावधान अगर पहले से घोषित नहीं है तो फिर संवैधानिक रुप से नियमों का उल्लंघन भी है। साल 1999 में निर्मल वर्मा और गुरदयाल सिंह के बीच भी आधी- आधी राशि बांटी गयी थी,तब भी इस पर विवाद हुआ था और इसे अनैतिक करार दिया गया था।</div>
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हिंदी की जानी मानी लेखिका —कृष्णा सोबती आज भी ज्ञान पीठ पुरस्कार से दूर हैं . दिल्ली के साहित्यिक गलियारे की बात मानें तो उन्हें पिछले साल ही ज्ञानपीठ सम्मान मिल जाता लेकिन ज्ञानपीठ के निदेशक और नया ज्ञानोदय के सम्पादक रवींæ कालिया से नाराजगी के चलते उनका पत्ता काट दिया गया. तब निर्णायक समिति में शामिल ' तदभव ' के सम्पादक एवं लेखक अखिलेश ने अन्य सदस्यों को लेखक श्रीलाल शुक्ल के पक्ष में प्रभावित किया और उन्हें ऐसा करने में सफलता भी मिली.</div>
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'विजय राय ने लमही के माèयम से अब तक प्रेमचंद के सम्मान की रक्षा की है। इस बार का पुरस्कार मनीषा कुलश्रेष्ठ को कैसे दिया गया, यह बात मेरी समझ में नहीं आई। एक तरफ़ आप शिवमूर्ति को सम्मानित करते हैं और दूसरी तरफ़ मनीषा कुलश्रेष्ठ को। पुरस्कार में एजग्रुप भी तो मायने रखता है। मैं कहूंगा कि यह जल्दबाज़ी में लिया गया है फ़ैसला है। वरिष्ठ और कनिष्ठ का अंतर समझना चाहिए। हिंदी साहित्य में चरम अराजकता फैली हुई है। मनीषा को स्टार बना कर उन की हत्या की जा रही है। सृजन का नाश कर दिया गया। लेखकों के लिए ज्यादा प्रशंसा ठीक नहीं है। ऐसा न हो कि स्टार लेखिका बता कर पंकज सुबीर मनीषा की हत्या करा दें और इस का भागी लमही बन जाए। - संजीव, वरिष्ठ कथाकार (फ़ेबु 170913वाया जय प्रकाश मानस स्टेटस)</div>
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(ऊपर के सारे वक्तव्य विभिन्न पत्रिकाओं और फेसबुक से साभार)</div>
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संजीव के इस बयान के पक्ष और विपक्ष में बहुत सी टिप्पणियां सोशल मीडिया फेसबुक पर पढने पर अन्य कारणों में न जाते हुए मैं उनके पर मनीषा कुलश्रेष्ठ-प्रकरण के इतर ' वरिष्ठ और कनिष्ठ का अंतर समझना चाहिए। कथन पर ही अपनी बात रखना चाहूंगा। इस कथन पर बहुत से मित्रो ने आपत्ति दर्ज कराते हुए कहा है कि प्रतिभा कोर्इ वरिष्ठ- कनिष्ठ नहीं होती, अकादमियों द्वारा दिए जानेवाले जिस में केंद्रीय साहित्य अकादमी के भी बहुत से प्रकरणों के बाद हुए वाद-विवादों के मददेनजर बहुत हद तक मैं संजीव जी की बात से सहमत होते मैं कहना चाहूंगा कि सही है प्रतिभा कोर्इ वरिष्ठ- कनिष्ठ नहीं होती लेकिन प्रतिभा के प्रतिभा दर्शानेवाले कार्यों को रेखांकित करनेवाले उदरण तो हों जो कहीं रेखांकित किए गए हों, सोने को आभूषण रूप में आने से पूर्व किन- किन तापों को सहना, प्रकि्रयाओं से गुजरना होता है, सब जानते हैं। अनुभूति को समय के चाक पर भाषा, षिल्प और शैली मिश्र माटी से रचयिता अपनी रचना को आकार ही नहीं देता उसे आलोचकों-पाठकों की भटटी में पकने के लिए छोड़ता भी है। वे ही तय करते हैं कि क्या और कैसा रचा गया है। या सिर्फ पुरस्कारों के लिए सबमिट छपी कृति को ही अप्रतिम घोषित कर उसे पुरस्कृत कर एक नए नाम को टपका कर हलचल मचा नाम कमा लिए जाएंगे? केवल एक रचना या कृति जो निर्णायकों के अलावा कभी किसी पाठक के बीच न आई हो, सीधे नामित, पुरस्कृत हो जाए यह तो अति ही कहा जाएगा, लेखकीय प्रतिभा कोई विज्ञान का आविष्कार तो है नहीं कि अचानक प्रस्फुटित हों और चारों ओर अपना चमत्कार दिखाने लगे। एक बार मान भी लिया जाए कि ऎसा है तो भी उनका सच भी यही है कि वे भी न जाने कितने- कितने प्रयोगों के असफल होने के बाद सफलता का मूंह देख पाते हैं। </div>
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मेरे दृष्टिकोण को पुष्ट करनेवाले उपरोक्त सभी संदर्भ बताते हैं कि अकादमी चूंकि हम सब की है, पूरे देश के साहित्य का दर्पण मानी जाती है और जवाबदेह है, अकादमी अध्यक्ष को इस में होनेवाली गतिविधियों, निर्णयों की गरिमा और समग्र शब्द समाज में विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए पुरस्कार, संयोजन चयन प्रकि्रया पर उठने वाले विवादों, सवालों के मददेनजर गंभीरता से मंथन करते हुए कदम उठा वे सभी उपाय करने चाहिए जिससे शब्द से सरोकार रखनेवाले सच्चे शब्द साधकों में अकादमी के प्रति डगमगाते विश्वास में दृढता लौटे।</div>
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इस संदर्भ में सुझाव (1) तो यह हो सकता है कि किताबों की आधार सूची ( ग्राउंड लिस्ट) संयोजकों, सदस्यों, मान्यताप्राप्त सदस्यों की बजाय राजा राममोहन राय ट्रस्ट की तरह पूरे देष के प्रकाषकों से सीधे विभिन्न भाषाओं-विधाओं की पुस्तक सूची मांग अपने पास उपलब्ध लेखक परिचय कोश(who's where) की सहायता से देश भर के लेखकों या प्रदेशों की अकादमियों के पास उपलब्ध उनकी लेखक सूचियों, परिचय कोश से निर्णायक पैनल बना सीधे उन्हीं से अनुशंसा मांगी जा सकती है, और यह सब गोपनीय हो और इसकी जरा भी भनक संयोजकों, मण्डल-सदस्यों को न लगे। इसके अलावा जिस प्रकार अकादमी पुरस्कारों के लिए हर वर्ष प्रेस-विज्ञपित जारी करती है, उसी प्रकार उस वर्ष प्रकाशित उन विधाओं जिन में जिस भाषा में पुरस्कार दिए जाने है, हेतु भी सीधे प्रकाशकों, लेखकों से सीधे कृतियां आमंत्रित कर सकती है जैसा अभी नवसृजित पुरस्कारों युवा लेखन- बाल साहित्य के लिए यही प्रकि्रया अपनायी जा रही है। (2) संयोजक की चयन प्रक्रिया भी बड़ी बेतुकी और गलत है कि जानेवाला संयोजक, आनेवाले संयोजक का चयन करेगा...ये कोई विरासत नहीं है जिसका कि जिसकी वसीयत कर उत्तराधिकारी घोषित किया जाए, यह गलत प्रक्रिया तुरंत प्रभाव से बदली जानी चाहिए। (3) मान्यता प्राप्त संस्थाओं की समीक्षा की जानी चाहिए, पड़ताल हों कि उन संस्थाओं की वास्तविकताएं क्या हैं, उसे चलानेवाले कौन हैं, उनकी कहां- क्या सक्रियता है... आरोप हैं कि अकादमी में मान्यता प्राप्त अधिकतर संस्थाएं जेबी हैं और ये सिर्फ संयोजक, पुरस्कार चयन में वोट- बहुमत दिलाने की भूमिका निभाती हैं। मान्यता के मानदंडों पर पुन: विचार कर, सुधार कर नयी- नयी संस्थाओं को अधिक से अधिक संबद्ध किया जाना चाहिए जिससे राज्य सभा की तरह अकादमी में खेले जानेवाले वोटिंग के कुत्सित खेल से बचा जा सके। (4) पुरस्कार हेतु चयनित कृति के साथ कृतिकार के पूरे साहित्य के क्षेत्र में अवदान को भी दृष्टिगत रखा जाना चाहिए, अगर न हो तो उसी सिथति में कृति- कृतिकार को पुरस्कार हेतु चयनित किया जाना चाहिए जिसमें आधार बहुमत नहीं, निर्णायकों की सौ प्रतिशत सहमति हो कि वाकई यह अप्रतिम और विरल कृति- कृतिकार है, अगर इसे पुरस्कृत नहीं किया गया तो पूरे साहित्य जगत का नुकसान होगा और हम सब ही इस भूल के खलनायक होंगे। (5) यह भी किया जा सकता है कि अकादमी-अध्यक्ष वर्तमान पुरस्कार चयन प्रक्रिया में कमियों और उनके कारण उठने वाले समय-समय विवादों के मददेनजर चयन प्रक्रिया, नियमों के समीक्षार्थ व उस में अधिक से अधिक पारदर्शिता हेतु बदलाव- सुझावों हेतु जैसे अकादमी साहित्यिक गतिविधियों हेतु सेमिनार- कार्यशालाएं आयोजित करती है, इस हेतु भी एक सेमिनार या बैठक आयोजित कर अकादमी से मान्यता प्राप्त विभिन्न भाषाओं के विद्वानों को आमंत्रित कर इस विषय पर विशद चर्चा कर उस में प्राप्त सुझावों के आधार पर नए नियम और मानदण्ड निर्धारित करे और उन्हें भी लागू करने से पहले साहित्य समाज के समक्ष अवलोकनार्थ रखें जिससे उन में रह गयी कोई कमी और आपत्ति अगर हो तो उसका निस्तारण हो सके। (6) एक तुरंत उपाय यह भी हो सकता है कि जिस भाषा के पुरस्कार या उससे संबद्ध अन्य योजनाओं पर अंगुली उठे या विवाद हो, निर्णयों की त्वरित गति से जांच कर तथ्यों का पता लगाकर यदि हो रही अनियमितताओं सम्बन्धी शिकायतें सही पायी जाएं तो अध्यक्ष अपनी संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग कर उस भाषा के परामर्श मण्डल को संयोजक सहित भंग कर नए मण्डल का गठन कर सकते हैं। अगर ऐसा एक- दो बार होगा तो इसके बहुत ही सार्थक और स्वस्थ परिणाम आ सकते हैं और काफी दाग धुल सकते हैं भविष्य के लिए भी एक स्वस्थ राह बन सकती है.. एक संदेश हासिल होगा... मेरी ऐसी सोच है। (7) निर्णायकों के पैनेल में आए नामों को सीधे ही चयन करने की बजाय उनके बायोडेटा मंगा उस भाषा में उनके अवदान और सिद्धस्ता की जांच की जानी चाहिए क्योंकि पुरस्कार चयन में निर्णायक की भूमिका ही सबसे महत्त्वपूर्ण और अहं होती है वे ही समस्त विवादों के सूत्रधार होते हैं ( ज्वलंत उदाहरण 'लमही सम्मान) और वे ही गौरनिवत करनेवाले। (8) परामर्श मण्डल के चयन में भी सावधानी बरतते हुए उनके साहित्यिक अवदान को ध्यान में रखते हुए सदस्य चयन होना चाहिए वर्ना तो आगे भी वही होगा जो अब तक होता आया है और आज हो रहा है। </div>
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अकादमियों में व्याप्त उक्त विडंबनाओं और विवादों को देखते हुए अकादमी-अध्यक्षों को चाहिए कि तुरंत विद्वजनों का एक पैनल गठित कर प्रस्तावित सुझावों के मददेनजर या इन से भी बेहतर कोई प्रस्ताव, नियम- प्रक्रिया निर्धारित करने की पहल करें जिससे अकादमी पुरस्कारों और अन्य काम-काजों के तौर- तरीकों पर उठने विवादों के कलंक से निजात पायी जा सके। इस संचार क्रांति युग में जहां कुछ भी छुपाना संभव नहीं रह गया है, आज गोपनीयता के नाम पर अपनी मनमर्जी करना असंभव नहीं तो दुरुह जरूर हो गया है। हर क्षेत्र में पारदर्शिता लाने की वकालत की जा रही है, समय आ गया है कि अकादमियां भी अपने ढंग- ढर्रे में सुधार करें और जिससे अकादमी के परामर्श मण्डल के माननीय सदस्य दूलाराम सहारण जी अकादमी की किसी योजना के अंतर्गत किसी लेखक द्वारा भेजे गए प्रस्ताव की स्वीकृति या अकादमी द्वारा पुरस्कृत किए जाने के बाद तानशाही अंदाज में अहसान जताते हुए जैसे कि अकादमी का अर्थ वे और उनके आका ही हैं,किसी नवनीत पाण्डे को 'आपको अनुवाद कार्य किस की कृपा से मिला था (भले ही 1999 के प्रस्ताव पर 2006 में प्रकाषन को भी वे अपना अहसान बता अपने आपको गौरानिवत महसूस करते हैं) जता कर हड़का सके।</div>
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मित्रो! समय आ गया है देष की विभिन्न अकादमियों में जमे इन साहित्य माफियाओं, ठेकेदारों के चुंगल से साहित्य को मुक्त कराने का पूरा लेखक समाज अपने निजी और छोटे-मोटे हितों से ऊपर उठ अपनी क्षमताओं के अनुरूप एकजुट हो सक्रिय और प्रभावी प्रयास करें। अगर ईमानदारी की चाह है, तो खुद को भी, पूरा नहीं तो थोड़ा- बहुत ईमानदार तो होना ही होगा।</div>
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नवनीत पाण्डे</div>
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'प्रतीक्षा2 - डी -2, पटेल नगर,</div>
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बीकानेर -334003 (राज.) </div>
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नवनीत पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/14332214678554614545noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4402945881693099939.post-13254116141855992522013-08-20T07:38:00.004-07:002013-08-20T07:58:57.854-07:00स्वस्थ बहस की शुरूआत ही अकादमियों की मनमर्जी पर लगा सकेगी अंकुश- दूलाराम सहारण<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<span style="color: #20124d; font-size: large;"><i>मेरी बात -</i></span></div>
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<span style="color: #20124d;"><i><br /></i></span></div>
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<span style="color: #20124d; font-size: large;"><i>मित्रो! बीच-बहस में<b> "तो असल बात और पीड़ाएं ये हैं" </b>पोस्ट के प्रत्युत्तर में मित्र दूलाराम सहारण ने बीच-बहस के लिए<b> "स्वस्थ बहस की शुरूआत ही अकादमियों की मनमर्जी पर लगा सकेगी अंकुश"</b>शीर्षक से ये आलेख भेजा है इस आग्रह के साथ कि इसे ज्यों का त्यों छापा जाए। <b>बीच-बहस</b> मंच ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए है अत: उनका आलेख<b> ज्यों का त्यों </b>यहां दिया जा रहा है ताकि बात एक तरफ़ा न लगे। </i></span></div>
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<span style="color: #20124d; font-size: large;"><i><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>दूलाराम जी का आभार कि उन्होंने मुझे कुण्ठाग्रस्त घोषित किया है..कुछ तो सोचकर ही यह फ़तवा दिया होगा। अस्तु! उनके इस आलेख में उनके द्वारा किए एक रहस्योद्घाटन, खुलासे से कम से कम उन आरोपों को बल मिलता है, और सच्चाई ध्वनित होती है कि अकादमी चाहे केंद्र की हो या राज्य की पारदर्शिता, निर्णायक एक पर्दा है दो नम्बर के कामों को एक नम्बर में बदलने का। उनके इस आलेख से ही मुझे पता चला कि केदारनाथ अग्रवाल की जन्मशती पर भेजा गया मेरा अनुवाद प्रस्ताव स्वीकृत हुआ है जबकि अकादमी की ओर से मुझे आज तारीख तक कोई विधिवत सूचना नहीं है। इससे एक कड़वा सच और सामने आता है कि पूरे राजस्थान से बरसों से न जाने कितने लेखकों के प्रस्ताव स्वीकृत हो फ़ाइलों में दफ़न हो जाते होंगे या वे कछुआ चाल से न जाने किस वजह से लेखकों तक पहुंच भी पाते होंगे कि नहीं(ऎसे उदाहरणों, हादसों की भी कमी नहीं कि अनुवाद की स्क्रिप्ट लेखक द्वारा समय पर अकादमी को प्रेषित कर दिए जाने के बावजूद जब तक वहां नियुक्त हमारे महामहिम प्रतिनिधियों की हरी झंडी न मिले प्रेस के दर्शन ही नहीं कर पाती और ऎसी कृति भी प्रेस जाने की चर्चाएं आम हैं जिनके प्रस्ताव ही बाद में प्रस्तुत और स्वीकृत कराए गए हैं, ऎसा है या नहीं इसका खुलासा तो दुलाराम जी बता सकते हैं।) यही हश्र केंद्रीय अकादमी अनुवाद कर भेजी जा चुके उन लेखकों के साथ होता रहा जो कि गुडबुक में नहीं होते। </i></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #20124d; font-size: large;"><i><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बहरहाल जिस सच और आरोप की ओर मैं संकेत कर रहा था और दया-अहसान की तरह मुझे स्मरण कराया गया है,<b>"यह बताते चलिए कि साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली से आपको महाश्वेता देवी (1084 की मां) और केदारनाथ अग्रवाल (अपूर्वा) की रचनाओं के अनुवाद कार्य किसने दिलवाए?" </b>उनकी इस दंभोक्ति से मेरे ऊपर कहे गए ’</i></span><i style="color: #20124d; font-size: x-large;">पारदर्शिता</i><span style="color: #20124d; font-size: large;"><i>, निर्णायक एक पर्दा, ढोल है जिसकी असल पोल ये है कि ऎसे दो नम्बर के कामों को आसानी से अपने चाहे अनुसार एक नम्बर में बदल लिए जाते हैं।’ की सत्यता पुष्ट होती है। इस खुलासे से यह भी ज़ाहिर होता है कि लेखक को कतई ये भ्रम नहीं पालना चाहिए कि वह या उसकी कृति कुछ है। अकादमियो में जो हमारे हैं वे ही सब-कुछ हैं, उनकी मर्ज़ी के बिना पत्ता तक नहीं हिलता। महाश्वेता देवी के जिस उपन्यास के अनुवाद कार्य श्री देवल, तिवाड़ी की कृपा से दिलाए जाने के काले सच का खुलासा दूलाराम जी ने किया है, मुझे इसकी बिल्कुल भी जानकारी नहीं थी, आम लेखकों की तरह हम भी इसी भ्रम में थे कि केंद्रीय अकादमी में साफ़- सुथरा और कायदे- कानून और लेखक और कृति के अनुसार उसके लिए बनी विद्वानों की निर्णायक मण्डल के अनुमोदन और सम्मति से होता है, यह तो इस आलेख से पता चला कि वहां भी निर्णय और निर्णायक सिर्फ़ दिखावे मात्र के होते हैं असली पावर तो इन्हीं हाथों में होता है। </i></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #20124d; font-size: large;"><i><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>रही बात <b>1084वें मां</b>-महाश्वेता देवी के उपन्यास के राजस्थानी अनुवाद की तो मैं बता दूं कि ’1084वें की मां’ अकादमी द्वारा पुरस्कृत कृति नहीं थी, पुरस्कृत कृति तो (aranyer adhikar) अरण्येनेर अधिकार थी लेकिन चूंकि <b>’1084वें की मां’ महाश्वेता जी </b>की सर्वाधिक चर्चित और प्रसिध्द कृति है जिस पर इसी नाम से गोविंद निहलानी फ़िल्म भी बना चुके थे, मुझे लगा राजस्थानी में भी इसे होना चाहिए, इसीलिए मैंने आप ही की तरह महाश्वेता जी से अनुमति लेकर अपने ही स्तर पर इसके अनुवाद का कार्य शुरु किया, बाद में किसी मित्र के सुझाव पर ही प्रस्ताव अकादमी भेजा था, मुझे ज़रा भी इल्म नहीं था कि यह प्रस्ताव अकादमी नहीं, देवल और तिवाड़ी साहब स्वीकृत करने वाले हैं और अपने इन शब्दों में जैसा कि दूलाराम जी बता रहे हैं, उन्होंने मेरे एक और प्रस्ताव पर अपनी नज़रें इनायत कर उसे स्वीकृत किया है जिसकी मुझे आज तक अधिकारिक सूचना नहीं है,आएगी तो <b>मैं उसे इस मंच से अस्वीकार करने की घोषणा करता हूं....</b> 1084वें री मा" जैसे-तैसे कैसे छपी और इसके लिए इतिहास में नहीं जाऊंगा न ही इस इतिहास में जांऊगा कि प्रकाशन के बाद अनुवाद पुरस्कार अवधि में उस पर क्या-क्या और क्यों बीती। </i></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #20124d; font-size: large;"><i><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>दूसरा आरोप मेरे द्वारा चर्चाओं से पलायन करने का लगाया है, पिछले दो सालों से जब से उन्होंने एक तरफ़ा आक्रमण का मोर्चा संभालते हुए जो कुछ लिखा है, फ़ेसबुक पर पढनेवाले अच्छी तरह जानते होंगे पूरे राजस्थान से सिर्फ़ नवनीत पाण्डे ने ही उनकी अधिकतर पोस्ट पर सवाल- जवाब किए हैं। और दूलाराम जी की तरह किसी प्रतिकूल दिखनेवाली अपनी स्वयं की पोस्ट को और उस पर मेरी टिप्पणी को डिलीट नहीं किया है। राजस्थान में साहित्य अकादमियों के अध्यक्षों के नामों की घोषणा के साथ ही आपने उनके खिलाफ़ एक शर्मनाक मुहिम शुरु की थी, महिने- दो महिने भड़ास निकाल कर आप ही गधे के सिर से सींग की तरह फ़ेसबुक से गायब हो गए थे और जैसे ही राजस्थानी अकादमी के पुरस्कारों की घोषणाएं हुई, आप अचानक फ़िर अपने उसी राग के साथ अवतरित हो गए.. नवनीत पाण्डे कहीं नहीं गया....अस्तु!</i></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #20124d; font-size: large;"><i><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>आपने अपनी विद्वता से अपनी जिन प्रतिभाओं और विविध क्षेत्रों में उपलब्धियों के साथ बड़े- बड़े भामाशाहों, कारोबारियों के सहयोग से अपने द्वारा किए, कराए गए जिन महान, ऎतिहासिक कार्यों को अपनी बड़ी सोच के साथ क्रियान्वित करने का जो यशोगान गाया है, उनके लिए ह्र्दय की अतल गहराइयों उनका हार्दिक अभिनंदन और स्वागत और कामनाएं कि आप अपने अभीष्ट की प्राप्ति के लिए इसी ऊर्जा से जुटे रहें और अपने परिवेश को हर तरह से समृध्द करते रहें। और उस संजीवन प्रयत्न के लिए भी पूरे राजस्थान के लेखक समुदाय की तरफ़ से भी आप विभूतियों का आभार कि आप सुनील गंगोपाध्याय से मिले और उन्हें राजी कर आप के सद्र्प्रयासों से सभी भारतीय भाषाओं के साथ-साथ राजस्थानी को भी नए पुरस्कार दिला अपने कर्त्तव्य का निर्वाह कर प्रदेश का गौरव बढाया। पूरा राजस्थान व राजस्थानी आपकी कृतज्ञ है। आपने कहा अभीष्टों से मोहवश एक- दो नाम दो बार लिख दिए गए, मुझे उससे कोई शर्म नहीं, हमारे लिए तो सभी अभीष्ट हैं, कभी किसी से दुश्मनी का खयाल तक नहीं आता..सभी मित्र हैं, मतभेद हो सकते हैं, मनभेद किसी से नहीं.. ऎसे में अगर कोई नाम दोबारा आ गया तो आ गया..आखिर इंसान हैं भई, कंम्यूटर तो नहीं कि हमें तुरंत सुधार दें, आपके ध्यानाकर्षण से आलेख को संपादित कर दिया है लेकिन इससे सच और संदर्भ प्रभावित नहीं होंगे। और भी कोई लिपिकीय भूल रह गयी हो तो अवश्य बताएं.. हम अभी अपरिपक्व और नए हैं इस क्षेत्र में, सीखते- सीखते सीखेंगे।</i></span></div>
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<span style="color: #20124d; font-size: large;"><i><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अंतिम आरोप कि मैंने आलेख में जिन बातों की ओर इशारा किया वे गोडाघड़ेड़ी है, इन में कुछ भी सही नहीं। चलो, आपकी ये बात मान लेते हैं, बावजूद इसके कि ये सभी कड़वे सच हैं जिन से राजस्थानी में थोड़ी बहुत कलम चलानेवाले हर लेखक परिचित हैं और इसके लिए मुझे नहीं लगता कि किसी दस्तावेज़ी सबूत की जरूरत है।अगर नवनीत पाण्डे की सारी बातें गोडेघड़ेड़ी है या सच। इसका फ़ैसला इन बातों को पढनेवालों सुधि लेखकों और पाठकों पर छोड़ दीजिए न। उस यथार्थ को गोडाघड़ेडी कहकर कब तक, कहां तक छुपाया जाएगा जो है, सबके सामने हैं और जिससे सब वाकिफ़ हैं। मैं अपनी पसंद की सूची बनाऊं! मेरी औकात कहां! ये महाकर्म तो गुणीजनों, बिरले विद्वान व्यक्तित्वों को ही शोभा देते हैं और आप लोगों से बढकर ईमानधर्मी, नैतिक मूल्यों के संस्थापक गुणीजन विद्वान कौन? आप के आकलन और कथनानुसार बाकी सब तो भ्रष्ट, निकृष्ट और पाप के घड़े हैं...</i></span></div>
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<i style="color: #20124d;"><b>-नवनीत पाण्डे</b></i></div>
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<span style="color: #20124d; font-size: large;"><i><br /></i></span></div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEigED0v4wIVlZJDZidGQD7mpwFFR7rR1cUxknQ6E-pP9DPTnFLxNCPe2HNoyn4mEVlaEcv389qBLFBMhUXslThV0LOLSjoPSs4-jeBWDXxhSOwl_OKTf1R4xR_yxlah0CEbTSmD5Pk84uk/s1600/dula+ram.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEigED0v4wIVlZJDZidGQD7mpwFFR7rR1cUxknQ6E-pP9DPTnFLxNCPe2HNoyn4mEVlaEcv389qBLFBMhUXslThV0LOLSjoPSs4-jeBWDXxhSOwl_OKTf1R4xR_yxlah0CEbTSmD5Pk84uk/s1600/dula+ram.jpg" style="cursor: move;" /></a></div>
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bhai jee, kuchh metter hai. sidha post nahi ho raha. kripiya jyu ka tyu beech-bahas me dene ka shrm kren.. sadar.... </div>
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<b>स्वस्थ बहस की शुरूआत ही अकादमियों की मनमर्जी पर लगा सकेगी अंकुश- दूलाराम सहारण</b></div>
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<b>संदर्भ: नवनीत पांडे के ब्लॉग बीच-बहस की पोस्ट</b></div>
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भाई नवनीत जी, आपने काफी स्वस्थ बहस शुरू की है। राज्य में स्थित राजस्थानी अकादमी की नादरशाही के खिलाफ बात शुरू की तब से मैं ऐसी बहस की अपेक्षा कर रहा था। मैं बार-बार कह रहा था कि<b> अकादमी के कारिंदे चुप क्यों है? अकादमी को बोलना चाहिए। </b>अगर हम सही को गलत ठहरा रहे हैं तो अकादमी अपना पक्ष रखे। पाठक स्वयं तय कर लेगें कि कौन सही कह रहा है और कौन गलत? खैर.... किसी दूसरे के बहाने देर आए दुरस्त। </div>
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नवनीतजी, मैं आपकी इस बहस का स्वागत करता हूं। साथ ही राजस्थानी <b>साहित्य की समझ रखने वाले तथा फेसबुक, ब्लॉगिंग से जुड़े सभी विद्वान, साथियों से आग्रह करता हूं कि वे इस बहस में हिस्सा लें।</b> अपनी बात बेबाकी से रखें। ताकि अकादमियों की दशा-दिशा सुधरे और अकादमियों के कर्ताधर्ता जो बनते हैं वे कुछ भी गलत करने से पहले दो बार सोचें।</div>
<div style="text-align: justify;">
नवनीत भाई, बात यहां राज्य अकादमी और केन्द्रीय अकादमी की नहीं है। बात अकादमियों में होने वाले अपने-पराये, जात-मुसाहिबा, बजट-चैपट आदि की है। इसलिए दोनों अकादमियों की गतिविधियों पर खुली बहस होनी चाहिए। मैं आपकी तरह कुण्ठाग्रस्त नहीं हूं। मेरे लिए दोनों अकादमियां समान है। क्योंकि किसी भी अकादमी ने व्यक्तिशः मुझे कहीं उपेक्षित नहीं किया। हां, आपकी बात सही मानें तो एक अकादमी ने मुझे बेहिसाब उपकृत भी किया है। यहां, आपकी इस बात के मायने समझता हूं और आपके इर्द-गिर्द कैसे संकेत आ रहे हैं, पल-पल की खबर भी इन दिनों रखता हूं। </div>
<div style="text-align: justify;">
मुझे कहते हुए दुख है कि जो कायर खुद कहने में असमर्थ हैं, आरापों को सहन करने की हिम्मत नहीं रखते व चर्चाओं से पलायन कर जाते हैं, उनकी भाषा को पढकर किसी दूसरे को ही जवाब देना पड़ रहा है। खैर.... फिर भी हम यह स्वीकार कर रहे हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
हां, मैं यहां मेरा पक्ष नहीं रखना चाह रहा था। क्योंकि खुद को कहीं दोषी नहीं पाता। परंतु बात विवादित बनाने के लिए ही उठी है तो मैं कुछ कहना चाहूंगा। और विवादित होने से डरूंगा नहीं। <b>यहां मैं तो श्री चंद्रप्रकाश देवल की खुले दिल से प्रशंसा करूंगा कि उन्होंने युवाओं की अहमियत को समझा और साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली में पहली दफा उनके माध्यम से युवाओं की दखल हुई। </b>मैं एडवायजरी में गया। शायद राजस्थान से पहली दफा 30 के इर्दगिर्द का कोई युवा गया होगा। अबकी बार 30 के इर्दगिर्द का युवा ओम नागर, कोटा गया है। अगली दफा और कोई युवा होगा। कोई नहीं होगा तो हम पुरजोर युवा को लाने का प्रयास करेंगे। एडवायाजरी की ऐसी शुरूआत में अगर कहीं मैं ‘दोषी’ हूं तो वह दोष स्वीकार करता हूं और ऐसे दोष बार-बार करने की हामी भरता हूं। मैं तो एडवायजरी बनाने वालों से भी निवेदन करता हूं कि वे ऐसे ‘दोष’ सहन करते रहें। क्योंकि बुर्जुगों के अनुभव और नई सोच का समन्वय कहीं न कहीं तो भाषा का हितकारक ही होगा। </div>
<div style="text-align: justify;">
हां, नवनीतजी, मेरे एडवायजरी में जाने से क्या लाभ-नुकसान हुआ, यह आप ही बताइगा। क्योंकि आपकी जबान कहूं तो मुझे नुकसान दीखते नहंी और लाभ गिनाकर मेरे काम को मैं छोटा नहीं करना चाहता। हां, आप बता सकते हैं और में प्रत्युत्तर के लिए सदैव तत्पर हूं। आपके शार्गिदों की तरह मांद में नहीं छिपने वाला।</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>एडवायजरी मेंबर की हैसियत से मेरे सभी काम हुए, ऐसा नहीं। कुछ पर सहमति नहीं बनी। जिन पर सहमति नहीं बनी, उनके मैंने चूरू आकर अपने संसाधनों से पूरा किया। पूरा दमखम झोंककर।</div>
<div style="text-align: justify;">
रही बात युवा पुरस्कार की- आपको शायद ध्यान नहीं है कि राजस्थानी में पहला युवा पुरस्कार मेरे ही प्रयास से कमला गोइन्का फाउण्डेशन, मुम्बई ने शुरू किया। फाउण्डेशन मेरी व्यक्तिशः कुछ मदद करना चाहता था। तब मैंने उन्हें यह सुझाव दिया कि मुझे तो आप सहयोग दे देंगे परंतु राजस्थानी में जो दूसरे युवा काम कर रहे हैं उनको कौन सहयोग देगा? तब उन्होंने हामी भरी और श्री किशोर कल्पनाकांत का नाम जैसे ही मैनंे उनको सुझाया, युवा पुरस्कार शुरू हो गया। इस सारी प्रक्रिया के मेरे पास लिखित दस्तावेज हैं। आप चाहें तो देख सकते हैं। यह पुरस्कार 2007 में श्री उम्मेद धानियां, 2009 में श्री मदन गोपाल लढा, 2011 में सुश्री कीर्ति परिहार को मिल चुका है और अब 2013 के अक्टूबर में एक और युवा को मिलने जा रहा है। 2013 के पुरस्कार का एक निर्णायक में भी था।</div>
<div style="text-align: justify;">
किशोर कल्पनाकांत युवा पुरस्कार के बाद फतेहपुर शेखावाटी के धानुका सेवा ट्रस्ट ने मेरे ही निवेदन पर युवा पुरस्कार शुरू किया, जोकि श्री देवकरण जोशी, कुमार अजय, सतीश छींपा सहित मुझको भी मिल चुका है। दोनों समारोह में आपके ‘आका’ आए हुए हैं, उनसे पूछ सकते हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष श्री सुनील गंगोपाध्यायजी के यहां युवा पुरस्कार के संबंध में हम कई दफा गये। आप जब जानेंगे तब महसूस करेंगे कि श्री चंद्रप्रकाश देवल की भूमिका अगर वहां नहीं होती तो युवा पुरस्कार प्रारंभ पता नहीं होता कि नही भी होतां? </div>
<div style="text-align: justify;">
साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली की पहल के बाद हमारी अकादमियां जांगी और उदयपुर तथा बीकानेर से युवा पुरस्कार शुरू हुए। परंतु, दुर्भाग्य आयु और जाति निर्धारण का वहां विवादित साया रहा। </div>
<div style="text-align: justify;">
मैं तो अखिल भारतीय मारवाड़ी सम्मेलन, लखोटिया ट्रस्ट, राना के साथ-साथ दो-चार और प्रवासियों के निरंतर संपर्क में हूं। आपको जल्दी ही राजस्थानी में कई युवा पुरस्कार और देखने को मिलेंगे। हमारी भाषा में अब युवा पुरस्कार की कितनी अहमियत है, यह भी बताऊंगा।</div>
<div style="text-align: justify;">
हां, मेरा सौभाग्य है कि पहली दफा साहित्य अकादेमी युवा पुरस्कार मुझे मिला। पुरस्कार ज्यूरी में श्री नंद भारद्वाज, कुंदन माली, कमल रंगा थे। प्रक्रिया में श्री ओम नागर, मदन गोपाल लढा, विनोद स्वामी, दुलाराम सहारण थे। ज्यूरी ने सर्वसम्मति से फैसला मेरे पक्ष में किया। लिखित दस्तावेजों के बहाने यह सारी बातें सार्वजनिक है। फिर भी आप मानते हैं कि गलत हुआ? तो आपकी बात के मायने निकाले जा सकते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
फिर तो आप इस बात के मायने भी साथ में जोडि़एगा कि साहित्य अकादेमी के बाल साहित्य पुरस्कार प्रक्रिया में मेरी पुस्तकें लगातार तीन साल ज्यूरी के सामने जाती रही। फिर भी पुरस्कार नहीं मिला। क्या कारण रहा? बताएंगे तो मेहरबानी होगी।</div>
<div style="text-align: justify;">
हां, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली की पारदर्शिता देखिएगा- अकादेमी की ज्यूरी पुरस्कार के साथ् ही ‘पुरस्कार गत’ घोषित की जाती है। अपनी राज्य अकादमी की तरह सूचीगत नहीं। इस बहस से पहले हम राज्य अकादमी से यह भी मांग कर रहे थे कि पुरस्कारगत अकादमी निर्णायक बताए ताकि वे गलत निर्णय करते हैं तो कटघरे में आएं। तय मानिए कि निर्णायकों को अगर सार्वजनिक होने का आभास होगा तो ऐसे में वे अकादमी अध्यक्ष का दबाव सहन नहीं करेंगे। </div>
<div style="text-align: justify;">
इसी संदर्भ में आपको स्मरण करवा दूं कि ‘रावत सारस्वत साहित्य पुरस्कार’ कभी हम दिया करते थे (2009 में कमला गोइन्का फाउण्डेशन द्वारा ‘रावत सारस्वत पत्रकारिता सम्मान’ शुरू करने तक।) तब हम उस पुरस्कार के तीनों निर्णायकों के निर्णय पत्रक की छायाप्रति निर्णय के साथ भेजते थे। किसी से पूछ लीजिएगा। लाभ यह था कि निर्णायकों को पता रहता था कि निर्णय पत्रक सार्वजनिक होंगे और ऐसे में आयोजक संस्थान निर्णायकों से सही निर्णय पाता था। आप बताइए राज्य अकादमी ऐसा क्यों नहीं कर सकती? राज्य अकादमी कार्यसमिति के सदस्यों को प्रत्येक पुरस्कार में एक-एक निर्णायक की हैसियत से क्यों घुसेड़ती है? और एक निर्णायक के एकतरफा अंकों का निर्णय में क्या महत्त्व होता है, आप जानते हैं। अकादमी को अगर ऐसा ही करना है तो लेखकों से किताब न मंगावाए और जिसको पुरस्कार देना है वह कार्यसमिति को बैठक करके सर्वसम्मति से घोषित कर दे। जैसा कि हमारा प्रयास संस्थान ‘घासीराम वर्मा साहित्य पुरस्कार’ में करता है- बिना पुस्तक मंगाए, अपने-अपने सुझाव के बाद किसी एक रचनाकार का नाम तय। नुकसान कहां है? क्यों प्रविष्ठियां मांगने का नाटक करती है राज्य अकादमी?</div>
<div style="text-align: justify;">
हां, आपने मुझ पर यह व्यंग्योक्ति की- (चूंकि ये राजनैतिक पृष्ठभूमि से साहित्य के मैदान में आए हैं, इन से ऐसी अपेक्षा करना कोई आश्चर्य नहीं।)</div>
<div style="text-align: justify;">
नवनीतजी, मैंने फेसबुक पर आपको पहले भी कई दफा कहा है कि कुछ लिखने से पहले तथ्य को जांच लिया करें। इससे आपकी हास्यास्पद स्थिति नहीं बनती। आप वक्त-वक्त पर ऐसी हास्यास्पद स्थिति बनाकर चर्चाओं से दूर भाग जाते हैं। अब आग्रह है कि आप मेरे ब्लाॅग या वेबसाइट देखें। आपकी झूठ भरी यह व्यंग्योक्ति सामने आ जाएगी। नवनीत भाई, नवीं कक्षा में पढते थे तब राजस्थान पत्रिका समूह की ‘बालहंस’ में हमारी पहली रचना छपी थी। बी.ए. के दिनों में (तबतक छात्रसंघ महासचिव भी नहीं बना था) राज्य अकादमी ने महाविद्यालय स्तरीय पुरस्कार दिया था, उस वक्त राज्य के भैरोसिंहजी शेखावत मुख्यमंत्री थे। बाद में छात्रसंघ महासचिव बना और फिर अध्यक्ष। बाद में राजनीति के मार्ग। </div>
<div style="text-align: justify;">
हां, राजनीति के साथ साहित्य कोई गुनाह है तो आप लक्ष्मीकुमारी चूंडावत, रेंवतदान चारण सहित बहुत सारे नाम हटा दीजिएगा अपनी सूची से, और इनमें से मौजूद लोग अगर कुछ भी कहें तो उनकी बातों को गंभीरता से मत लीजिएगा!!</div>
<div style="text-align: justify;">
अब राजस्थानी युवाओं की बात- राजस्थानी युवाओं की बात करेंगे तो बड़ी पीड़ा के साथ कहना पड़ रहा है कि राजस्थानी में पांच से सात के बीच ही सक्रिय युवा रचनाकार हैं, जिनको क्रमशः युवा पुरस्कार दिया जाना अकादमियों की मजबूरी होगी। अगर ऐसे ही हालात रहे तो अकादमियों समेत सभी संस्थाओं को अपने युवा पुरस्कार बंद करने पड़ेगे। मैंने पूर्व में जिक्र किया कि इस बार के किशोर कल्पनाकांत युवा पुरस्कार का एक निर्णायक मैं भी था। (निर्णय घोषित हो चुका है तब बता रहा हूं)। इस पुरस्कार में 35 वर्ष से कम के युवा की पांडुलिपि पर पुरस्कार दिया जाता है। आपको पीड़ा होगी कि नहीं परंतु हरएक राजस्थानी शुभचिंतक को यह जानकर पीड़ा होगी कि वहां सिर्फ और सिर्फ एक ही पांडुलिपि आई। कहां तैयार हो रहे हैं राजस्थानी लेखन में युवा? </div>
<div style="text-align: justify;">
फाउण्डेशन ने कहा यह तो पुरस्कार प्रक्रिया ही नहीं हुई। या तो इस बार पुरस्कार किसी को नहीं दें या फिर हमेशा-हमेशा के लिए बंद कर दें, क्योंकि हालत ऐसे ही रहने हैं। हमारे बड़े निवेदन के बाद उस एक मात्र प्रविष्टि पर पुरस्कार घोषित किया गया है। </div>
<div style="text-align: justify;">
मुझ पर कुछ कहने से पहले 2015 के उक्त आगामी पुरस्कार तक पांच-सात युवाओं की पांडुलिपियां तैयार करवाइएगा, ताकि राजस्थानी का भविष्य सुरक्षित हाथों में जाए। युवा तैयार हों।</div>
<div style="text-align: justify;">
आगे चलकर साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली तथा राज्य अकादमी में यही हालात होंगे। राजस्थानी के संदर्भ में। देखते रहना। पांच से ज्यादा प्रविष्ठियां या नाम नहीं दीख रहे हमें तो। प्रविष्ठियों के सबूत गवाह हैं। तय मानिए, सबको मिलेगा बारी-बारी युवा पुरस्कार। ऐसी स्थितियों थी तब ही तो मैंने नीरज दइया और राज्य अकादमी के प्रकाशन उपक्रम ‘मंडाण’ की जी खोलकर प्रशंसा की थी। बहुत जरूरत है ऐसे प्रयासों कीं। अकादमी बहुत कुछ कर सकती है। हां, उसे भेदभाव मुक्त और अपने-पराये के मोह से दूर होना पड़ेगा।</div>
<div style="text-align: justify;">
हमारी क्षमता हमारे अंचल तक थी। हमें कहते हुए खुशी है कि आने वाले समय में चूरू से 10-15 ऐसे नाम राजस्थानी साहित्यिक समाज को दीखेगें, जो अब तैयार हो रहे हैं तथा कुछ ही समय में उनके जाने-पहचाने होंगे। क्या ऐसा प्रत्येक इलाके में नहीं हो सकता? परंतु, करे कौन? फेसबुक और ब्लाॅग पर बहस के बाद घर....। समय ही कहां होता है युवाओं की रचनाओं को सुधारने का, उनकी भाषाई समझ विकसित करने का? मुबारक आपको....।</div>
<div style="text-align: justify;">
हां, बीच में एक बात आपसे पूछ ही लूं। श्वसुर, दामाद, सरस्वती मानस पुत्र की शब्दावली आपकी ही है क्या? आपकी ही है तो फिर <b>यह बताते चलिए कि साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली से आपको महाश्वेता देवी (1084 की मां) और केदारनाथ अग्रवाल (अपूर्वा) की रचनाओं के अनुवाद कार्य किसने दिलवाए? </b></div>
<div style="text-align: justify;">
हां, अगर अनुवादक रचनाकार होने या कहलवाने से आपको परहेज है तो फिर ऐसे स्वयं के प्रस्ताव आप अकादमियों के पास क्यों भेजते रहे? अनुवाद कार्य वह भी छंदयुक्त करने का मादा नहीं है तो मालचंद तिवाड़ी का गीतांजलि अनुवाद उठाकर देख लीजिएगा। </div>
<div style="text-align: justify;">
हां, साहित्य अकादेमी के पुरस्कार वंचितों की सूची आपने बड़ी ही मेहनत से बनाई है। बधाई। कुछ नाम तो अति मोह के कारण दो बार भी आ गए। यह आपका कसूर नहीं? मरते वक्त आदमी अपने इष्ट का ही बार-बार स्मरण करता है!!</div>
<div style="text-align: justify;">
भाई, सूची के बहाने मुद्दे को भटकाना पुरानी कला है। परंतु इसी कला के बीच आपसे भी सवाल करना वाजिब है। अबतक साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली से जिनको पुरस्कार मिले, उनकी सूची यह है-</div>
<div style="text-align: justify;">
श्री विजयदान देथा, मणि मधुकर, कन्हैयालाल सेठिया, सत्यप्रकाश जोशी, अन्नाराम सुदामा, चन्द्रप्रकाश देवल, रामेश्वरदयाल श्रीमाली, नारायणसिंह भाटी, मूलचंद प्राणेश, मोहन आलोक, सुमेरसिंह शेखावत, सांवर दइया, महावीर प्रसाद जोशी, नैनमल जैन, भगवतीलाल व्यास, यादवेन्द्र शर्मा चंद्र, रेवंतदान चारण, प्रेमजी प्रेम, अर्जुनदेव चारण, नृसिंह राजपुरोहित, करणीदान बारहठ, किशोर कल्पनाकांत, नेमनारायण जोशी, मालचंद तिवाड़ी, शांति भारद्वाज राकेश, वासु आचार्य, ज्योतिपुंज, अब्दुल वहीद कमल, भरत ओळा, संतोष मायामोहन, नंद भारद्वाज, चेतन स्वामी, लक्ष्मीनारायण रंगा, कुंदन माली, दिनेश पंचाल, रतन जांगिड़, मंगत बादल, अतुल कनक, आईदान सिंह भाटी।</div>
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नवनीतजी, अब बताइएगा आपकी सूची वाले वंचित नामों में से कौनसा नाम किसकी जगह होना चाहिए था? मतलब किसको अवार्ड न मिलकर किसको दिया जाना चाहिए था? क्या पुरस्कार प्राप्तकर्ताओं की यह सूची आप पूरी की पूरी खारिज कर रहे हैं? या संशोधन चाह रहे हैं? खारिज तो कैसे? और संशोधन तो कौनसे, मतलब किसकी जगह कौन? </div>
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हम आपके इस प्रत्युत्तर की बेसब्री में है। </div>
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अब सवाल आपके सोच में अंतिम स्थान पर और हमारी सोच में पहले स्थान वाली बात पर-</div>
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हम तो बेबाकी से कह रहे हैं कि किसी भी भारतीय भाषा के सरकारी संस्थान के पास ऐसा उदाहरण नहीं होगा जैसा कि राजस्थान राज्य अकादमी के पास बिज्जी के बहाने है। नोबल नामांकित किसी भी भाषा का साहित्यकार अपने ही गृह राज्य की संस्था द्वारा सिरे से खारिज? मतलब अकादमी की स्थापना सन् 1983 से लेकर अब तक 200 से अधिक लोगों को पुरस्कार-सम्मान दिया जाना, और नोबल नामांकित, पद्मश्री सम्मानित बिज्जी का नाम ही नही आनां? आपको इसमें ‘दीन-हीन की तरह प्रस्तुत करना’ लगता है तो आपको पाकर राजस्थानी समाज धन्य है!! </div>
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राज्य अकादमी द्वारा बिज्जी की अवहेलना होना पूरा भारतीय साहित्यिक समाज देख-महसूस रहा है। समय ही तय करेगा। </div>
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मित्रों से आग्रह है कि इस जरूरी बहस को आगे बढाएं ताकि अकादमियों की दशा सुधर सके। रही बात, विवादित करने की- काम करने वालों पर लांछन लगते ही हैं। आजादी पाने वालों को देशद्रोह के मुकदमों में जेल जाना पड़ता ही है। परंतु समय उनका मूल्यांकन करता है। चुप रहने वालों का भी समय इतिहास लिखता है। </div>
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यह अकादमी परिवेश में दासता के वातावरण से मुक्ति के साथ-साथ वेद-मुक्ति का आंदोलन भी है। </div>
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यह सार्वकालिक है कि जातिवादी, गिरोहवादी अध्यक्षों की ओर से कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी अपने कुतर्क रखते हैं तथा खिलाफ बोलने वालों को व्यक्तिगत आरोपों के घेरे में लेते रहे हैं, भले ही वह राजनीतिक दल हों या फिर साहित्यिक दल। तो ऐसे में डरना क्या?</div>
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मुझे डर नही, तब ही तो बात के प्रारंभ में मैंने इसे ‘स्वस्थ बहस की शुरूआत’ कहा। मैं बात के रूप में और दस्तावेज के रूप में- सही कहने के लिए तैयार हूं। हो, बहस का सार्वजनिक मंचन!! अकादमी इतर माध्यम से नहीं, खुद खुलकर आए जवाब में? हां, बात तथ्ययुक्त हों, जिन्हें दस्तावेजों से भी साबित किया जा सके। नवनीतजी की भांति ‘गोडै घड़ेड़ी’’ नहीं हों। एक सज्जन ने कहां, किसी ने कहा, उसने कहा, विश्वस्त सूत्र के हवाले से, लोगों में चर्चा है आदि-आदि जुमले नहीं होने चाहिए।</div>
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स्वागत होगा अकादमी का......।।</div>
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-दूलाराम सहारण</div>
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नवनीत पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/14332214678554614545noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4402945881693099939.post-76850295735766804152013-08-18T05:17:00.001-07:002013-08-20T06:46:08.743-07:00तो असल बात और पीड़ाएं ये हैं (संदर्भ राजस्थानी साहित्य अकादमी पुरस्कार विवाद)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<b>तो असल बात और पीड़ाएं ये हैं</b> (संदर्भ राजस्थानी साहित्य अकादमी पुरस्कार विवाद)</div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span><b><span style="color: red;">"कुछ नहीं, यह उन चंद लोगों की हताशा, निराशा है जिनके स्वार्थ, हितों की मंशा और मंसूबे अपनी झोलियां भर लेने के बाद भी और बहुत कुछ बटोर लेने के बाद भी आधे- अधूरे रह गए लगते हैं, यह राजस्थान साहित्य जगत और राजस्थानी रचनाकारों को शर्मसार करनेवाली वैचारिक निम्नता है और इसे जातीयता का रंग देना तो उस शब्द के साथ कृतघ्नता भी जिसके रचाव का ऎसे लोग प्रगतिशील होने का दम भरते हैं। </span></b></div>
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<b><span style="color: red;"> लगभग बीस बरसों केंद्रीय साहित्य अकादमी में काबिज़ श्वसुर, दामाद और उनके सरस्वती मानस पुत्र (जिनके लेखन के बारे में उनके घनिष्टतम साहित्यकार मित्र ने भरे मंच से कहा था ’इनका पता ही नहीं चलता ये किस भाषा के लेखक हैं और उन्हें अनुवादक रचनाकार के तमगे से नवाज़ा था) व उनकी सरपरस्ती में पलनेवालों की वर्चस्वता, सत्ता हाथ से निकल जाना उस समय ये नैतिकताएं, ईमानदारियां कहां थी जब इनके काल में (1) ऎसे राजस्थानी साहित्यकार अचानक अवतरित किए जिनकी जानकारी राजस्थानी साहित्य जगत और राजस्थानी के लेखकों को केंद्रीय साहित्य अकादमी से उस लेखक के नाम पुरस्कार घोषित होने पर ही पता चला.. सब ने आश्चर्य किया था..अरे! ये राजस्थानी के लेखक हैं, पहले कभी देखा- सुना तो नहीं। (2) ऎसी कृति को पुस्कार दिया गया जो एक वर्ष तो उस विधा में निर्णायक मंडल द्वारा उस विधा में खारिज़ कर दी गई लेकिन दूसरे वर्ष चूंकि कृति को नहीं, कृतिकार को पुरस्कृत करना था, उसी कृति को उसी विधा में पुरस्कार दिला दिया गया|"</span></b></div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जिन वरिष्ठ और युवा प्रतिभावान, योग्य रचनाकारों के चित्र दूलाराम सहारण पुरस्कार वंचितों का डॉयलॉग लगा फ़ेसबुक पर चस्पां कर राजनीतिज्ञों की तरह भावनात्मक सुहानुभूति बटोरने की कुचेष्टा कर रहे हैं, (चूंकि ये राजनैतिक पृष्ठभूमि से साहित्य के मैदान में आए हैं, इन से ऎसी अपेक्षा करना कोई आश्चर्य नहीं) ये प्रतिभाएं आज पैदा नहीं हुई, ये उस वक्त भी थीं, जब केंद्रीय साहित्य अकादमी में आप राजस्थानी के प्रतिनिधि थे तब आप के ये सच कहां थे, ये ईमानदारीयां और नैतिकताएं कहां छुपी थीं...राजस्थानी में कहावत है पूत के पग पालने दिखते हैं सो दूलाराम जी की अप्रतिम, विलक्षण प्रतिभा को केंद्रीय साहित्य अकादमी में दामाद, सरस्वती मानस पुत्र ने तुरंत पहचानते हुए मात्र एक महाविद्यालयी पुरस्कार की बिना पर उन्हें बरसों से राजस्थानी कलम घिस रहे राजस्थानी रचनाकारों पर वरीयता देते हुए न केवल राजस्थानी परामर्श मंडल में स्थान दिया, राजस्थानी भाषा का पहला युवा पुरस्कार भी झोली में डाल कर इतिहास रच दिया। धन्य आपकी नैतिकताएं! धन्य आपकी ईमानदारियां!<br />
समय परिवर्तनशील है, और एक स्वस्थ मन को इसे सहज भाव से स्वीकारने में कभी कोई संकोच, मलाल नहीं होना चाहिए.. ये सारी विकृतियां तभी उजागर होती हैं या की जाती है जब आप इसे स्वीकार नहीं करते। बीस- पच्चीस बरसों तक राजस्थानी साहित्य में केंद्रीय साहित्य में जो होता रहा है, राजस्थानी में कलम चलानेवाले इससे अनजान नहीं है। जो हुआ, सब ने देखा है, जब- तब अपना विरोध भी जताया है और अब और आगे भी कुछ गलत होगा तो सच्ची कलम चुप नहीं रहनेवाली..पर ऎसे, इस निम्नता और मर्यादाएं लांघने की हद तक तो कतई नहीं... <b>पुरस्कारों से कोई लेखक नहीं बनता, बनाता वरन अधिकतर तो यही देखा गया है कि पुरस्कारों नें लेखन का क्षरण ही किया है </b>इसलिए ऎसे मामलों को वही लोग तूल देते हैं और गंभीरता से लेते हैं जिनके कुछ न कुछ हित, स्वार्थ पूरे होने से रह जाते हैं या सिध्द होने के बावजूद पेट नहीं भरते हैं। सच्चा रचनाकार तो अपने रचनाकर्म में ही रमा रहता है, पुरस्कारों-सम्मानों की राजनैतिक और सैंटिगों से एकदम अनजान और परे। मिल गया तो वाह! नहीं मिला तो वाह! हां, पुरस्कारों- सम्मानों के सच, कहानियां सामने आने पर अचंभित होते हुए दुख जरूर महसूस करता है शब्द और शब्दकारों के चरित्र में होते ये क्षरण देख..अरे! ऎसा भी होता है! ऎसा कैसे हो गया?<br />
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>ये उदगार मेरे नहीं राजस्थान के विभिन्न रचनाकारों से हुई सत्रों के बीच हुई अनौपचारिक बातचीत- चर्चा में थे जो राजस्थानी लोक साहित्य और संस्कृति पर केंद्रीय दो दिवसीय अकादमिक आयोजन में बीकानेर आए थे। अधिकतर वरिष्ठ रचनाकार सोशल मीडीया से जुड़े नहीं हैं लेकिन मीडीया जुड़े लेखकों से उन्हें समाचार सारे मिल रहे हैं और वे आश्चर्य चकित हैं.और इस सारी कहानी और प्रकरण पर एक वरीष्ठ रचनाकार ने हंसते हुए बहुत ही कम शब्दों में एक राजस्थानी और एक हिन्दी कहावत में चुटकी ली, आप व्यासजी बैंगण खावै, दूजां परहेज बतावै... नौ सौ चूहे खा के बिल्ली हज़ को चली.....</div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>पुरस्कार विवाद में फ़ेसबुक पर झूठी वाह-वाही लूटनेवाले और शब्द की गरिमा से खेलनेवाले और उसे जातिवादी रंग देनेवाले और केंद्रीय साहित्य अकादमी लगभग बीस- बाइस बरसों से राजस्थानी की ठेकेदारी संभाले हुए बताएं कि सन 1974 से 2012 तक के 39 उनतालीस बरसों में उन्होंने कितने सर्वहारा वर्ग के रचनाकारों को सम्मानित कराया.. इस सूची में सिर्फ़ एक अल्प संख्यक है और दलित तो एक भी नहीं जब आप एक अंगुली किसी दूसरे की ओर उठाते हैं बाकी अंगुलियों की दिशा देख लीजिया कीजिए। आप फ़ेसबुक पर जैसी सूचीयां जारी कर रहे हैं, उससे भी खतरनाक सूचीयां केंद्रीय साहित्य अकादमी द्वारा अनादरित उन महान विभूतियों की है जहां राजस्थानी के नाम पर अपनी रोटीयां सेंकने वालों द्वारा अधिकतर उन्हें दुशाले ओढाए जाते रहे हैं जो इन अनादरित व वंचित महान विभूतियों के कद के समक्ष कहीं नहीं ठहरते थे, क्यों कि सब अंदर के मामले थे। </div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiSFPye_AWyC5rbzMW-sEJlluB2ZrRlEd37spHKRIjxV9gu-4-PLIny7s1bBAET7D2q1JYBSNbA010hp6kg6b_rpjwdZaOuYcZx0Nc2tflwWoJBrSkZtaZDnqp65z29vKSfLeQXxNXsMkc/s1600/00000000000000000000.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; display: inline !important; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" height="309" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiSFPye_AWyC5rbzMW-sEJlluB2ZrRlEd37spHKRIjxV9gu-4-PLIny7s1bBAET7D2q1JYBSNbA010hp6kg6b_rpjwdZaOuYcZx0Nc2tflwWoJBrSkZtaZDnqp65z29vKSfLeQXxNXsMkc/s350/00000000000000000000.JPG" width="400" /></a> राजस्थानी के इन सिरमौर रचनाकारों पर नज़रें इनायत नहीं हो सकी सिर्फ़ इसलिए कि वे दरबारी नहीं बने और न ही कभी इसकी जरूरत समझी क्योंकि इनका लेखन सब पुरस्कारों से बड़ा था और है।<br />
बरसों से सृजनरत राजस्थानी के ये वरिष्ठ रचनाकार पिछले बीस बरसों से केंद्रीय साहित्य अकादमी में राजस्थानी के कोकस से सैटिंग, समीकरण न बैठा पाने का फ़ल भुगत रहे हैं सबसे पहले लक्ष्मीकुमारी चूड़ावत (1984 में पदमश्री व अभी हाल ही में राजस्थान रत्न से सम्मानित), बैजनाथ पंवार, जहूर खां मेहर, रामस्वरूप किसान, मीठेश निर्मोही, भंवरलाल’भ्रमर’, ओम पुरोहित ’कागद’, पारस अरोड़ा, अस्त अली मलकान, माधव नागदा, श्याम जांगिड़, नागराज शर्मा, ओंकार श्री, तेजसिंह जोधा, भवानीशंकर व्यास’विनोद’, राम निवास शर्मा, कैलाश मंडेला, अंबिकादत्त, डा. किरण नाहटा, मदन केवलिया, हनुमान दीक्षित, देवकिशन राजपुरोहित, डा. मदन सैनी, बुलाकी शर्मा, बी.एल.माळी’अशांत’, कानदान कल्पित, डा.सत्यनारायण सोनी, ज़ेबा रशीद, मेहरचंद धामू, डा.नीरज दइया, रवि पुरोहित, <span style="text-align: left;">दुष्यंत, डा. राजेश कुमार व्यास, मधुकर गौड़, मनोज स्वामी, श्रीभगवान सैनी, पूरन शर्मा ’पूर्ण’, श्रीलाल जोशी, सूरजसिंह पंवार, पुष्पलता कश्यप, चांदकौर जोशी, शारदा कृष्ण, लीला मोदी के अलावा भी बहुत से ऎसे नाम हैं जिन्हें दुलाराम जी के शब्दों में कहें तो पुरस्कार के बिना भी इनकी लेखकीय ऊर्जा से राजस्थानी के पाठक अच्छी तरह से परिचित हैं।</span><br />
<span style="text-align: left;"><br /></span></div>
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यहां उन विलक्षण प्रतिभाओं का जिक्र भी प्रासंगिक होगा जो केंद्रीय अकादमी के पुरस्कारों से ही अवतरित हुईं जिन में से कुछ के लेखक होने का पता तो उनके नाम पुरस्कार घोषणा से ही चला और कुछ की ऎसी कोई राजस्थानी कृति ही नहीं थी जिसका कि उल्लेख किया जा सके।<br />
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वे जो उपेक्षा और प्रतीक्षा में दिवंगत हो गए..<br />
जनकवि हरीश भादानी, नानूराम संस्कर्ता, मोहम्मद सदीक, धनंजय वर्मा, निर्मोही व्यास, कन्हैयालाल भाटी, दुर्गेश आदि<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjLWjNfnjX0p_CAcQeBK-j7PsYlaju46gPNlFve0GPBiH4JjaYQczhi758o7BK6aHnjXoePq8tRMtV_RiyBUiCy5Ycr3fmZ1TdnuFs3zh5VGB9cs-zU-3Zp_aUlMqRiBxkljpyCgFaHJT0/s1600/vijaydan1-2_280-1_050613060601.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjLWjNfnjX0p_CAcQeBK-j7PsYlaju46gPNlFve0GPBiH4JjaYQczhi758o7BK6aHnjXoePq8tRMtV_RiyBUiCy5Ycr3fmZ1TdnuFs3zh5VGB9cs-zU-3Zp_aUlMqRiBxkljpyCgFaHJT0/s640/vijaydan1-2_280-1_050613060601.jpg" width="540" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
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और अंत में एक मित्रवत आग्रह - </div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;">
परम आदरणीय पद्मश्री, राजस्थान रत्न श्री विजयदान देथा हमारे राजस्थान और राजस्थानी के ही नहीं अपितु पूरे राष्ट्र के साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहर हैं अपने स्वर्णिम समय में उन्होंने जो किया, जैसे किया उसे किनारे रख दें तब भी यह सच है कि उन्होंने अपनी अप्रतिम भाषा, शिल्प और शैली में संपूर्ण राजस्थान के विभिन्न अंचलों में अपनी मेहनत और जीवटता से राजस्थानी लोक कथा संग्रह का ऎतिहासिक कार्य किया है जो कि हर नए राजस्थानी युवा हस्ताक्षर के लिए मिसाल ही नहीं, प्रेरणा स्रोत भी रहेगा, आज साहित्य में लेखकों की बाढ और पाठकों का अकाल का संकट समय है और एक- रचना लिख मारने के बाद आत्ममुग्ध हुआ जा रहा है। बिज्जी एक उदाहरण हैं.. ऎसे व्यक्तित्व को इस तरह, इतना दीन-हीन की तरह प्रस्तुत करना निंदनीय और सर्वथा बिज्जी के उस स्वभाव के विपरीत है जिससे उन्हें जानने व पढनेवाले भलीभांति परिचित हैं। शेर बुढा जाने पर भी शेर ही होता है। अस्तु! </div>
<br /></div>
</div>
नवनीत पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/14332214678554614545noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4402945881693099939.post-63313907563080310382013-05-06T20:46:00.000-07:002013-05-06T20:46:08.906-07:00 साहित्य के पूँजीवाद से कब लड़ेंगे ? - गणेश पाण्डेय<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhpq0dbNXqn_7_pYSj3G3noeC7F-gIrIWD4vulF3-WAAj-tswFUl1Bqqtjao9EYcBfr0QQJbrtGGaT0QQY9Hf4w8ZRsZrS0wHsj9HBIVJwJn4u7UFr5smEEikWAXnQXz_1Cc5geDVFDwWQ/s1600/ganesh+pandey.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhpq0dbNXqn_7_pYSj3G3noeC7F-gIrIWD4vulF3-WAAj-tswFUl1Bqqtjao9EYcBfr0QQJbrtGGaT0QQY9Hf4w8ZRsZrS0wHsj9HBIVJwJn4u7UFr5smEEikWAXnQXz_1Cc5geDVFDwWQ/s200/ganesh+pandey.jpg" width="150" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<span style="background-color: white;"></span><br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #1c2a47; font-family: lucida grande, tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><span style="line-height: 20px;"><b>उफ़! बेचारे अज्ञेय... सोचिए जरा.. उस अनंत विलीन में क्या सोच रहे होंगे? अपने शिष्यों और विरोधियों के बीच छिड़ी इस छिछालेदरी महाभारत पर.. अज्ञेय सीआईए बनाम.. जैसे एक अघोषित मुकदमा हिन्दी साहित्य व वादों के ठेकेदारी हलकों में बिना मुलजिम इल्ज़ाम लगा तथाकथित वकीलों द्वारा लड़ा जा रहा है और सफ़ाइयां दी जा रही हैं यह भूलकर कि बिना किसी वाद- विवाद एक लेखक होने के नाते एक लेखक के रूप में अज्ञेय जैसे लेखक की वह भी उनके जाने के इतने बरस बाद यूं कुत्ता घसीटी करना शब्द-साधकों के लिए शर्मनाक तो है ही साथ ही विचारणीय भी। हम भी लेखक हैं.. कहीं न कहीं किसी न किसी हित- अहित के साक्षी- सहभागी और कभी- कभी निर्णायक भी होते ही रहते हैं। जैसे आज अज्ञेय के गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं वैसे कल कोई हमारे भी उखाड़े ही गा। मेरे लेखक मित्रो! हमाम में हम सब नंगे हैं। इसलिए मैं तो कहना चाहूंगा अगर आप में स्वस्थ बहस और शालीन भाषा प्रयोग में लाने का माद्दा नहीं तो ऎसे प्रकरणों को समाप्त कर दिए जाने में कोई हर्ज़ बुराई नहीं है ऎसा न हो कि कल हमें हमारे लेखक होने पर शर्म आए। </b></span></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #1c2a47; font-family: lucida grande, tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><span style="line-height: 20px;"><b><br /></b></span></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #1c2a47; font-family: lucida grande, tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><span style="line-height: 20px;"><b><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इस विषय पर आलोचना संज्ञान लेते हुए कवि, कथाकार, आलोचक गणेश पाण्डेय जी ने अपने फ़ेसबुक स्टेट्स में एक बहुत महत्त्वपूर्ण नोट लिखा है जिसमें उन्होंने जो तर्कसंगत मुद्दे उठाए हैं, उन पर हमारे शब्द समाज को गंभीरता से विचार- मंथन कर यह जांचने की जरूरत है कि हम क्या थे, क्या हैं और क्या होंगे अभी? वह नोट बीच बहस के पाठकों के लिए.... (साभार- गणेश पाण्डेय)</b></span></span></div>
<div style="color: #1c2a47; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 16px; font-weight: bold; line-height: 20px; text-align: justify;">
<br /></div>
<br />
<br />
<span style="background-color: white; color: #1c2a47; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 16px; font-weight: bold; line-height: 20px;">साहित्य के पूँजीवाद से कब लड़ेंगे ? - गणेश पाण्डेय</span><br />
<span style="background-color: white; color: #1c2a47; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 16px; font-weight: bold; line-height: 20px;"><br /></span>
<span style="background-color: white; line-height: 20px;"><span style="color: #1c2a47; font-family: lucida grande, tahoma, verdana, arial, sans-serif;"></span></span><br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #1c2a47; font-family: lucida grande, tahoma, verdana, arial, sans-serif;">युवामित्रो द्वारा की जा रही एक अखबार के संपादकजी की तीव्र आलोचना ने ध्यान खींचा है। युवा मित्रों के हौसले के साथ हूँ। युवा ही नहीं बल्कि कुछ वरिष्ठ मित्र भी संपादकजी से असहमत हैं। एक मित्र ने अपनी पीड़ा को जरा तल्ख लहजे में रघुवीर सहाय के मुहावरे से ठीक ही कहा कि ऐसे ही रहा तो अमुक अखबार बच्चों के नम्बर दो के लायक रह जाएगा। एक युवामित्र ने कहा कि जैसे रोम के जलने पर वहाँ का शासक वंशी बजा रहा था, संपादकजी भी अपनी वंशी में लीन हैं। पता नहीं धुन में या वंशी में या दोनों में या किसी की याद में। एक अशोकजी हैं एक कमलेश जी हैं। ऐसे कई ‘जी’ साहित्य में सक्रिय हैं। यह ‘जी’ एक सामाजिक-सांस्कृतिक (एक अर्थ में राजनीतिक भी) संगठन के लोगों द्वारा अनिवार्य रूप से लगाया जाने वाला आदरसूचक एक विशेष पद है। संबोधन ही नही, कहीं भी उल्लेख करना हो तो रेल के इंजन की तरह श्री लगाने के बाद अंत में गार्ड के डिब्बे की तरह ‘जी’ जरूर लगता है। पर यही ‘जी’ प्रगतिशील मित्रों के हाथ लगते ही सिर्फ और सिर्फ एक औपचारिक आदर बन जाता है। जैसे नामवरजी। हृदय से सम्मान न भी करते हों तो दिखाने के लिए ही सही। हो सकता है कि बहुत से लोग संपादकजी का भी सम्मान सिर्फ दिखाने के लिए ही करते हों या इसलिए कि वे एक अखबार के संपादक हैं, इसलिए। वे संपादक न रहते तो कितने लोग किस तरह सम्मान करते, यह एक अलग विषय है। पर विनम्रतापूर्वक यह जरूर कहूँगा कि तब लोग उनके लिखे को देखकर करते। अशोकजी का न चाहते हुए भी लोग सम्मान इसलिए करते हैं कि उन्होंने बकौलखुद हजार से अधिक कविताएँ लिखी हैं, जैसे तेंदुलकर ने कई हजार रन बनाए हैं। वे एक बड़े अफसर थे, कई साहित्यिक संस्थाओं के प्रधान थे। पर क्या अपने समय के और अपने आसपास के लेखकों में उनका काम सबसे अच्छा है ? वे जितनी जगह घेरते हैं, सचमुच उतनी जगह के अधिकारी हैं ? मैं बहुत छोटा आदमी हूँ, बड़े संकोच के साथ यह कह रहा हूँ। पर जब कोई साहित्य की एक चली हुई दुकान हो जाएगा तो कुछ लोग तो उस दुकान के साथ रहेंगे ही। दरअसल साहित्य में ऐसी कई दुकानें हैं। सिर्फ अशोकजी ही क्यों , दो और भी हैं। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #1c2a47; font-family: lucida grande, tahoma, verdana, arial, sans-serif;"> कुछ लेखक संगठन भी दुकान ही हैं। जब मैं दुकान कह रहा हूँ तो उन्हें छोटा नहीं बना रहा हँू बल्कि यह कह रहा हूँ कि जैसे दुकान अपने फायदे की बात सोचती है, इसी तरह यह लोग भी अपनी दुकान के फायदे की बात सोचते हैं। साहित्य में दोनों तरफ यही दुकानदारी है। खरीदने और बेचने का काम एक जैसा चलता है। संपादकजी भी किसी दुकान के से जुड़ गये हों तो कुछ गलत नहीं। आज देश की राजनीति में ही नहीं, साहित्य के देश में भी दबंगों और गिरोहोे का बोलबाला है। वहाँ लालबत्ती है तो यहाँ भी लालबत्ती बँटती है। सारा लफड़ा ही लालबत्ती का है। आप अगर किसी गिरोह में नहीं होंगे तो आपको पूछेगा कौन ? अकेले रहने का साहस जिसके भी पास नहीं होगा, वह इसी तरह के दरबारों के रत्न और उपरत्न बनने की कोशिश करेगा। मित्रो, मैं किसी का व्यक्तिगत रूप से असम्मान नहीं कर रहा हूँ बल्कि इस खतरनाक प्रवृत्ति की ओर इशारा कर रहा हूँ। कई बार कह चुका हूँ कि यह गिरोहबंदी साहित्य के लिए नुकसानदेह है। इस गिरोहबंदी को बढ़ावा देने वाली चीजों में पुरस्कार और चर्चा है। कम काम करके भी अधिक मान-सम्मान पाने की लालसा भी पूँजीवादी सोच ही है। गैरवाम के लोग यह करें तो कह सकते हैं कि उनका रास्ता ही दूसरा है, हालांकि गलत वह भी है, पर वाम के लोग करते हैं तो हजार गुना अधिक गलत है। जब तक यह सब रहेगा तब तक एक नहीं हजार कमलेश आयेंगे-जायेंगे, हजार आजपेयी-वाजपेयी आते-जाते रहेंगे। मुद्दा सिर्फ सीआईए को मानवता के लिए जादू की छड़ी मानने का होगा या सीआईए के विरोध तक सीमित रहेगा तो साहित्य के जरूरी संघर्ष का मुद्दा कभी केंद्र में नहीं आएगा। आज साहित्य में सबसे बड़ा खतरा साहित्य के पूँजीवाद से है। पूँजीवादी संस्कृति से है। ठीक है कि आप सीआईए को मानवता के लिए वरदान मानने वालों की जमकर आलोचना करें। चोट पर चोट करें। पर यह साहित्य में कुछ बदलाव लाने वाली कोई निर्णायक लड़ाई नहीं हो सकती है। कुछ और भी सोचना होगा। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #1c2a47; font-family: lucida grande, tahoma, verdana, arial, sans-serif;"> आज बड़े-बड़े संपादकजी लोग डरते हैं कि फलाना जी नाराज हो जाएंगे, इसलिए इसके साथ न दिखो, उसके साथ न रहो, यह न करो, वह न करो या कुछ लोग विरोध वहाँ करेंगे जहाँ पुरस्कार खोने का डर नहीं होगा तो इस तरह के डर हमेशा नुकसान साहित्य का ही करेंगे। एक संपादक चाहे जितना शक्तिशाली हो जाय, यदि उसके पास साहस नहीं है तो वह दो कौड़ी का है। एक लेखक चाहे जितना शोर मचाए लेकिन उसके पास पुरस्स्कर और चर्चा के भ्रष्ट पथ को तजने का साहस नहीं है तो उसकी सारी खुद की या सांगठनिक ताकत भी दो कौड़ी की है। असल बात सिर्फ साहस का है। साहस ही शक्ति की खोज करता है, शक्ति अर्जित करता है। शक्ति से साहस नहीं पैदा होता। जोड़तोड़ और तिकड़म में लगे हुए लेखक-संपादक साहित्य की इन मुश्किलों पर ध्यान देंगे तो साहित्य का भला होगा। पर यह तब होगा जब आप अपना नहीं, साहित्य का भला करना चाहेंगे। कहना यह है संपादकजी और उनसे भिड़ने वाले मित्र अ शोकजी और क मलेशजी के विवाद से आगे बढ़े। साहित्य की जरूरी लड़ाई तक पहुँचें। साहित्य का धंधा करने वाली सभी संस्थाओं और संगठनों और लेखकों का विरोध करें। जैसे संसद में दागी लोग पहुँच जाते हैं, उसी तरह साहित्य की संसदों में दागी और फर्जी लेखक पहुँच जाते हैं। जैसे कई पत्रकार दूसरे रास्ते से संसद में पहुँच जाते हैं, उसी तरह कुछ पत्रकार भी साहित्य की संसद में पहुँचने के लिए दूसरे रास्ते का इस्तेमाल करते हैं। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #1c2a47; font-family: lucida grande, tahoma, verdana, arial, sans-serif;"> जरूरत आज इस बात की ज्यादा है कि साहित्य की सभी संस्थाओं को भ्रष्टाचार मुक्त करने, उसे अधिक लोकतांत्रिक, अधिक पारदर्शी बनाने के लिए काम करें। वैसे यह सिर्फ एक मामूली विचार है, जरूरी नहीं लोग जिस वाद-विवाद में लगें हुए हैं उससे आगे बढ़कर ऐसा कुछ सोचें या करें। मैं तो ऐसे ही कहता रहता हूँ।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #1c2a47; font-family: lucida grande, tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br /></span></div>
<div style="text-align: right;">
<span style="color: #1c2a47; font-family: lucida grande, tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><b>गणेश पाण्डेय</b></span></div>
</div>
नवनीत पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/14332214678554614545noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4402945881693099939.post-18472529737416213262013-04-12T23:12:00.001-07:002013-04-24T07:16:25.959-07:00क्रांति भी, रोना भी ,प्यार भी... -गणेश पाण्डेय<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgbTnwh_0d2uJkjxsBaXbtScW5CBr02nCYf0gnGiquCNE7QKtk1LlQIvMnR4Q_AEwgbc9kCVXvAJkA8ohmS-pvw2a9AWFfB3Y4Q99YY0fTOzb6b9Nmj92MeEp0fqToGHAEZrmGgJJXYr1A/s1600/ganesh+pandey.jpg" imageanchor="1"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgbTnwh_0d2uJkjxsBaXbtScW5CBr02nCYf0gnGiquCNE7QKtk1LlQIvMnR4Q_AEwgbc9kCVXvAJkA8ohmS-pvw2a9AWFfB3Y4Q99YY0fTOzb6b9Nmj92MeEp0fqToGHAEZrmGgJJXYr1A/s320/ganesh+pandey.jpg" width="150" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">गणेश पाण्डेय</td></tr>
</tbody></table>
<br />
<div style="background-color: #f5faff; font-family: 'arial unicode ms'; font-size: 18px; line-height: 25px; text-align: justify;">
<span style="background-color: white; font-family: 'Arial Unicode MS'; font-size: 23px; line-height: 34.5px; text-align: start;">मित्रो! बीच बहस में आज प्रस्तुत है</span><span style="background-color: white; font-family: 'Arial Unicode MS'; font-size: 23px; line-height: 34.5px; text-align: start;"> </span><span style="background-color: white; font-family: 'Arial Unicode MS'; font-size: 23px; line-height: 34.5px; text-align: start;">कवि-कथाकार, आलोचक गणेश पाण्डेय जी का फ़ेसबुक कवि-कविताओं को बारीकी से टटोलता एक विचारोत्तेजक किंतु महत्त्वपूर्ण आलोचनात्मक आलेख। उनके स्वयं के ब्लॉग पर </span><span style="background-color: white; font-family: 'Arial Unicode MS'; font-size: 23px; line-height: 34.5px; text-align: left;">यह आलेख आ चुकने के बावजूद विषय की संवेदनशीलता, सम सामयिकता और महत्त्व को देखते हुए बीच बहस में इसके पुन: प्रकाशन का मंतव्य मात्र यही कि यह अधिक से अधिक पाठकों तक पहुंच सके। दावा तो नहीं पर प्रयास तो किया ही जा सकता है।</span></div>
<div style="background-color: #f5faff; font-family: 'arial unicode ms'; font-size: 18px; line-height: 25px; text-align: justify;">
<span style="background-color: white; font-family: 'Arial Unicode MS'; font-size: 23px; line-height: 34.5px; text-align: start;">गणेश पाण्डेय जी की </span><span style="background-color: white; font-family: 'Arial Unicode MS'; font-size: 23px; line-height: 34.5px; text-align: left;"> ’</span><span style="background-color: white; font-family: 'Arial Unicode MS'; font-size: 23px; line-height: 34.5px; text-align: left;">अटा पड़ा था दुख का हाट (कविता-संग्रह), जल में (कविता-संग्रह), जापानीबुखार (कविता-संग्रह), परिणीता (कविता-संग्रह), अथ ऊदल कथा(उपन्यास), पीली पत्तियाँ(कहानी संग्रह), आठवें दशक हिन्दी कहानी(शोधग्रंथ),</span><span style="background-color: white; font-family: 'Arial Unicode MS'; font-size: 23px; line-height: 34.5px; text-align: left;"> </span><span style="background-color: white; font-family: 'Arial Unicode MS'; font-size: 23px; line-height: 34.5px; text-align: left;">रचना,आलोचना और पत्रकारिता(आलोचना) प्रकाशित कृतियां हैं और वे </span><span style="background-color: white; font-family: 'Arial Unicode MS'; font-size: 23px; line-height: 34.5px; text-align: left;"> साहित्यिक पत्रिका ‘यात्रा’के संपादक हैं और वर्तमान में </span><span style="background-color: white; font-family: 'Arial Unicode MS'; font-size: 23px; line-height: 34.5px; text-align: left;">दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर के हिन्दी विभाग में प्रोफ़ेसर हैं। </span><span style="background-color: white; font-family: 'Arial Unicode MS'; font-size: 23px; line-height: 34.5px; text-align: left;">मोबाइल-09450959317.</span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: justify;">
<span style="background-color: white; text-align: start;"></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;"><br /></span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<b><span style="color: blue;"><span style="font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">क्रांति भी, रोना भी ,प्यार भी... </span></span><span style="font-family: 'Arial Unicode MS'; font-size: 23px; line-height: 34.5px;">-गणेश पाण्डेय</span></span></b></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;"><br /></span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: justify;">
<span style="font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;"> <span style="color: #20124d;"> आभासी दुनिया की हलचल हो या सचमुच की, कभी-कभी इन से दूर जीवन को बिल्कुल पास से देखने की इच्छा होती है। गहरे धँसकर जीने की इच्छा होती है। सच तो यह कि कभी-कभी सिर्फ और सिर्फ दर्द को बारबार छूने की इच्छा होती है। ऐसा बहुत कम होता है। जब अखबार, टीवी और आभासी दुनिया के दर्द से बाहर... कुछ ठहर कर देखने की इच्छा होती है। आज अचानक स्वप्निल की सूई-धागा कविता को फिर से पढ़ने के बाद साझा करने की इच्छा हुई। पर बहुत से कवि तो दुनिया को बदल देने का काम हरहाल में आज पूरा कर लेने में लगे होंगे। स्वप्निल की इस ‘सूई-धागा’ का होगा क्या-</span></span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="font-family: 'Arial Unicode MS'; font-size: 23px; line-height: 34.5px;"><span style="color: #20124d;">’तुम सूई थी और मैं था धागा</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">सूई के पहले तुम लोहा थी</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">धरती के गर्भ में सदियों से</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">सोई हुई</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;"><br /></span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">तुम्हें एक मजदूर ने अंधेरे से</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">मुक्त किया</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">उसी ने तुम्हें तराश तराश</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">बनाया सूई</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">ताकि तुम धागे से दोस्ती</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">कर सको</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;"><br /></span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">धागे के पहले मैं कपास था</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">जिसे मां जैसे हाथों से चुनकर</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">चरखे तक पहुँचाया गया</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">कारीगरों ने मुझे बनाया धागा</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;"><br /></span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">मैं अकेला भटकता रहा</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">और एक दिन मैं तुमसे मिला</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">इस तरह हम बन गये</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">सूई धागा</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">और साथ साथ रहने लगे</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;"><br /></span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">तुम्हारे बिना मैं रहता था</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">बेचैन</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">और मेरे बिना तुम</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">रहती थी अधीर</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;"><br /></span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">हम दोनों मिलकर ओढ़ते रहे</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">जिंदगी की चादर</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">और अपने सुख-दुख को रफू</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">करते रहे</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;"><br /></span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">एक दिन तुम मृत्यु के अंधेरे में</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">गिर गयी</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">मैं रह गया अकेला</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;"><br /></span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">जब भी मैं तुम्हारे बारे में</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">सोचता हूँ</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">तुम मुझे चुभती हो</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">आत्मा तक पहुँचती है</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">तुम्हारी चुभन।</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">(यात्रा 5-6)</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: justify;">
<span style="font-family: 'Arial Unicode MS'; font-size: 23px; line-height: 34.5px;"><span style="color: #20124d;"> एफबी पर स्वप्निल श्रीवास्तव की इस कविता को यह जानते हुए दिया कि यह कविता एफबी के मिजाज की कविता नहीं है। यह कहना भी पड़ा कि मुझे ऐसा लगता है कि एफबी पर सक्रिय जिन कवियों के पास ऐसे काव्यानुभव या इस जमीन की कविताएँ नहीं हैं, उन्हें यह कविता पसंद नहीं आयेगी। हिंदी कविता में हम जिसे बड़ी कविता कहते हैं, यह कविता चाहे उन अर्थो में सचमुच बड़ी कविता न हो पर यह सच है कि यह कविता उस बड़ी जमीन की कविता जरूर है। यह बात मैं अपनी किसी कविता के लिए नहीं कह रहा हूँ। आज कविता को लेकर पसंद का संकट है। क्या एफबी और क्या बाहर प्रिंट की दुनिया। हर जगह। दरअसल मैं जिसे विनम्रतापूर्वक पसंद का संकट कह रहा हूँ, वह समझ का ही संकट है। कभी-कभी प्रिय-अप्रिय या मेरा-तेरा कवि व्यक्तित्व से जुड़ी पसंद समझ पर भारी पड़ जाती है, यह भी सच है। खैर, यह कविता मुझे पसंद है। मेरी समझ भी इस कविता के पक्ष में है। अच्छी बात यह कि कुछ मित्रों की भी पसंद और समझ मेरी पसंद और समझ के साथ है। मैं एफबी और अखबार को अलग-अलग समझता हूँ। हालांकि अखबार में भी जो रोज-रोज नहीं होता है, वह यहाँ होता है। इस माध्यम के चरित्र और स्वभाव को लेकर कम जानता हूँ। इस माध्यम को बनाने और चलाने वाले लोग पूँजीवादी हैं या समाजवादी या कुछ और, यह नहीं जानता हूँ। इस माध्यम का अर्थशास्त्र और राजनीतिविज्ञान या समाजशास्त्र, कुछ नहीं जानता हूँ। कुछ-कुछ यह जानता हूँ कि यहाँ अपने बारे में दिनरात अच्छी-अच्छी बातें करने वाले लोग हैं।</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: justify;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>कुछ लोग दिनरात देश-दुनिया के बारे में अच्छी-अच्छी बातें करने वाले लोग हैं। कुछ उम्र में बड़े हैं, कुछ मेरी उम्र के जेएनयू , जामिया और डीयू या बाहर के हैं और बहुत से मुझसे छोटे हैं। मेरे बेटे की उम्र के या मेरे शिष्यों की उम्र के। पर इनमें से जो साहित्य में काम करने वाले हैं, उनमें कई उम्र में छोटा होने के बावजूद कविता और आलोचना की दुनिया में अच्छा कर रहे हैं। ‘काफी’ इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि कुछ और न समझ लिया जाय। जाहिर है कि साहित्य की समझ अच्छी है, तभी इनका अच्छा काम है। कुछ एफबीएफ दो-दो नाव पर एक साथ सवार हैं। दो-दो क्या, कई नावों पर एक साथ हैं। कुछ हैं जो एक्टिविस्ट भी हैं और लेखक भी। कुछ पचास-पचास प्रतिशत हैं तो कुछ पचहत्तर और पच्चीस प्रतिशत। कुछ सिर्फ एक्टिविस्ट हैं। कुछ ऐसे भी एफबीएफ हैं जो सिर्फ लेखक हैं। उनमें भी कुछ साधारण लेखक हैं, कुछ उससे बड़े। कुछ तो बहुत बड़े लेखक भी हैं। बहुत बड़े का मतलब जिसकी राजधानी की साहित्यसत्ताओं के निकटता या अंतरंगता हो। कुछ लेखकनुमा पत्रकार हैं, जो पत्रकारिता की दुनिया में साहित्य को लेकर व्याप्त भयंकर नासमझी और भष्टाचार से आँख मूंद कर ज्यादातर अच्छी-अच्छी बात करते हैं। लेखकों और आयोजनों के फोटो देते हैं। कुछ जेएनयू के पूर्व विद्यार्थी भी हैं, सचमुच ये बहुत प्रतिभाशाली हैं। प्रतिभाशाली तो ऐसे भी युवतर लेखक यहाँ हैं जो जेएनयू से नहीं हैं। बाहर से हैं। मुझे इनसे साहित्य संवाद अच्छा लगता है। ये साहित्य के बारे में बहुत अच्छी-अच्छी बात करते हैं। कुछ तो ब्लॉग भी चलाते हैं। घ्यान देने की बात यह कि ये ब्लॉग दिल्ली ही नहीं दिल्ली के बाहर से भी चलाते हैं और अच्छा चलाते हैं। ध्यान खींचते हैं। कुछ जोर-शोर से तो कुछ चुपचाप। ये अच्छा कर रहे हैं। अक्सर मेरा ध्यान अच्छे साहित्य पर चला जाता है। सच तो यह कि इसीलिए इस माध्यम पर आया भी हूँ। दूसरे लोग किसलिए आए हैं, नहीं जानता। सच यह पता नहीं कि वे टाइम पास के लिए आए हैं कि साहित्यिक चुटकुलाबाजी के लिए या राजनीतिक लतीफा सुनाने के लिए या सचमुच बड़े सामाजिक और राजनीतिक या साहित्यिक बदलाव के लिए ?</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: justify;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;"> <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इस माध्यम पर कविताएँ खूब पढ़ने को मिलती हैं। कुछ अच्छी और कुछ बहुत कमजोर। अधिकांश कविताएँ साधारण होती हैं। मेरा मानना है कि सिर्फ एक या कुछ खास कवि के यहाँ ही असाधारण कविताएँ अलग से पैदा नहीं होती हैं, तमाम कवियों की तरह इन्हीं साधारण कविताओं के क्रम में कुछ बहुत अच्छी कविताएँ बन जाती हैं। कुछ अविस्मरणीय कविताएँ हो जाती हैं। एक कवि का एजेंडा क्या होना चाहिए ? मेरी समझ से एक कवि का एजेंडा अच्छी कविता लिखना होना चाहिए। क्योंकि मेरा मानना है कि यदि आपका एजेंडा खराब कविता लिखना है तो आप कविता की दुनिया में आये ही क्यों ? ट्रक ड्राइवर होकर शेर कहने का लांगरूट तो खुला ही था। नहीं दोस्तो, अच्छी तरह जानता हूँ कि आप अच्छी कविता लिखने के लिए कविता के संसार में आए हैं। यह भी बहुत अच्छी तरह जानता हूँ कि आप सफर में हैं। मंजिल बस तनिक दूर है। हालाकि मुझे ही कौन अब तक मंजिल मिल गयी है। रास्ते में हम सब हैं। बस यह ध्यान रहे कि रास्ते में ट्रक ड्राइवर भी मिल सकते हैं, इसलिए जरा देख कर चलें। सामने खड्ड है। पहले तय कर लें कि पहले अच्छी कविता कि पहले राजनीतिक और सामाजिक क्रांति कि दोनों नावों पर एक साथ ? मैं बिल्कुल क्रांति के पक्ष में हूँ लेकिन सब एक साथ साधने की कला मेरे पास नहीं है। हाँ, कविता में सामाजिक और राजनीतिक बदलाव का स्वप्न तो देख सकता हूँ पर समाज में चुटकी या बंदूक बजाते हुए तुरत क्रांति हो जाने का सचमुच का स्वप्न नहीं देख सकता। क्योंकि मैं कोई सचमुच का एक्टिविस्ट नहीं हूँ। जब मैं बहुत छोटा था, मेरे कस्बे तेतरी बाजार में एक कॉमरेड हुआ करते थे, कॉमरेड दयाराम, उनकी बहुत इज्जत करता था। वे कहते थे अर्थात स्वीकार करते थे कि तोप का मुकाबला बांस से नहीं किया जा सकता है अर्थात समझ और विचार और सार्थक प्रतिरोध से किया जा सकता है। ऐसे जो भी साथी हैं, आदरपूर्वक उनके सामने नतमस्तक होता हूँ। पर शायद आज कुछ संकट यहाँ भी है। कुछ अच्छे साथी भी जरूर हैं। पर कुछ दूसरे तरह के साथी भी मिल सकते हैं। अभी एफबी पर मनीषा पाण्डेय ने अपने स्टेटस में लिखा है कि ‘मेरा एक ब्वायफ्रेंड था, धुर क्रांतिकारी। एक दिन उसने मुझसे कहा, मनीषा, तुम नौकरी करना और मैं पार्टी का होलटाइमर बन जाऊँगा। तुम एक -दो बच्चे पैदा करना। उनकी टट्टी साफ करना, उनके लिए रातभर जागना, उन्हें पढ़ाना-लिखाना। मैं तो महान कार्यों में लगा हुआ हूँ। जब पार्टी सम्मेलन होगा तो तो वहाँ भी तुम कढ़ाई-कलछुल लेकर तैयार रहना कॉमरेडों की सेवा करने के लिए। उस दिन मेरा दिल किया था कि तुरत बाहर का दरवाजा दिखाऊँ और बोलूँ- खबरदार जो इस तरफ कभी मुड़कर भी देखा। अब अगर क्रांति होनी ही है तो तुम नौकरी करना, मैं क्रांति करूँगी। तुम पूड़ियाँ परोसना, मैं भाषण दूँगी। चूल्हे में गए तुम और तुम्हारे विचार। बहुत उल्लू बना चुके तुम। अब हमारी बारी है।’ </span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: justify;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मैं मनीषा जी तरह ऐसा कुछ तो नहीं कह सकता, पर इस खतरे की ओर इशारा जरूर करूँगा कि कविता की दुनिया में क्रांति के नाम पर ऐसे उल्लू बनाने वाले लोगों का आविर्भाव हो चुका है। ऐसे लोगों को मैं ही नहीं, कई एफबी मित्र भी, छद्म क्रांतिकारी कवि कहना अधिक पसंद करते हैं। क्योंकि ये साहित्य के बाहर हर उस जगह क्रांति चाहते हैं, जहाँ इनके लिए जोखिम रत्तीभर न हो। इनके पास साहित्य में सत्ता की चाकरी और बाहर की दुनिया को उलट-पलट देने का फर्जी स्वप्न होता है। इनकी कविताओं में परिवर्तन का कानफाड़ू तीव्र राग और जीवन में धुर यथास्थितिवाद होता है। इनके लिए विचारधारा और ईमान मुक्तिबोध की तरह एक नहीं, दो है। दोनों एक-दूसरे के विरोधी। इन्हें क्या विचार नहीं करना चाहिए कि बाहर दूसरे देशों और भाषाओं के जिन क्रांतिकारी कवियों की कविताओं को अक्सर याद करते हैं, उनका जीवन भी ऐसा ही रहा है जैसा इनका है। मैं विनम्रतापूर्वक कहता हूँ कि बेशक उनकी तरह या उनसे भी अच्छी कविताएँ लिखो। बिल्कुल क्रांति की आला दरजे की कविताएँ लिखो, अच्छी कविताएँ लिखो और ऐसे दिखो जिससे तुम और तुम्हारी कविताएँ भरोसा पैदा करें बदलाव के लिए। तुम्हारा स्वप्न सच्चा लगे। तुम्हारी कविता की आत्मा से पुरस्कार की इच्छा की गंध न आए। ऐसे किसी कतार में मत दिखो। केशव तिवारी ऐसे छद्म क्रांतिकारी कवियों के लिए शायद ठीक ही कहते हैं कि सिंथेटिक कविताओं से इनका बाजार अटा पड़ा है। पर सुकून की बात यह कि यह ऐसे छद्म क्रांतिकारी कवियों की कविता का सच तो है आज की कविता का पूरा सच नहीं है। कई ऐसे घोषित तौर पर प्रगतिशलील कवि हैं जो छद्म प्रगतिशील नहीं लगते हैं। जिनके लिए कविता की चौहद्दी में जीवन की कविता और परिवर्तन की कविता दोनों शामिल है। आखिर स्वप्निल की कविता ‘सूई-धागा’ को एफबी की कई लेखिकाएँ और लेखक मित्रों ने क्यों पसंद किया है ? प्रेमचंद गांधी की प्रगतिशीलता यह कहते हुए खतरे में क्यों नहीं पड़ती है कि ‘ निश्चय ही यह एक शानदार कविता है...धरती के गर्भ से लेकर कपास के पौधे के शीर्ष तक और फिर मानवीय संबंधों की सघनतम संवेदनाओं को स्वप्निल जी ने बहुत धैर्य के साथ कहा है...मेरे अपने जीवनानुभव से इसमें कुछ और जोड़ा जा सकता है... लेकिन वह शायद इस कविता का अतिरिक्त विस्तार होगा...बचपन में कपास के पौधों और सूई-धागा-ताना-बाना देखने की अनेक स्मृतियाँ हैं...इस कविता ने उन्हें आँगन दिखाया है...’ आखिर यह प्रगतिशीलता जीवनानुभवों की विरोधी क्यों नहीं है ? यह प्रगतिशीलता सिर्फ किताबी या अखबारी क्यों नहीं है ? हमारे समय की कविता में कई कवि हैं जो जितने प्रगतिशील हैं, उतने ही लोकतांत्रिक और निडर भी।</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: justify;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;"> विनम्रतापूर्वक कहना चाहूँगा कि हमारे समय की कविता में कुछ ‘छद्म प्रगतिशील’ कवियों ने बहुत सारा कूड़ा-करकट कर रखा है। ऐसे आलोचकों ने भी गंदगी इकट्ठा करने का काम ही अधिक किया है। आभासी दुनिया में ही नहीं बाहर भी चालीस-पचास के आसपास के कई कवि -आलोचक भी ऐसा ही कुछ करते दिख जाते हैं। असल में काव्यालोचना की दिल्ली फैक्ट्री ने इतना कूड़ा इधर फैलाया है कि जहाँ देखो वहीं दुनिया को बदलने के नाम पर भूसाछाप ठस गद्यात्मकता का प्राचुर्य, विचारों का प्रकोप और मुँहदेखी प्रशंसा और जातिवाद और नये किस्म के काव्य संप्रदायवाद का खड्ड है। अपने लिखे पर अपनी कोई छाप नहीं है। लगता है कि जैसे किसी सेठ का बही-खाता ठीक करने वाले मुनीम हों। बाहर के कई आलोचकों ने भी इसी तरह की आलोचना की फ्रेंचाइजी ले रखी है। संतोष यह कि कुछ युवा कवि-आलोचक अपने समय की बुराई से अभी बचे हुए हैं। </span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: justify;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>युवा कवि-आलोचक नीलकमल ने अभी हाल ही में एक युवा कवि की कुछ नकली कविताओं की ओर मेरा ध्यान खींचा है। यह अच्छी बात है कि कम ही सही पर कुछ कवि-आलोचकों की नजर इधर हिंदी में लिखी जा रही उन कविताओं पर है जिनमें हिंदी कविता की प्रकृति नहीं है। बल्कि बाहर से आयातित मुहावरे में लिखी जा रही हैं। जाहिर है कि ऐसी कविताओं को मैं नकली कविता कहता हूं। असल में नये कवियों में दो आने में चाँद खरीद लेने की तीव्र इच्छा ने उन्हें कुछ भी कर गुजरने के लिए विवश किया है। उन्हें पुरस्कार चाहिए, उन्हें अपने जीवनकाल में अमरत्व चाहिए। इसलिए सिर के बल कविता लिखने से भी परहेज नहीं। प्रायोजित इनाम और चर्चा के गठजोड़ ने भी इस तरह की नकली ही नहीं, दूसरे तरह की किताबी और अखबारी कविताओं के आधार पर भी तमाम शहरों के कमजोर कवियों को भी महानगर केशरी या रुस्तमे हिन्द जैसी रेवड़ियाँ बांटने का काम किया है। छोटे-छोटे शहरों के भ्रष्ट पुरस्कारों के लिए मचलते हुए कई कवियों की आत्ममुग्घ गद्गद मुद्राएँ आभासी दुनिया के पटल पर नित्य देखी जा सकती हैं। मेरे ही शहर का कविता का एक ‘सम्मान’ अर्थात पुरस्कार है, जिसे यहाँ पुरस्कारों का धंधा करने वाला एक आदमी निकालता है। न तो उसे साहित्य की कोई जानकारी है न समझ और न ईमानदारी। वह जैसे हाईस्कूल-इंटर के विद्यार्थियों को पानी चढ़ा गोल्डमेडल बाँटता है और व्यापारियों-डॉक्टरों इत्यादि को भी श्रमवीर और न जाने क्या-क्या पुरस्कार-सम्मान बाँटता फिरता है, उसी तरह कविता के साथ भी दगा करता है।</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: justify;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>आशय यह कि जिसने सिर्फ ‘पुरस्कारों का धंधा’ कर रखा है, उसकी संस्था के पुरस्कार लेने में भी कथित प्रगतिशील कवियों की प्रगतिशीलता खतरे में </span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: justify;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">नहीं पड़ती है, बल्कि साहित्य के भ्रष्टाचार के गले लगकर और पुष्ट ही होती है। यह भी संभव है कि ऐसे पुरस्कार लेने वाले प्रगतिशील लोगों को पुरस्कार की हकीकत ही न मालूम हो। मजे की बात यह कि अनेक शहरों में ऐसे तमाम पुरस्कारों के लिए चयनसमितियों में भ्रष्ट लेखक या लेखकनुमा या अलेखक लोग ही होते है। उनमें से किसी के भी पास मर्द लेखक का जीवन और छवि हो, ऐसा मुझे नहीं लगता। राजधानी से लेकर अनेक छोटे-बड़े शहरों में ऐसे ही भ्रष्ट प्रगतिशीलता का खेल जारी है। इस खेल में क्या प्रगतिशील और क्या गैर प्रगतिशील, सब एक साथ शामिल हैं। पर मेरा मानना है कि चोर की चोरी बाद में रोकना, पहले सिपाही को पकड़ो और उसकी तलाशी लो। जाहिर है कि मेरी बात उन्हें पसंद नहीं आएगी जो इस खेल में शामिल है या शामिल होने के लिए कतार में हैं।</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: justify;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>दरअसल मैं कविता का एक साधारण कार्यकर्ता हूँ। कविता का लालबत्ती वाला मंत्री या अफसर नहीं। कविता का बिना दाम का मजदूर हूं। इसलिए पहले तो मैं साहित्य की दुनिया में बदलाव का स्वप्न देखता हूँ। मैं ऐसी बेवकूफी करने से खुद को रोकने की कोशिश करता रहता हूँ कि ऐसा स्वप्न देखूँ या साहित्य का फ्रॉड करूँ कि साहित्य में तो सब जस का तस काला रहे और देश-समाज सब पलक झपकते बदल जाय। मैं इस पक्ष में भी नहीं हूँ कि शुरू से अंत तक कोई कवि सिर्फ क्रांति की कविताएँ ही लिखे और कुछ कविताएँ घर-संसार, प्रेम और प्रकृति इत्यादि की न हों। एकबार मेरे शहर के ही देवेंद्र कमार उर्फ बंगाली जी ने एक बिल्कुल शुरुआती युवा कवयित्री से कहा था कि जिस उम्र में हो उसमें क्रांति की कविता नहीं, पहले प्रकृति और प्रेम इत्यादि की कुछ कविताएँ लिखो। मित्रो, एफबी मित्रों से यह कहना कतई उचित नहीं है कि वे अपनी ‘हर कविता’ विचार और तात्कालिक मुद्दों पर केंद्रित न लिखें। कोई चाहे तो यहाँ मेरे कान उमेठ सकता है कि फिर मैंने ‘ओ ईश्वर‘ ‘गाय का जीवन’ ही नहीं बल्कि ‘जापानी बुखार’, और ‘सबद एक पूछिबा’ आदि लंबी कविताओं को क्यों लिखा ? नम्र निवेदन यह कि मित्रो सिर्फ यही नहीं लिखा है, बहुत कुछ इससे इतर भी लिखा है। आप भी अपनी ‘हर कविता’ को अर्थशास्त्र या राजनीति विज्ञान का रचनात्मक गद्य न बनाएँ।</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: justify;">
<span style="color: #20124d;"><span style="font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>अपनी ‘हर कविता’ को तरल संवेदना की जगह ठस अखबारी यथार्थ का कवितानुमा अनुवाद न बनाएँ। जीवन और अपने आसपास के लोगों के दिलों में भी झांकें, उनके मुस्कान और आँसू भी देखें। अरे बाबा अपने आँसू को भी खारा पानी समझ कर व्यर्थ में बहा न दें। उसे अपनी कविता में संभाल कर रखें। जैसे </span></span><span style="font-family: 'Arial Unicode MS'; font-size: 23px; line-height: 34.5px;">‘सूई-धागा’ में है। जैसे मेरी ‘कहाँ जलाओगे मेरी देह’ में है, जैसे मेरी ‘‘प्रथम परिणीता’’ में है-</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: justify;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;"><br /></span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">जिस तलुए की कोमलता से</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">वंचित है</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">मेरी पृथ्वी का एक-एक कण</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">घास के एक-एक तिनके से</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">उठती है जिसके लिए पुकार</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">फिर से जिसे स्पर्श करने के लिए</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">मुझमें नहीं बचा है अब</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">चुटकीभर धैर्य</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">जिसके पैरों की झंकार</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">सुनने के लिए</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">बेचैन है</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">मेरे घर के आसपास</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">गुलमोहर के उदास वृक्षों की कतार</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">और तुलसी का चौरा</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">जिसकी</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">सुदीर्घ काली वेणी में लग कर</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">खिल जाने के लिए आतुर हैं</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">चांदनी के सफेद नन्हे फूल</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">और</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">असमय</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">जिसके चले जाने के शूल से</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">आहत है मेरे आकाश का वक्ष</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">और धरती का अंतस्तल</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">तुम हो</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">तुम्हीं हो</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">मेरी प्रथम परिणीता</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">मेरे विपन्न जीवन की शोभा</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">जिसके होने और न होने से</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">होता है मेरे जीवन में</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">दिन और रात का फेरा</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">धूप और छांव</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">होता है नीचे-ऊपर</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">मेरे घर</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">और</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">मेरे दिल</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">और दिमाग का तापमान</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">अच्छा हुआ</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">जो तुम</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">जा कर भी जा नहीं सकी</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">इस निर्मम संसार में मुझे छोड़कर</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">अकेला</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">सोचा होगा कैसे पिएंगे प्रीतम</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">सुबह-शाम</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">गुड़</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">अदरक</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">और गोलमिर्च की चाय</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">भूख लगेगी तो कौन देगा</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">मीठी आंच में पकी हुई</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">रोटी</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">और मेथी का साग</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">दुखेगा सिर</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">तो दबाएगा कौन</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">आहिस्ता-आहिस्ता</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">सारी रात</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">रोएंगे जब मेरे प्रीतम</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">तो किसके आंचल में पोछेंगे</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">रेत की मछली जैसी</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">अपनी तड़पती आंखें</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">और जब मुझे देख नहीं पाएंगे</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">तो जी कैसे पाएंगे</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">कैसे समझाएंगे</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">खुद को</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">कैसे पूरी करेंगे जीवन की कविता</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">कैसे करेंगे मुझे प्यार</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">अच्छा हुआ</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">मीता</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">मेरी प्रथम परिणीता</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">छोड़ गयी मेरे पास</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">स्मृतियों की गीता</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">दे गयी</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">एक और मीता</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">परिणीता</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">जिसके जीवन में शामिल है</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">तुम्हारा जीवन</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">जिसके सिंदूर में है तुम्हारा सिंदूर</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">जिसके प्यार में है</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">तुम्हारा प्यार</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">जिसके मुखड़े में है तुम्हारा मुखड़ा</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">जिसके आंचल में है तुम्हारा आंचल</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">जिसकी गोद में है तुम्हारी गोद</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">कितना अभागा हूं</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">भर नहीं पाया तुम्हारी गोद</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">तुम्हारे कानों में पहना नहीं पाया</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">किलकारी के एक-दो कर्णफूल</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">तुम्हारी आंखों के कैमरे में</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">उतार नहीं पाया</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">तुम्हारी ही बालछवि</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">किससे पूछूं कि जीवन के चित्र</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">इतने धुंधले क्यों होते हैं</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">समय की धूल</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">उड़ती है</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">तो आंधी की तरह क्यों उड़ती है</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">प्रेम का प्रतिफल</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">दुख क्यों होता है</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">और</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">अक्सर</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">तुम जैसी स्त्री का सखियारा</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">दुख से क्यों होता है</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">तुम नहीं हो</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">तुम्हारी सखी है</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">है दुख है तुम्हारी सखी है</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">कर लिया है उसी से ब्याह</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">हूं जिसके संग</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">देखता हूं उसी में</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">तुम्हें नित।</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: start;">
<span style="color: #20124d; font-family: Arial Unicode MS;"><span style="font-size: 23px; line-height: 34.5px;">(परिणीता)</span></span></div>
<div style="background-color: #f5faff; text-align: justify;">
<span style="color: #20124d;"><span class="Apple-tab-span" style="font-family: 'Arial Unicode MS'; font-size: 23px; line-height: 34.5px; white-space: pre;"> </span><span style="font-family: 'Arial Unicode MS'; font-size: 23px; line-height: 34.5px;">इन कविताओं से भी अच्छी बहुत-सी कविताएँ हैं। ये तो कुछ भी नहीं, बहुत-सी ताकतवर कविताएँ हैं। बहुत से कवियों के पास ऐसी बहुत-सी कविताएँ हैं। यही जीवन है। यही संसार है। इसी संसार में क्रांति भी करना है, रोना भी है और प्यार भी करना है...</span></span></div>
<div style="font-family: 'Arial Unicode MS'; font-size: 23px; line-height: 34.5px; text-align: justify;">
<span style="color: #20124d;"><br /></span></div>
<br />
<div style="background-color: #f5faff; text-align: right;">
<span style="background-color: white; font-size: 23px; line-height: 34.5px; text-align: start;"><span style="font-family: Arial Unicode MS;">-गणेश पाण्डेय</span></span></div>
</div>
नवनीत पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/14332214678554614545noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4402945881693099939.post-15291033892361033162013-04-09T08:31:00.001-07:002013-04-13T03:48:20.467-07:00आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास केवल वादों से जाना-पहचाना जाता है- रामदरश मिश्र<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiqQe-N9zO0_mGv56t5KLsvLbhQMSrqK3xWklZCgpiSTFHxNFEC4T0H4VGvHml-LA16CzXEf-kxI5alKkZEuSgpqfhO8Tp5NEAr7iI9mB_zfHS0tvAkN_VKNIZFiVW8acihHJkyDzPN7f0/s1600/rd+mishra.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiqQe-N9zO0_mGv56t5KLsvLbhQMSrqK3xWklZCgpiSTFHxNFEC4T0H4VGvHml-LA16CzXEf-kxI5alKkZEuSgpqfhO8Tp5NEAr7iI9mB_zfHS0tvAkN_VKNIZFiVW8acihHJkyDzPN7f0/s1600/rd+mishra.jpg" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><i>रामदरश मिश्र</i></td></tr>
</tbody></table>
<br />
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">मित्रो! </span><span style="font-size: large;"> हिन्दी अकादमी के श्लाका सम्मान व </span><span style="font-size: large;"> </span><span style="font-size: large;">के के बिड़ला फ़ांउडेशन द्वारा ’व्यास सम्मान’</span><span style="font-size: large;"> </span><span style="font-size: large;"> से सम्मानित सफल कवि, आलोचक तथा कथाकार </span><span style="font-size: large;"> कवि,कथाकार </span><span style="font-size: large;">रामदरश मिश्र पिछले सात दशक से हिन्दी साहित्य के सक्रिय व चर्चित हस्ताक्षर हैं। मिश्र जी की साहित्य प्रतिभा बहु आयामी है। उन्होंने कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना और निबंध जैसी प्रमुख विधाओं में तो लिखा ही है, आत्मकथा, यात्रावृत्त तथा संस्मरण भी लिखे हैं। उनका रचना संसार आम आदमी का रचना संसार है। उनकी रचनाएं पाठक को बांधे रखने की अद्भुत क्षमता रखती हैं। किसी झंडे या वाद से अलग उनका रचनाकार हमेशा अपने समय और समाज की वास्तविकताओं से मुठभेड़ करते हुए उसका यथार्थ कागज़ पर उकेरता रहा है जिसका नुकसान भी कई बार उनके रचनाकार को उठाना पड़ा है। आलोचना ने उनके रचनाकर्म का आज तक सही मूल्यांकन नहीं किया है। </span><span style="font-size: large;">उन्हें श्लाका सम्मान मिलने के बाद उ</span><span style="font-size: large;">नके रचनाकर्म और साहित्य-यात्रा के साथ- साथ आधुनिक हिन्दी साहित्य की यात्रा के बारे में कई ज्वलंत और गंभीर मुद्दों पर विस्तार से </span><span style="font-size: large;">हुयी यह लंबी आत्मीय बातचीत आज बीच बहस पाठकों के साथ साझा कर रहा हूं....</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<br />
<div align="justify" style="background-color: white;">
<span style="font-family: Mangal; font-size: x-small;"> <b> १५ अगस्त, १९२४</b> को गोरखपुर जिले के कछार अंचल के गाँव डुमरी में जन्मे रामदरश मिश्र जी की प्रमुख प्रकाशित कृतियां </span><span style="font-family: Mangal; font-size: xx-small; text-align: start;"><b>कविता संग्रह</b>- पथ के गीत, बैरंग-बेनाम चिट्ठियाँ, पक गई है धूप, कंधे पर सूरज, दिन एक नदी बन गया, जुलूस कहां जा रहा है, रामदरश मिश्र की प्रतिनिधि कविताएँ, आग कुछ नहीं बोलती, शब्द सेतु, बारिश में भीगते बच्चे, ऐसे में जब कभी, आम पत्ते। </span><b style="font-family: Mangal; font-size: small; text-align: start;">गज़ल संग्रह-</b><span style="font-family: Mangal; font-size: xx-small; text-align: start;"> हँसी ओठ पर आँखे नम हैं, बाजार को निकले हैं लोग, तू ही बता ऐ जिन्दगी। </span><b style="font-family: Mangal; font-size: small; text-align: start;">संस्मरण-</b><span style="font-family: Mangal; font-size: xx-small; text-align: start;"> स्मृतियों के छंद, अपने अपने रास्ते, एक दुनिया अपनी और चुनी हुई रचनाएँ-बूँद-बूँद नदी, दर्द की हँसी, नदी बहती है, कच्चे रास्तों का सफ़र। </span><b style="font-family: Mangal; font-size: small; text-align: start;">उपन्यास-</b><span style="font-family: Mangal; font-size: xx-small; text-align: start;"> पानी के प्राचीर, जल टूटता हुआ, बीच का समय, सूखता हुआ तालाब, अपने लोग, रात का सफर, आकाश की छत, आदिम राग, बिना दरवाजे का मकान, दूसरा घर, थकी हुई सुबह, बीस बरस, परिवार। </span><b style="font-family: Mangal; font-size: small; text-align: start;">कहानी संग्रह-</b><span style="font-family: Mangal; font-size: xx-small; text-align: start;"> खाली घर, एक वह, दिनचर्या, सर्पदंश, वसंत का एक दिन, इकसठ कहानियाँ, अपने लिए, मेरी प्रिय कहानियाँ, चर्चित कहानियाँ, श्रेष्ठ आंचलिक कहानियाँ, आज का दिन भी, फिर कब आएँगे ?, एक कहानी लगातार, विदूषक (कहानी संग्रह), दिन के साथ, १० प्रतिनिधि कहानियाँ, मेरी तेरह कहानियाँ, विरासत। </span><b style="font-family: Mangal; font-size: small; text-align: start;">ललित निबंध संग्रह-</b><span style="font-family: Mangal; font-size: xx-small; text-align: start;"> कितने बजे हैं, बबूल और कैक्टस, घर-परिवेश, छोटे-छोटे सुख </span><b style="font-family: Mangal; font-size: small; text-align: start;">आत्मकथा-</b><span style="font-family: Mangal; font-size: xx-small; text-align: start;"> सहचर है समय, फुरसत के दिन।</span></div>
<br />
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<div>
<b>आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास केवल वादों से जाना-पहचाना <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जाता है- रामदरश मिश्र</b></div>
<div>
</div>
</div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span></span><span style="font-size: large;"> </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- मिश्र जी एक कवि के रूप में अपनी साहित्यिक यात्रा षुरू करने के आपका झुकाव कहानी की ओर स्वतः ही हुआ था या फिर कोई अन्य कारण था?</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र-</b> (मुस्कराते हुए) नहीं भाई ऐसी कोई बात नहीं, यह सच है कि मेरी यात्रा कविता के साथ ही शुरू हुई थी लेकिन वह कविता के साथ खतम नहीं हुई। मेरी साहित्यिक यात्रा में आज भी कविता उसी तरह साथ है जैसे पहले थी। मुख्य विधा आज भी मैं कविता को ही मानता हूं । अचानक मैंने ऐसा कभी कुछ नहीं किया।(कुछ क्षण विचार की मुद्रा) मेरा विचार है कि पहले हर लेखक अपने लेखन की शुरुआत कविता से ही करता है। मन में कुछ भावनाएं आती हैं...कुछ तरंगें आती हैं....और वही भावनाएं और तरंगें बचपन और युवा मन में उमड़-घुमड़ कर कविता का आकार ग्रहण कर लेती हैं। कुछ लोग कविता के ही साथ चलते रहते हैं, कविता के माध्यम से ही सब कुछ कहना चाहते हैं जबकि कुछ लोग आगे चलकर गद्य की विधाओं की ताकत को पहचाते हुए यह महसूस करते हैं कि अमुक बात इस तरह और बेहतर ढंग से कही जा सकती है और वे अपनी उस बात को उस विधा के माध्यम से हमारे सामने रखते हैं। जैसे कहानी कुछ अलग ढंग से जीवन की बात करती है और उपन्यास समग्र रूप से जीवन के एक बहुत बड़े फलक को हमारे सामने रखता है। कविता के क्षेत्र में प्रबंध- काव्यों से जो जीवन की व्याप्ति को पकड़ने की कोषिष होती थी वह कोशिश गौण पड़ गयी है। अब प्रबंधकाव्यों और महाकाव्यों के स्थान पर उपन्यास आ गया है इसीलिए आजकल उपन्यास को गद्य का महाकाव्य भी कहा जाता है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"> </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- आपकी रचनाओं में अक्सर कछार की भावभूमि और वातावरण दिखाई देता है जबकि एक अरसे से आपका जीवन महानगरीय वातावरण में है, इसका कारण?</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र-</b> (कुछ क्षण का मौन)......दरअसल मेरा जो प्रारंभिक जीवन रहा है वह गांव में, देहात में अधिक बीता है और देहात से लेकर शहर-महानगर की इस यात्रा ने मुझे जीवन में बड़े व्यापक और जटिल अनुभवों से साक्षात् कराया है, एक बहुत बड़े फलक को देखने का सौभाग्य मुझे मिला है। उन्हीं अनुभवों को मैंने अपनी कविताओं-कहानियों में व्यक्त कर उन्हें पुनः देखने की एक कोशिश की है और ऐसा हर लेखक करता है। कविता मेरे पास शुरु से ही थी जबकि कहानी में मैं बहुत बाद में धीरे-धीरे आया.......</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;"><br /></span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;"> नवनीत पाण्डे- सन् 60 के करीब ?</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र</b>- (याद करते हुए) हां, लेकिन यूं तो मैं पचास के बाद ही आ गया था इस विचार से कि चलो एक दो कहानी लिखते हैं, देखें कैसी बन पाती है? लेकिन साठ के बाद प्रमुख रूप से कहानी में आ गया और मैंने उस समय बहुत सी कहानियां लिखीं और कहानियों का एक दौर सा शुरू हो चला.. </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- ‘मनोज जी’,‘भइया’ शायद उसी दौर की कहानियां हैं?</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र-</b> ये मेरी शुरु की छिटपुट कहानियांे में से हैं जो साठ से पहले ही ‘कहानी’ में छप चुकी थीं लेकिन उस समय साल, दो-साल, तीन साल में कहानी आ पाती थी लेकिन साठ के बाद जो कहानियों का दौर <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>षुरु हुआ, उस में एक निरंतरता आई। उसी समय उपन्यास की भी शुरुआत ‘मैला आंचल’ की प्रेरणा से हो गई.....गांव मेरे भीतर अटा हुआ था, उस समय कहानियां भी गांव की ही आ रही थी। ‘मैला आंचल’ पढकर मुझे लगा कि मैं भी अपने गांव को ऐसे ही समग्रता से कह सकता हूं। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- क्या ‘पानी के प्राचीर’ उसी प्रेरणा का परिणाम था?</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र</b>- (मुस्कराते हुए) हां, बिल्कुल! ‘मैला आंचल’ ने एक रास्ता जो दे दिया था। इसके अलावा मैं ‘मैला आंचल’ की संरचना से भी प्रभावित था यहां तक कि ‘पानी के प्राचीर’ में भी मैंने ध्वनियांे का प्रयोग किया जैसा कि ‘मैला आंचल’ में है लेकिन बाद में मैंने इसे छोड़ दिया क्यूंकि मुझे लगा कि यह रास्ता मेरा नहीं है । यह रास्ता ‘रेणु’ का ही है। लेकिन रेणु ने एक संरचना उपन्यास की हमारे सामने रखी थी कि कथा सीधी नहीं चलती है, कथा एक प्रवाह से नहीं चलती है, कभी यहां से उठती है, कभी वहां से, कभी एक दृष्य है तो कभी दूसरा, इस तरह सभी मिलकर एक कथा बनाते हैं। वह कथा होती है एक गांव की, एक परिवेष की, मात्र किसी नायक अथवा नायिका की नहीं। ‘पानी के प्राचीर’ लिखने के बाद मुझे लगा कि मुझे उपन्यास भी लिखना चाहिए। ‘पानी के प्राचीर’ के बाद तो उपन्यास ने जैसे मुझे पकड़ ही लिया। उपन्यास के क्षेत्र में मुझे अपनी क्षमताओं का भी अहसास हुआ। मेरे पास अनुभवों की कोई कमी नहीं थी, गांव से लेकर....गुजरात तक मेरा अनुभव संसार फैला था। ‘जल टूटता हुआ’ लिखने के बाद एक छोटा उपन्यास ‘बीच का समय’ आया जो कि गुजरात की पृष्ठभूमि पर एक प्रेमकथा है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- ‘सूखता हुआ तालाब’ भी शायद उसी कड़ी का है क्यों कि उस में भी ग्रामीण परिवेश का कथानक है?</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र- </b>हां, मैंने अनुभव किया कि गांव में जो सामाजिकता है वह खंडित हो रही है, सम्बन्धों में एक अलग प्रकार का विघटन उपस्थित हो रहा है। मुझे लगातार लग रहा था...गांव बदल रहे हैं...उनकी दिषा बिल्कुल अप्रीतिकर हो रही है। इसी दशा-दिशा को मैंने ‘सूखता तालाब’ में बांधने का प्रयास किया। इस में यौन नैतिकता का संदर्भ भी उठाया गया था। इस के बाद के उपन्यास ‘आकाश की छत’ में मैंने दिल्ली की बाढ को अपने गांव की बाढ के अनुभव देखने का प्रयास किया (अतीत में जाते हुए)...यानी दोनों बाढों में जीवन की क्या लय है...क्या समानता-असमानता है? ‘दूसरा घर’ में मैंने गुजरात को लिया क्यों कि वहां मैं बहुत समय तक रहा हॅंू। वहां मैंने देखा कि उत्तर भारत से अनेक लोग, अनेक पेषों के लोग यहां पहुंचे हुए हैं, खासतौर से वे, जो मिलों में काम कर रहे हैं और दो घरों के बीच फंसे हुए हैं। जो पढा-लिखा तबका है, वह यहां आता है और बस जाता है लेकिन ये लोग तो वहां भी है और यहां भी, वहां होते हैं तो यहां होते हैं और यहां होते हैं तो वहां। तो दो घरों के बीच उनकी जिंदगी कैसे बीतती है, यही सवाल मुझे सालता था और गुजरात से लौटने के काफी दिनों बाद इसकी परिणति ‘दूसरा घर’ के रूप में हुई।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- उपन्यास की संरचना में अभी जो प्रयोग हो रहे हैं उन्हें आप किस रूप में देखते हैं? अपने नवीनतम उपन्यास ‘बीस बरस’ के बारे में कुछ बताएंगे?</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र-</b> (मुस्कराते हुए) ‘बीस बरस’ में मैंने आज के गांव को ही देखने-समझने का प्रयास किया है यानी कि आज का गांव क्या है? कहां जा रहा है? मेरे उपन्यासों की संरचना में बदलाव आता रहा है। हर उपन्यास अपनी अलग संरचना लेकर आता है। मैंने जानबूझ कर ऐसी कोई कोषिष नहीं की। हर उपन्यास स्वयं ही अपनी संरचना बना लेता है, यह सब अनायास लेकिन चेतना के साथ होता है। कई बार जब लोग तय करके, ढांचा बनाकर कुछ नया लिखने की ही चाह में एक सर्वथा अलग संरचना थोपने की, फिट करने की कोषिष करते हैं तो वह कृत्रिम लगती है। जिस नई वस्तु को आप सामने ला रहे हैं, उस वस्तु का रूप क्या है और उसे कैसे, किस अंदाज से रूपायित करना है, यही चिंता सर्वोपरि होनी चाहिए। उस वस्तु के साथ-साथ उसकी संरचना बदलती रहती है। <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- आज जब साहित्य में निबंध हाशिए पर होता जा रहा है।आप निबन्ध भी लिख रहे हैं।निबंध के प्रति इस लगाव का कारण? </span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र-</b> (एक विचार मुद्रा में आते हुए) हां, कभी-कभार ललित निबंध लिखता रहता हूं। निबंध का अपना महत्त्व है,अपना बल है। निबंध मेरा स्वभाव व क्षेत्र नहीं रहा है लेकिन मैं मानता हॅंू कि वह भी एक समर्थ विधा है। कुछ ऐसी बातें होती हैं जो केवल निबंध में ही कही जा सकती है। एक कवि-उपन्यासकार-कथाकार के साथ-साथ एक आलोचक भी मेरे भीतर रहा है। मेरे भीतर भी कुछ <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>ऐसी बातें हैं जो मैं सीधे-सीधे केवल निबंध में ही कह सकता हूं। कुछ ऐसे ही भाव से मैंने अपनी आत्मकथा लिखी है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- आत्मकथा लिखने के कारणों का खुलासा करेंगे क्योंकि आत्मकथा के बारे में यह कहा जाता है कि हर लेखक आत्मकथा में स्वयं को महात्मा सिद्ध करता है और दूसरे को शैतान?</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र-</b> (हंसते हुए) आप की बात सही है लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। आत्मकथा लिखने का मेरा कोई संकल्प नहीं था..पाठकों के पत्र आते रहते थे..मुख्यतः षोध छात्रों के..आप का जीवनवृत्त क्या है, कहां पैदा हुए आदि-आदि। इतने पत्र आते कि परेशान हो गया था। इसके लिए एक बड़ा निबंध लिखा ‘जहां मैं खड़ा हूं’ जिसमें बचपन की यादें थी। सोचा इससे काम चल जाएगा। लोगों ने उसे पसंद किया, मित्रों का भी आग्रह था इसे आगे बढाऊं। प्रकाशकों की भी इच्छा थी। पहले मेरे मन में यह दुविधा थी,‘मैं क्यों आत्मकथा लिखूं, मैं कौन बड़ा आदमी हॅूं, न तो मेरे जीवन में ऐसा कोई एडवेंचर है, न मैं गांधी-नेहरु हॅंू, न निराला, प्रसाद हूॅं, मुझे कौन पढेगा? कुछ ऐसा ही संकोच मन को घेरे रहता था, लगता था कि यह एक अहंकार है कि मैं खुद लोगों को बताऊं कि मैं क्या हॅूं? लेकिन मैं इस संकट से उबर गया जब मन में एक सोच कौंधा कि यह कथा सिर्फ तुम्हारी नहीं है, तुम्हारे माध्यम से तुम्हारे परिवेश की है, और परिवेश किसी का भी महत्त्वहीन नहीं होता।’ इस सोच ने मुझे बड़ा बल दिया और मेरे पास इतने सारे अनुभव-प्रसंग थे कि सिलसिला बनता गया और काम हो गया। मैंने अपनी आत्मकथा में अपने माध्यम से कछार, बनारस, गुजरात,दिल्ली के सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक परिवेश की कथा कही है। इस नाते इस आत्मकथा की संरचना कुछ अलग ही हो गयी। लोगों ने इसे पसंद किया और आलोचकों (जो गुटबाज़ नहीं है) ने इसे फोकस करते हुए रेखांकित किया। (एक हंसी) महात्मा और शैतान वाली आपकी बात सही है, इस बारे में मेरी धारणा है कि आत्मकथा प्रवंचना के साथ तो नहीं लिखी जा सकती, उस में आप औरों को भले ही न खोलें, पर अपने को खोलना बहुत जरूरी होता है। अगर आप में यह साहस नहीं है तो आत्मकथा <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मत लिखिए। यह सही है कि कुछ आत्मकथा-लेखकों ने अपने घर के रोमांस को तो गोपित रखा है लेकिन दूसरों के साथ किए गए रोमांस पर, दूसरों की बहू-बेटियों के साथ उनके क्या सम्बन्ध रहे हैं, उन पर, नाम उजागर करते हुए बहुत खुल कर लिखा है- बिना यह विचार और चिंता किए कि वे सारी लड़कियां आज किसी की मां, दादी, नानी बन चुकी होंगी, उनका समाज में एक सम्मानित स्थान हो सकता है। अपने को बचाते हुए औरों को खोलने का यह प्रयास अष्लील होने के साथ-साथ अक्षम्य भी है। शैतान वाली बात वहीं होती है जहां लेखक अपनी कमज़ोरियों को छिपाते हुए दूसरों की कमज़ोरियों कोे खोलता है। यदि आप महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं तो आपके हर प्रशंसक-पाठक को यह <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जानने की उत्कंठा होगी ही कि आपने यह उपलब्धि कैसे प्र्राप्त की? आपके समय के समस्त कार्य-व्यापार-परिवेश-परंपराएं वह जानना चाहेगा। गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में अपनी कमज़ोरियों को भी खोला है, वह तो महत्त्वपूर्ण है ही, लेकिन उससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि उन्होंने अपने समय से कैसे मुकाबला किया, किस तरह एक मामूली आदमी से उठकर उन्होंने अपनेे लक्ष्य हासिल किए? आत्मकथा में विश्वसनीयता होना बहुत जरूरी है। राजेंद्र यादव ने मज़ाक में मुझ से कहा,‘यार तुम कुछ छुपा रहे हो। वे रोमांस छिपा रहे हो जो तुमने गुजरात में किए हैं।’ चंूकि वे स्वयं रोमांस करते रहते हैं, इसलिए सोचते हैं, हर आदमी कुछ ऐसा ही करता होगा। मैंने हंस कर बस यही कहा,‘नहीं ऐसा कुछ नहीं है यार।’ अगर हो भी तो ये सार्वजनिक किए जानेवाले मुद्दे नहीं है। महत्त्वपूर्ण यह है कि आत्मकथा अपने समय के समाज और परिवेश से मुठभेड़ करते हुए अपने जीवन के उन संदर्भों को ही सामने रखे जिन से पाठक कुछ ग्रहण कर सकता हों। किसी स्त्री से अपने रोमानी सम्बन्ध को बिना उसकी अनुमति के सार्वजनिक करना सद्कर्म नहीं, अश्लील कर्म है क्योंकि <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>सम्बन्ध में केवल आप अकेले पक्षकार नहीं हैं। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;"><br /></span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;"> नवनीत पाण्डे- राजेंद्र यादव जी ने तो अपने साक्षात्कार में कुछ ऐसी ही बातें और मन्नू जी के बारे में भी कुछ असंयमित टिप्पणियां पिछले दिनों की है?</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र-</b> वह फूहड़पन है। वे ऐसा करते रहते हैं। अकेले वे ही नहीं कई और भी हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- सन् 1951 से अब तक हिन्दी साहित्य में हुए लगभग सभी प्रमुख आंदोलनों के आप साक्षी रहे हैं? इन सभी दौरों में आपकी भूमिका तटस्थ दिखायी देती है चाहे वह नई कहानी का दौर हो या सचेतन कहानी का दौर, आप भीड़ से अलग खडे़ हैं। ऐसा स्वतः ही था या़......</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र-</b> (मुस्कराते हुए) देखिए! आपकी बात सही है। मैं कभी किसी आंदोलन के झण्डे तले नहीं आया। इसका प्र्रमुख कारण यह है कि मुझे हमेषा यही लगा कि आंदोलन सही ढंग से चलाए नहीं जा रहे हैं। कुछ लोग होते हैं जो अपने को केंद्र में स्थापित करके अपने पीछे कुछ लोगों को अपना झण्डा पकड़ा देते हैं। नई कहानी के समय बहुत से लोग <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>कहानियां लिख रहे थे लेकिन केंद्र में आए कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव और मोहन राकेश क्यों? क्योंकि तीनों साथ रहते थे, साथ योजनाएं बनाते थे, और तीनों स्वयं को ही केंद्र रखकर अपना माहौल बनाते थे जबकि उसी ..........................</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- अमरकांत.............</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र-</b> अमरकांत, भीष्म साहनी, रेणु थे और भी बहुत से लोग थे, हम जैसे लोग तो बहुत बाद में आए। हम लोग इन आंदोलनों के प्रत्यक्षदर्षी रहे हैं। मेरी कभी इच्छा नहीं हुई इन से जुड़ने की। सन् 1960 के बाद, जब मैं दिल्ली में ही था मैंने देखा किस तरह अकविता वाले, अकहानी वाले मिलकर योजनाएं बना रहे हैं, तय कर रहे हैं, कैसे-क्या <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>करना है? कौन सी पत्रिका निकालनी है? किसे ऊपर उठाना है, किसे डाऊन करना है? कौन- कौन आगे रहेगा आदि-आदि। मेरा मन कभी भी इस तरह के कृत्रिम आंदोलनों से नहीं जुड़ा। इसके कारण मुझे भारी नुकसान भी उठाना पड़ा क्योंकि आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास इन्हीं सही-गलत आंदोलनों के इतिहास के रूप में जाना जाता है। कहानी-कविता को अब प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कहानी-कविता, यथार्थवाद या अन्य किसी वाद के आधार पर परखा जाएगा। उस में उस झंडे के नीचे चलनेवाले लोग आ जाएंगे। आप देखिए, आप इस के माध्यम से पचास-साठ के दशक कविताओ, कहानियों की बात नहीं कर रहे हैं। इस बीच लिखी गई विशिष्ट कविताओं, कहानियों की बात भी नहीं कर रहे हैं। आप बात कर रहे हैं नई कहानी की, अकहानी की, उस के गढे जानेवाले फार्मूलों की, उस में उछलने वाले नामों की। इस उठा -पटक में हम जैसे लोग जो इन सब से अलग हमेशा अपने समय के साथ मुठभेड़ करते रहे हैं</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- भुला दिए जाते हैं............</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र-</b> बिल्कुल सही कहा आपने! इस तरह उन लोगों के नाम तो लाइट में आ जाते हैं और हमारे जैसे लोग उन लोगों के जैसे ही जागरूक और सक्रिय होने के बावजूद सामने नहीं आ पाते क्योंकि हम लोग किसी वाद से नहीं बंधे, किसी झण्डे के नीचे नहीं खड़े हुए। वादों से परे होकर भी हम अपने समय की अनुभूति, चेतना, बोध, परिवेश से गहरे जुड़े रहेे।(कुछ क्षण का मौन) मैं यह नहीं कह रहा कि सभी आंदोलन गलत थे, सही आंदोलनों के पीछे अपने समय का पूरा दवाब था। कहने का मतलब यही है कि हम भी कभी तटस्थ नहीं रहे अपने समय की आहट हमारी रचनाओं में भी वैसी ही है जैसी उन चर्चित नामों की रचनाओं में। आधुनिक कि हिन्दी साहित्य का जो इतिहास हमारे सामने है, उसकी विकृति यही है कि जो लोग वादों, आंदोलनों से परे ईमानदारी से केवल अपने रचनाकर्म को समर्पित रहे, उस में अपना स्थान नहीं बना पाए।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- अभी शताब्दी विशेषांक विभिन्न पत्रिकाओं ने निकाले हैं उन में भी आप अनुपस्थित हैं, क्या इसकी पृष्ठभूमि में भी ये ही सब कारण हैं?</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र- </b>(हंसते हुए) इन वादों के साथ-साथ हमारे यहां एक और बड़ा कारण इसका रहा है,गुटबाजी। एक गुट अशोक वाजपेयी का है, एक नामवर जी का है, एक राजेन्द्र यादव का है, इन से बाहर कुछ होने का सोचा भी नहीं जा सकता। सब कुछ इनके और इन्हीं इशारे पर चलनेवाले लोगों के ही हाथों में हैं। अधिकांश पत्रिकाएं, संस्थाएं इन लोगों के ही हाथों में हैं। सरकारी, अर्द्ध-सरकारी, विदेशी- प्रवासी समस्त आयोजन-प्रायोजन इन के इशारों पर होते हैं, उन में इन्हीं के लोग होते हैं। इसलिए जब कोई विशेषांक निकलेगा तो उस में वही सब होगा जो इन्हें पसंद होगा, इनके आचार- विचार का होगा। जो इन के नहीं हैं उन्हें अनदेखा या आउट करने में इन्हें मज़ा आताहै। हम जैसे लोग इन सब की परवाह नहीं करते क्योंकि हमारा मूल मंतव्य ईमानदारी से केवल लिखना- पढ़ना होता है। (व्यंग्य भरी हल्की मुस्कराहट) यह नहीं कि सुबह उठे और अपनी दौड़ शुरु कर दी- घर से लेकर साहित्य अकादमी, एनसीआरटी या अन्य किसी लाभदायक जगह तक। यह दौड़ होती ही रहती है। योजनाएं बनती हैं और तय किया जाता है किस को कहां- क्या करना है? जो इन के प्रिय नहीं हैं, कहीं बेमेल हैं, उन्हें कैसे रास्ते से किनारे किया जाए या हटाया जाए, इस पर गहन चिंतन-मनन किया जाता है। बावजूद इसके, इन सब के बीच इन से अलग जो बचे हुए हैं, वे केवल <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>और केवल अपने लेखन की ऊर्जा- ऊष्मा और अपने पाठकों की बदौलत हैं। ये इनकी परवाह क्यों करें -‘देगें क्या खुद ही भिखारी की बिछी चादर हैं आप।’</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- ऐसे लोगों की रचनाकर्म पर आलोचना की दृष्टि?</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र-</b> अरे भाई! आलोचना कोई इन से बाहर है क्या? उसके केंद्र भी तो ये ही सब हैं। उस <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>में भी इन्हीं सब बातों पर विचार करके लिखा- पढा जाता है .............</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- ‘लिखा तो मैंने भी पर झमेला ना हुआ, दर्द मेरा कोई नुमाईशी मेला नहीं हुआ’ रचना कहीं इसी स्थिति की पीड़ा का प्रकटीकरण तो नहीं है?</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र-</b> (हंसते हुए) ऐसी स्थिति नहीं है क्या, आप बताइए! एक तरह से अच्छा ही है जो मैं इन सब से दूर रहा। मेरा स्वभाव ही नहीं है ऐसा, चाहे घाटा हो या लाभ मैंने कभी किसी <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>समीकरण को महत्त्व नहीं दिया और न ही कभी किसी समीकरण में रहा।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- यह जानते हुए भी कि आज समस्त उपलब्धियों के मानदण्ड केवल मात्र समीकरण ही हो गए हैं। इस समीकरणबाजी ने पुरस्कारों के मामले में विष्णु प्रभाकर, आप जैसे वरिष्ठ रचनाकारों के साथ जो कुछ किया है, क्या उसे गरिमामय कहा जा सकता है?</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र- </b>आपकी बात सच है लेकिन आपको आश्चर्य होगा कि मुझे जब भी कोई पुरस्कार मिला मुझे स्वयं विश्वास नहीं हुआ कि यह मुझे मिलेगा? जितने भी मिले पहली सूचना पर मेरी पहली प्रतिक्रिया आश्चर्य ही की थी- अरे! यह मेरे पास कैसे आ गया? ‘दयावती मोदी’ शिखर सम्मान के लिए विद्यानिवास मिश्र जी ने मुझे फोन किया और बधाई दी तो मेरे धन्यवादकी प्रतिक्रिया में बोले, ‘‘धन्यवाद किस बात का भाई! यह तो आपको बहुत पहले मिल जाना चाहिए था वैगरह- वैगरह.......</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;"><br /></span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- अभी हाल ही में हिन्दी अकादमी का ‘शलाका सम्मान ........</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र- </b>वही तो मैं बता रहा था....। जीवन में कुछ चीजें न मिले तो फर्क नहीं पड़ता पर मिले तो स्वतः मिले तभी गौरव का बोध होता है। मुझे जितना मिला, ढंग से, आत्मसम्मान से मिला। अच्छा लगता है पर यही सब नाक रगड़ने पर मिले तो उसका क्या अर्थ है? मुझे नहीं मालूम था,पुरस्कारों के लिए लोग क्या- क्या करते हैं? लेकिन जब अरुण कमल को पुरस्कार मिला और उस प्रकरण में इन लोगों ने जब एक दूसरे की बखिया उधेड़नी शुरू की तब पहली बार पता चला कि ये लोग क्या- क्या करते है..। अब तो पुरस्कार पूर्वघोषित हो रहे हैं। पहले मैं भी यही सोचता था कि जो योग्य उसे मिल जाता है पर यहां आकर देखा तो अजीब ही परिदृश्य सामने था। सच मानिए इन सब बातों से पुरस्कारों की गरिमा के साथ- साथ उनकी विश्वसनीयता को भी नुकसान हुआ है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- इलेक्द्रोनिक मांइड के इस युग में मीडिया के समकक्ष आप साहित्य की भूमिका को किस रूप में देखते हैं?</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">रामदरश मिश्र- ( मुस्कराते हुए ) देखिए! यह एक अलग तरह की बात है। मीडिया अपना काम करता है साहित्य अपना। साहित्य की भूमिका तो वही रहेगी जो अब तक रही है। मीडिया की साहित्य के प्रचार- प्रसार में बहुत अहम भूमिका होती है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- क्या मीडिया अपनी यह भूमिका ईमानदारी से निभा रहा है?</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र-</b> मैं मानता हूं कि आज वह पूरा ईमानदार नहीं है फिर भी आप ने देखा होगा कि भीष्म साहनी के ‘तमस’,शरत्चंद्र के ‘श्रीकांत’,‘विराज बहू’ श्रीलाल शुक्ल के ‘राग दरबारी’ को दूरदर्शन के माध्यम से ही अधिक लोकप्रियता मिली है। कहने का तात्पर्य यह है कि मीडिया ने हमारे साहित्य को बहुत अधिक लोगों तक पहुंचाया है। यह एक बहुत बड़ा काम है मीडिया का। उसने हमारे उच्चस्तरीय साहित्य को घर, आंगन, चूल्हे-चक्की तक पहुंचाया है। एक समय तक बहुत ही सही ढंग से सच्चे अर्थों में मीडिया साहित्य के साथ था परंतु जैसे ही उपभोक्तावादी संस्कृति ने हमारे समाज, जीवन में घुसपैठ की <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>सब कुछ बदल गया क्योंकि इस संस्कृति का मुख्य उद्देश्य ही केवल और केवल मनोरंजन और पैसा बटोरना है। इस तरह मीडिया का जो प्रस्तोता वर्ग है वह पैसा इकठ्ठा करने में लगा है और दर्शक मनोरंजन। प्रस्तोता को यह चिंता नहीं है कि हम वह दर्शकों- पाठकों को अपने समय का श्रेष्ठ साहित्य दे। उसका ध्येय केवल मात्र इतना ही रह गया है कि कैसे कम से कम समय में अधिक से अधिक धन अर्जित किया जाए। आप देख ही रहे हैं आज के इन धारावाहिकों में कहीं कोई सर्जनात्मक इकाई नहीं है। कहां- कहां की कैसी- कैसी कथाओं का जोड़ होता है, आप समस्या का समाधान स्पष्ट देख रहे हैं लेकिन एकाएक उसे मोड़ दिया जाता है क्योंकि वह दर्शक रेटिंग में अच्छा चल रहा है और उसे और आगे चलाना है। इस तरह खुल्लेआम दर्शकों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ हो रहा है, सब जानते हैं। इस फांसमफांस में समस्या का समाधान सामने होते हुए भी दर्शकों को उलझा कर प्रस्तोता तो पैसे बटोर रहा है परंतु दर्शक को उसके समाधान की समझ प्राप्त नहीं होती, वह केवल मनोरंजन की लपेट में बंधा चला जाता है।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- क्या इसी वजह से आज साहित्य हाशिए पर चला गया है?</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र- </b>नहीं ऐसी बात नहीं है लेकिन एक बहुत बड़ी और गंभीर चुनौती साहित्य के सामने अचानक आ गई है। इस प्रक्रिया में चुनौती स्वीकारते हुए साहित्य अपना रूप नहीं बिगाड़ सकता, साहित्य तो साहित्य तभी है जब वह एक सर्जनात्मक ईकाई के रूप में हमारे सामने रहे। जहां वह गुदड़ी बन जाएगा, जोड़तोड़ बन जाएगा वहां साहित्य नहीं रहेगा। उसकी आवश्यकता ही क्या रहेगी? साहित्य की अपनी महत्ता सदैव बनी रहेगी भले ही किसी को यह लगे कि आज साहित्य हाशिए पर चला गया है...........वास्तविकता में ऐसा कुछ भी नहीं है! इस हल्ला-गुल्ला, प्रवाह के बीच अपनी छोटी सी इयत्ता के <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बावजूद सुरक्षित रहेगा।(कुछ पल का मौन) हां, आज के संदर्भ में मुझे लगता है कि हम साहित्यकारों को चाहिए कि हम स्वतः ही या किसी चुनौती के नाते अपने लेखन को संप्रेषणीय बनाएं। वह सहज लगे। किसी असंप्रेषणीय, उलझी हुयी रचना के बारे में यह तर्क उचित नहीं है कि यह रचना विशिष्ट है, महान है, इसे अलग ढंग से लिखा है, इसी वजह से सामान्य पाठक इसे समझ नहीं पा रहा है। यह सही नहीं है, अगर तुलसीदास, प्रेमचंद अपनी बात को पाठक तक पहुंचा सकते हैं तो अज्ञेय क्यों नहीं? अच्छा साहित्य वही होता है जो गहन तो हो- जीवन की तमाम गहनता को अपने में समेटे हुए, लेकिन साथ ही संप्रेषणीय भी हो, कहीं कम कहीं अधिक पाठक की ग्रहण करने की पात्रता के अनुसार अपने को खोलता हो। लेकिन कुछ रचनाएं अपने को इस तरह बंद किए रखती हैं कि पाठक के बार-बार कोशिश करने के बावजूद उनका तिलिस्म टूटता ही नहीं है। समझने के प्रयास में पाठक उलझता चला जाता है। कहने का अभिप्राय यही है कि साहित्य को संप्रेषणीय होना चाहिए, हलके होकर नहीं, अपनी पूरी गहनता के साथ। मीडिया की आज की चुनौती को देखते हुए यह और भी अधिक जरूरी और अनिवार्य हो जाता है। हमें सचेत होने की आवश्यकता है, हम ऐसा लिखें जो अधिक से अधिक पढे़-लिखे पाठकों तक पहुंचे। यहां मैं उन पाठकों की बात नहीं कर रहा हूं जो पढते नहीं हैं, या अपढ हैं। जो लोग साहित्य को पढ़ना चाहते हैं, केवल आप का लिखा न समझ पाने की वजह से साहित्य से विमुख हो रहे हैं। उन तक पहुंचिए आप!</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- इस दृष्टि से आज की हिन्दी कहानी को आप कहां देखते हैं?</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र- </b>आज की कहानी की बात हो या कल की कहानी-कविता की बात। यह अलग-अलग <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मिज़ाज पर निर्भर करता है। कुछ रचनाकार हमेशा सहज लिखते हैं, कुछ बिल्कुल इसके विपरीत असहज लिखते हैं। आज के कहानीकारों में भी कई हैं जो बहुत प्रयोग-धर्मी होना चाहते हैं। खुद की फैंटेसी की लपेट में पाठक को भी लपेटना चाहते हैं। उनके सिर कुछ आलोचकों का हाथ होने के कारण उनकी वे रचनाएं चर्चा में आ जाती हैं, उन पर प्रायोजित बहसें करायी जाती है। इसके विपरीत दूसरी ओर कुछ ऐसे रचनाकार भी हैं जिनकी रचनाएं पूर्ण सादगी, सरलता और सहजता से अपने परिवेश की बात करती हैं। जहां बात परिवेश की होगी, पूरी गहनता के साथ सादगी से होगी, वहां चीजें पहुंचेगी पाठकों तक।( दृढ़ता से) मैं तो कहूंगा- ‘वही चीजें देर तक टिकती है पाठकों के अंतर्मन में।’ जहां कथ्य ही उलझा हुआ है, कथ्य न होने के बावजूद कथ्य निर्मित किया जा रहा है, मन की परतों को इकठ्ठा कर एक जाल बुना जा रहा है और फिर उस जाल के लिए एक नया शिल्प-जाल और होता है। वहां पाठक बेचारा क्या करेगा? </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>नवनीत पाण्डे- जिन रचनाओं-रचनाकारों और आलोचकों की ओर आपका इशारा है, उन पर लगनेवाले आरोप-प्रत्यारोप-चर्चाएं भी क्या इसी तरह चर्चा में बने रहने के लिए प्रायोजित होती हैं, जैसा कि अभी पिछले दिनों उदयप्रकाश की कहानियों के बारे में पढने को मिला? उन पर कहानियां चुराने का आरोप लगाया गया है। एक और बात, क्या एक रचनाकार की गरिमा को शोभा देता है कि वह अपने अपने प्रतिद्वंदी रचनाकार को अपनी रचना का पात्र बनाकर प्रस्तुत करते हुए स्वयं को नायक और उसे खलनायक के रूप में स्थापित करने का प्रयास करे, जैसा कि किया जा रहा है?</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र- </b>(मुस्कराते हुए) आप शायद ‘वारेनहेस्टिंग का सांड’ के बारे में कह रहे हैं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- हां, उसके अलावा अभी ओमेंद्रकुमार सिंह की एक कहानी ‘झूठ की मूठ’ के बारे में भी ऐसा ही कुछ कहा जा रहा है।</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र- </b>आपने सही कहा, कमलेश्वर ने भी यह बात उठायी है, चर्चा में तो है ही। दूधनाथ सिंह ने भी एक लंबी कहानी ‘अंधकाराय नमो नमः’ लिखी थी। समकालीन कहानी में ये कहानियां भी हैं, लेकिन ये ही नहीं है, ‘अगर कहीं मैं तोता होता, तोता होता तो क्या होता’ इसी तरह की अन्य पंक्तियों को कोट करते हुए अध्यापक छात्रों को बताते थे कि यही नई कविता है। अज्ञेय ने लिखा, ‘अल्ला रे अल्ला,..........होता करम कल्ला।’ इसे अगर अज्ञेय की कविता मानकर कोट कर दीजिए तो कैसा लगेगा? ये सब रंग हैं एक खेल के। ये खेल अपने-अपने समय में अपने-अपने ढंग से प्रायःसभी रचनाकारों ने किए हैं। अज्ञेय ने भी ये खेल किए हैं। कहानियां ऐसी भी लिखीं जा रही हैं जो बड़ी सादी हैं, उन्हें बड़ी संजींदगी से अपने समय की पड़ताल करके लिखा गया है लेकिन <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>चिंता की बात ये है कि जिन कहानियांे की बात आपने की है, उनकी चर्चा ही की जा रही है। उनकी ही महत्ता की स्थापना की जा रही है। कुछ आलोचक हैं जो ऐसे रचनाकारों के सिर पर छाया किए बैठे रहते हैं जैसे ही कुछ ऐसा होता है,वे सक्रिय हो उठते हैं, यही चिंता की बात है। यही बात कविताओं के संदर्भ में भी है। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="font-size: large; white-space: pre;"> </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- हां, पिछले दिनों एक कविता ‘प्रेम करती हुयी मां’ अचानक ही चर्चा में आ गयी थी?</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र-</b> ऐसा पहले भी होता रहा है लेकिन लोगों को नंगा करने की कोशिश आज की कहानियों में दिखायी दे रही है। बदला लेने की इस प्रवृत्ति को सृजन नहीं कहा जा सकता। आप चाहे उसे कितने ही कौशल से प्रस्तुत करें, वह अपनी पोल खोल देगी, खोलती ही है। पोल खुल रही है और जब पोल खुलती है तो ‘उघरे अंत न होहु निबाहू’ वही होता है। जैसा मैंने कहा, ऐसे खेल पहले भी होते रहे हैं। ‘अश्क’ ने ‘अज्ञेय’ पर कहानी लिखी थी पर आज तो ज्यादा ही हो गया हैं ......भड़ास निकालने का यह ढंग <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>पाठक के साथ भी अन्याय कर रहा है। आप अपनी भड़ास निकालिए लेकिन रचना में क्यों? पाठक ने क्या जुर्म किया है जो आप यह सब उस पर लादे जा रहे हैं। यदि कोई इन बातों की आलोचना करता है तो आप गुस्सा हो जाते हैं। पाठक को अधिकार है अपनी बात कहने का। आप लेखक हैं, आपने लिखा है। आप सुनिए, सहिए पाठक की टिप्पणी को, उसे अन्यथा क्यों लेते हैं। अगर कोई बात असत्य है तो प्रमाणित कीजिए।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- साहित्य से इतर एक प्रश्न, कछार गांव से आए बरसों पहले के युवक रामदरश और आज की दिल्ली के रामदरश मिश्र में आप क्या परिवर्तन महसूस करते हैं?</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र-</b> (हंसते हुए) यह तो आप महसूस कीजिए!</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- मेरा मंतव्य है कि उस युवा और इस प्रौढ़ ने अपने जीवन में अब तक ऐसा क्या खोया-पाया है जिसे रेखांकित किया जाना चाहिए?</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र-</b> (उसी मुस्कराहट के साथ)मेरी एक गज़ल की एक पंक्ति से शायद आपको अपने इस प्रश्न का उत्तर मिल जाए, ‘ज़मी खेत की साथ लेकर चला था, उगा उस में कोई शहर धीरे-धीरे।(एक अट्टहास)</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- आपकी अधिकतर कहानियों में जैसे काव्यात्मक भाषा के साथ-साथ ग्रामीण परिवेश <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>पूरी गहनता के साथ नजदीक से देखने को मिलता है, ठीक वैसे ही आपकी कविताएं भी इससे अछूती नहीं है। संग्रह पढने का अवसर तो मुझे नहीं मिला लेकिन पत्रिकाओं में प्रकाशित आपकी कविताओं में इस समय मुझे स्मरण आ रही कुछ कविताएं- विरासत, कहां है मंजिल, हंसो मेरे साथ, मेज़ आदि। बरसों से दिल्ली प्रवास के बावजूद इनमें परिवेश कछारवाला ही दिखायी देता है। कहने का तात्पर्य यह कि महानगरीय जीवन जीते कविमन की कविताओं में अभी भी ग्रामीण <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जीवन की अनुभूतियां रची-बसी है?</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र-</b> इस प्रश्न के उत्तर में मुझे आपके इससे पहले वाले प्रश्न को भी जोड़ना पड़ेगा। जो कछार के रामदरश थे वे कहीं न कहीं आज के रामदरश मिश्र में बहुत गहनता के साथ बने हुए हैं। बचपन की जो जमीन होती है, बड़ी पुख्ता होती है। मैं सोचता हूं जिसकी अपनी कोई ज़मीन नहीं होती, वह बड़ा अभागा होता है। आज तो शहरों में बच्चे पैदा होते हैं, शहरों में मोहल्ले होते हैं, आस-पास के बच्चे होते हैं, सहपाठी होते हैं। फिर कुछ साल बाद पिता का तबादला हो गया तो वहां से चले गए। फिर एक नई <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>ज़मीन बनती है उनकी, नए मित्र बनते हैं। ऐसी स्थिति में अपनी ज़मीन को पहचान पाना मुश्किल हो जाता है। इस तरह के आवागमन में किसी भी ज़मीन की गहरी स्मृतियां बन नहीं पातीं मानस में। लेकिन जो गांव का आदमी है, खासकर एक संवेदनशील मनवाला गांव का आदमी। उसके मन के भीतर अपना गांव बड़ी शिद्दत के साथ गहरे बसा होता है। कारण यह है कि जीवन की पहचान आप वहीं से शुरू करते हैं, वहीं आपकी आंखें खुलती हैं, वहीं आप पहचानते हैं दूसरी चीजों को, आंगन से बाहर निकलते हैं, खेत की ओर निकलते हैं, स्कूल की ओर निकलते हैं, मेले-हटियों की ओर निकलते हैं, अपने अनुभव का विस्तार करते हैं। धीरे-धीरे क्रमशः जीवन में बनी सम्बन्धों की, चरित्रों की, सुख-दुःखों की ये पहचानें आपके चेतन का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन जाती हैं। बीस-पच्चीस वर्ष की अवस्था तक पहुंचते-पहुंचते अपने भीतर आप अपना एक संसार बना लेते हैं। ये जो बचपन की अनुभूतियां-स्मृतियां हैं, वे आपके भीतर, किसी नॉस्टेलजिया के रूप में नहीं बल्कि जीवन की मूलभूत पहचान के रूप में हमारे बीच होती है। जब भी आप कोई कहानी लिखना चाहते है सम्बंधो की, वे सारे सम्बंध आपके सामने आते हैं जो गांव के लोगों के बीच होते हैं। गांव में आपको हर तरह का चरित्र मिल जाएगा, हर समस्या के साथ, हर अनुभव के साथ, हर रंग के साथ। (स्मृतियों में खोते हुए) उनके साथ आपका अनुभव इतना गहरा होता है कि आपको यह कल्पना करनेे की आवश्यकता नहीं रहती कि इस स्थिति में क्या हो सकता <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>है? आप घर-घर में झांकते हैं, आर-पार देखते हैं। आपको पता है- किस के घर आज चूल्हा नहीं जला है? किस के चेहरे की हंसी झूठी है? सबसे बड़ी <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बात ये है कि गांव आपके लिए एक स्थिति मात्र नहीं होता, वह एक विजन बन जाता है, एक दृष्टिकोण बन जाता है। इसी प्रकार कछार मेरे भीतर रचा-बसा हुआ है। प्रकृति को मैंने उसके विस्तार में, उसके तमाम रंगों में देखा है- जैसे मौसम कैसे आते हैं-जाते हैं, मौसम के साथ आदमी कैसे गाता-हंसता-रोता है, फसलें हंसती हैं, लहलहाती हैं, कटती हैं, नदी बहती है, बाढ़ आती है, लाशें बहती हैं, जानवर बहते हैं, सूखा पड़ता है? और भी न जाने कितने कैसे-कैसे दृश्य? अच्छे, भयकारी दृश्य। मेले-हटिये, लोगों का खाली पेट हंसना, झगड़ा करते हुए भी एक-दूसरे के साथ समरस रहना, लोगों के मरने-जीने, शादी-ब्याह में लोगों का एक साथ एक लय की तरह चलना। यह सब आपके भीतर एक स्थिति के रूप में नहीं बल्कि एक सम्बंध के रूप में, एक दृष्टि के रूप में, एक मूल्य के रूप में होता है। कैसे लोग थे, कितने अच्छे थे? उस गरीबी में भी कितना उल्लास था? ये स्मृतियां आपको फिर से बनाती हैं, आपकी रि-मेकिंग करती हैं, आपके भीतर जो अच्छाइयां हैं, इंसानियत है, उन्हें नया करती हैं। सबसे बड़ी बात यह कि धीरे-धीरे जो शहर उगा है, वह उसी ज़मीन पर उगा है। उसी पर शहर के नए अनुभव उगते चले गए हैं। इस प्रकार गांव की ज़मीन और निरंतर यात्राओं के साथ बनते अनुभव उस ज़मीन से जुड़ते गए और उन नए अनुभवों की जड़ें भी वहीं कहीं हैं। ये अनुभव आधुनिक काल के बनकर कहीं चुक नहीं जाते हैं बल्कि कहीं न कहीं गांव से जुड़कर अपना मूल्यांकन भी करते हैं कि उस दृष्टिकोण, उस परिपेक्ष्य में हम क्या हैं? आधुनिकतावाद आया, अकविता आई, अकहानी आई लेकिन मैं उनके साथ नहीं हो पाया क्योंकि मेरा मानना था कि इनकी अपनी कोई ज़मीन नहीं है। ये सब हवा में उड़कर पश्चिम से आए हैं और कुछ लोगों ने इन्हें अपने गमलों में लगा दिया है। यह देखना जरूरी है कि बाहर से आया वाद हमारे परिवेश में कितना फलीभूत होता है, रूपायित होता है? आज भी मैं जहां रह रहा हूं वहां <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान से आए मजदूर हैं, रिक्शेवाले हैं। पूरा माहौल-परिवेश लगभग गांव जैसा ही है। रचनाकर्म में मैं हमेशा अपने समय की चेतना के साथ रहा हूं लेकिन परिवेश में रहते हुए। परिवेश से अलग कोई चेतना मुझ तक नहीं आई। हमेशा देखता रहा कि यह जो सिद्धांत आ रहा है, बात आ रही है, कहां दिखायी पड़ रही है? कहां चरितार्थ हो रही है? चरितार्थ होने पर ही इमेज बनती है। आप फैंटेसी के माध्यम से जिन सिद्धांतों को गढ़ रहे हैं वे तो हवाई होते हैं। अपनी कल्पना से इमेज गढ देना अलग बात है और इमेज जन के बीच से उठाना बिल्कुल अलग <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बात। यही सब कुछ चलता रहा मेरे साथ.......................</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="font-size: large; white-space: pre;"> </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे- इन दिनों क्या लिख रहे हैं आप?</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><b>रामदरश मिश्र- </b>अभी एक कविता मैंने शुरू की है जो ‘कलम’ के बारे में है। मैंने ‘मेज’ के बारे में कविता लिखी। इसी तरह घर की कई चीजों पर कविताएं लिखी जैसे चम्मच, झाड़ू, चाकू, कुर्सी, पंखा आदि पर। मुझे लगा कि ये चीजें हमारी कितनी अपनी हैं, जीवन के साथ इनका कितना जुड़ाव है? और ये हमारे लिए मात्र एक सामान बनकर रह गयीं हैं। उनके साथ हमारी संवेदनाएं कितने गहरे जुड़ी हैं, मैंने महसूस किया और इन पर कविताएं लिखीं। इसी क्रम में एक लंबी कविता भी चल रही है,‘कलम’ पर। इसके अलावा कहानियां, संस्मरणों पर भी कार्य चलता रहता है। स्वास्थ्य के अधिक साथ न दे पाने के कारण गति कुछ धीमी है लेकिन चल रहा है.........................</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<div style="text-align: right;">
<span style="font-size: large;">नवनीत पाण्डे</span><br />
<div>
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
</div>
<div style="text-align: right;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
</div>
</div>
</div>
नवनीत पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/14332214678554614545noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4402945881693099939.post-70349105462030772392013-03-25T08:16:00.000-07:002013-03-25T08:25:21.860-07:00कहानी दिशाहीन कलम की अणचींती लिखत¹ - रामस्वरूप किसान<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj0G9kdu77zj7HaSPmq_Af2kP9PwTurB5tpUte35u1s2vKv_XvWWUBtgtxeRqTg3hFXTquUXBOcl_fW1ka26etzCXuIeVio5z7yhK8M_AptC4P0EH5ujFNnNcLh5ed8JQLKlljgGujTUZQ/s1600/ram+swaroop+kisan.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj0G9kdu77zj7HaSPmq_Af2kP9PwTurB5tpUte35u1s2vKv_XvWWUBtgtxeRqTg3hFXTquUXBOcl_fW1ka26etzCXuIeVio5z7yhK8M_AptC4P0EH5ujFNnNcLh5ed8JQLKlljgGujTUZQ/s200/ram+swaroop+kisan.jpg" width="162" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">रामस्वरूप किसान</td></tr>
</tbody></table>
<br />
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span><b>राजस्थान के छोटे से जिले हनुमानगढ के नोहर कस्बे के छोटा सा गांव-देहात परलीका अब एक अंतर्राष्ट्रीय पहचान पा चुका है और इसे यह पहचान दिलायी है यहां से डा. सत्यनारायण सोनी और रामस्वरूप किसान के संपादन में निकलनेवाली राजस्थानी त्रैमासिक कथा पत्रिका ’कथेसर’ ने। हजार के लगभग जनसंख्या वाले इस गांव ने राजस्थानी साहित्य को कई युवा और प्रतिभावान रचनाकार देने के साथ ही एक ऎसा रचनाकार-संपादक भी दिया है जिसकी अकादमिक शिक्षा को देखते हुए विश्वास करना कठिन लगता है कि पेशे से साठ-पार यह किसान ऎसी विलक्षण प्रतिभा का धनी है, यह नाम है रामस्वरूप किसान। राजस्थानी के समर्थ कवि, अनुवादक व कहानीकार । साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित। अब तक आठ पुस्तकें प्रकाशित। रचनाओं के अंग्रेजी, हिंदी, पंजाबी, तमिल, तेलुगु, मलयालम और मराठी भासाओं में अनुवाद भी हुए हैं । रामस्वरूप किसान और राजस्थानी के प्रख्यात कथाकार डा.सत्यनारायण सोनी ने अपने संपादन में ’कथेसर’ जैसी कथा त्रैमासिक देकर राजस्थानी साहित्यिक पत्रकारिता में एक नई ऊर्जा का संचार किया है। कथेसर के ताज़ा अंक में रामस्वरूप किसान ने कहानी को लेकर जो संपादकीय लिखा है, वह इसलिए बेजोड़ है कि वह कहानी के मुहावरे, परिभाषा को एक नई दृष्टि से जानने, समझने को प्रेरित करता है। ’बीच बहस’ में उस संपादकीय का भावानुवाद सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत है।</b></div>
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<b>कहानी दिशाहीन कलम की अणचींती लिखत</b><span style="text-align: justify;"><b>¹</b></span></div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span><b>कहानी</b> लिखने के अनेकानेक तरीके हो सकते हैं। किसी विधा के सृजन का एक सर्वमान्य तरीका खोजना कठिन ही नहीं असंभव है लेकिन फ़िर भी किसी अनगढ वस्तु को गढ़ने के लिए कोई न कोई सही तरीका जरूर होता है। जिससे वह वस्तु एक नायाब वस्तु बन जाती है। कुछ ऎसी सृजन प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई कहानी बेजोड़ कहानी बन जाती है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>कहानी दिशाहीन कलम का बैगर सोचा-समझा लेखन है। यहां दिशाहीन कलम से मेरा तात्पर्य कहानी के कलम के इशारे पर न चलकर कलम को अपने इशारे पर चलाने से है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो कहानी के इशारे पर कलम चले न कि कलम के इशारे कहानी। कहानी भटकी हुयी कलम की मंजिल है। जैसे चौंधियाया हुआ व्यक्ति अजीब परेशानी में अज़ीब जगह पहुंच जाता है । उसका ये अजीब ही कहानी है। ये चौंधियाना सायास नहीं अनायास होता है। चलने से पहले सारा सफ़र और मंजिल उसकी आंखों में होती है। फ़िर लेखक के मन ऎसा तूफ़ान आता है कि उसके भंवर में फ़ंस उसका एक-एक कदम अगली दिशा में उठने लगता है। और अंतत्वोगत्वा उसे एक अलग ही मंजिल पर पहुंचा देता है जहां उसके पास एक आश्चर्य और रोमांच के सिवा कुछ भी नहीं होता। ये आश्चर्य और रोमांच ही कहानीपन है। इस तरह कहानी एक ऎसा सफ़र है जिसकी मंजिल पहले से तय नहीं होती। हां, कहानीकार के मन पहले से एक कहानी जरूर होती है पर वह कलम की हद में नहीं आ पाती। इसे कलम की हद में लाने की जिद कहानी को अवांछित विवरणों और ब्यौरों से भर उसे महज़ एक दस्तावेजी या अखबारी रिपोर्ट बना डालती है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मैं यहां एक अच्छी कहानी के बारे में बात करना चाहता हूं जिसका सृजन एक अद्भुत प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में जब कोई कहानीकार कागज़ पर अपनी कलम चलाता है तो सबसे पहले सोची हुयी कहानी ही उसके अवचेतन में होती है। और उसका चेतन मन कहानी को अपनी राह ले चल पड़ता है। यहां कहानी और मन ऎसे एकमेक हो जाते हैं कि यह जानना कठिन हो जाता है कि मन कहानी कह रहा है या कहानी मन को। हां, एक बात साफ़ है कि श्रेष्ठ कहानी मन के मार्ग से होकर ही कहानी बन पाती है। उससे वांछित चीजों की मांग करते हुए अनिश्चय कें भंवर डोलती-डोलती खुद की मंजिल हासिल करती है। इन सारी प्रक्रियाओं में अवचेतन में फ़ीड पहले से मौजुद कहानी उत्प्रेरण का काम करती है। वह अवचेतन का खिलौना बन चेतन मन में उत्साह जागृत करती रहती है। उसे भटकने से बचाती है। यही कहानी की संश्लेषण प्रक्रिया है जिसके माध्यम से सृजित कहानी ही एक बड़ी और स्मरणीय कहानी हो पाती है। बाकी अधिकतर कहानीकार तो आदि और अंत के बीच जो भरा जा सके भरकर कहानी लिख मारते हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>कहानी इस सूत्र से नहीं लिखी जाती कि इसमें क्या-क्या लिखना, रखना है बल्कि इस सूत्र से रची जाती है कि इस में क्या-क्या अपने आप ही आ गया है। कहानीकार का यह अनिश्चय ही पहले से तयशुदा सोची हुयी कहानी में होता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>सभी विधाओं में कोई न कोई कहानी होती है लेकिन कहानी में किसी अन्य विधा की अंशमात्र घुसपैठ ही उसे कमज़ोर बना डालती है। कहानी तो जीरे की खेती है जिसमें जरा भी चूक फ़सल खराब कर देती है। जैसे कविता का अंश कहानी की संवेदना को आहत करता है। कविता का मूल तत्त्व भाव, कल्पना होने के कारण कविता की अलंकृत भाषा कहानी की भाषा नहीं हो सकती जबकि कहानी का मूल तत्त्व यथार्थ, तथ्यों पर आधारित होता है। दोनों ही एक-दूसरे के विरोधी। नाटक की मिलावट से कहानी में व्यंग्य प्रहसन हो जाने के खतरे रहते हैं तो निबंध से कहानी वर्णन और विवरणों का पुलिंदा मात्र बन कर रह जाती है और औपन्यासिक विस्तार से कहानी के राम-कहानी हो जाती है। </div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>सारांश में कहूं तो मेरी दृष्टि में कहानी एक संवेदना की टकसाल है जिसमें विषय और कथावस्तु का मात्र उतना ही रोल होता है जितना किसी कला-चित्र में कैनवास का। कह सकते हैं कि विषय-वस्तु केवल एक माध्यम भर है कहानी कहने का। कहानी के कुछ समीक्षक जहां कहानी के विषय को समीक्षा का महत्त्वपूर्ण कसौटी मानते हैं तो कुछ वस्तु को और कुछ कहानीकार द्वारा उस विषय-वस्तु को कहानी के रूप देने वाली भाषा, शिल्प- शैली आदि औज़ारों को। (साभार-कथेसर)</div>
<div style="text-align: right;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span></div>
<div style="text-align: right;">
<b style="text-align: left;">- रामस्वरूप किसान</b></div>
<div style="text-align: right;">
<b style="text-align: left;">संपादक , कथेसर(राजस्थानी त्रैमासिकी)</b></div>
<div>
<b style="text-align: left;"><br /></b></div>
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1 बिना पूर्वानुमान का लेखन</div>
</div>
नवनीत पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/14332214678554614545noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4402945881693099939.post-61714865799618757472013-03-02T23:04:00.000-08:002014-04-03T06:01:08.073-07:00बड़े मुंह छोटे बोल<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi1qvMx7H7GnqoNZ7PAqDWI7-8_LHoMgQzvWpmc14CkM9hV1uY6-oLAsmrcG2fwpwnxHEjXC2VGqboeFj7EYfxEkeIVI4yZcuX8zekkkBXYA3r4DHcQZEUxwbcNEwSLk8KfEB70D-K5aSA/s1600/30122012215.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi1qvMx7H7GnqoNZ7PAqDWI7-8_LHoMgQzvWpmc14CkM9hV1uY6-oLAsmrcG2fwpwnxHEjXC2VGqboeFj7EYfxEkeIVI4yZcuX8zekkkBXYA3r4DHcQZEUxwbcNEwSLk8KfEB70D-K5aSA/s200/30122012215.jpg" height="200" width="150" /></a></div>
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<b>मित्रो! देखने में आया है कि बड़े राजनेताओं, मंत्रियों की तरह बड़ी, वरिष्ठ बुध्दिजीवी और विचारवान हस्तियां भी सहनशीलता में अपच का शिकार होने लगी हैं और वे भी अपने वक्तव्यों में शालीनता व मर्यादाएं भूलने लगी हैं.... </b><b>बड़े मुंह ये छोटे बोल.... आहत करनेवाले,</b><b> चिंताजनक और विचारणीय है। इसका ज्वलंत उदाहरण अपनी व्यक्तिगत नाराजगी की भड़ास निकालते हुए जनसत्ता के चर्चित संपादक, वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी जी ने अपनी एक पोस्ट में फ़ेसबुक से जुड़े शिक्षकों, लेखकों और पत्रकारों को भी लपेटे में ले लिया। कुछ अपवादों को छोड़ दें शायद ही कोई उनके आकलन से सहमत हो </b><br />
<b><br /></b></div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>ओम थानवी जी ने एक-दो दिन पहले अपनी एक पोस्ट में उज्जवल भट्टाचार्य की वाल की "मेरी सारी टिप्पणियां अल्पज्ञान पर आधारित है, इसलिये हमेशा शंकित रहता हूं। और रश्क के साथ देखता हूं कि कुछ मित्र बिना कुछ जाने स्वच्छंदता के साथ अपनी बात कहते हैं।" के बहाने फ़ेसबुक से जुड़े लोगों पर बहुत कठोर टिप्पणी की वह भी तब जब ओम थानवी जी स्वयं भी उसका एक हिस्सा अरसे से बने हुए हैं और फ़िर भी कह रहे हैं ”फेसबुक पर लोग दिन में कितना-कितना ज्ञान बांटते फिरते हैं ! निस्संकोच। गुरु-गंभीर मुद्रा में। जो दिल में आए, लिख मारते हैं। जैसे दुनिया भर का वैचारिक बोझ उन्हीं पर हो ! मुझे लगता है ऐसे फेसबुक बाबाओं में ज्यादातर वे हैं जो विफल शिक्षक, विफल लेखक या विफल पत्रकार रहे हैं।” क्या आप भी ये सद्कर्म यहां नहीं करते? ”हालांकि मैं भी सफल लोगों में नहीं (वरना किसी चैनल पर कव्वे न लड़ा रहा होता!); पर जिन्हें ज्ञान का अजीर्ण है, अपने कहे पर जरा संशय नहीं, उनका क्या करें?” थानवी जी अगर जनसत्ता में रहकर भी सफ़ल नहीं है तो फ़िर इनकी दृष्टि में सफ़लता के अर्थ व कसौटी क्या है? साहित्य का एक विद्यार्थी होने के नाते जानना-समझना चाहूंगा। इनकी पोस्ट पढते हुए केवल अपवादों को छोड़ दें तो फ़ेसबुक पर कोई उपदेशदाता, ज्ञानबघारक 'बाबाओं' के एकालाप नहीं करता, अधिकतर को अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियां, चित्र, किसी न किसी विषय-मुद्दे पर अपना दृष्टिकोण, सोच को ही सामने रखते देखा है। इस बहाने वे किसी पर व्यक्तिगत निशाने साधने की कोशिश करते दिखायी देते हैं... </div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>थानवी जी आज जहां हैं..जैसे हैं..यह वक्तव्य कम से कम मेरे जैसे साहित्यिक पाठक को आश्चर्यचकित करने वाला है कि उन जैसा संजीदा, विचारक, विश्लेषक व्यक्तित्व किसी से अपनी व्यक्तिगत नाराजगी, कड़ुवाहट को इस तरह और ऎसी भाषा में कैसे सरे आम अभिव्यक्त कर सकता है वह भी एक ऎसे मुकाम पर पहुंचकर? यह सोशल नेटवर्किंग साइटों की ही उपलब्धि और विशेषता ही है, जहां आप ऎसा कर पाए, जहां किसी का एकाधिकार नहीं, ठेकेदारी न होकर एक सम्पूर्ण स्वतंत्र लोकतांत्रिक प्रणाली है, भाई अशोक कुमार पाण्डे की एक पोस्ट के शब्दों को उधार लूं तो ”बहुत कन्सेंस कीपर हैं यहाँ. रोज़ फेसबुक यूजर्स को एक ठो सलाह ठेल देते हैं भाई लोग. जैसे सब इनकी गुरुवाई सुनने को बेकल हैं...भैये यह माध्यम न आप लोगों ने किसी को दिया है न किसी ने आप लोगों से कोई सलाह मांगी है..जो अच्छा लगे कीजिए...न अच्छा लगे न कीजिए और यही औरों को भी करने दीजिये. यहाँ किसी की दादागिरी नहीं चलने वाली..आपकी भी नहीं” से सहमति दर्ज़ कराते हुए इस में एक बात और जोड़ना चाहूंगा कि यहां सम्पादकीय धूर्तताओं को भी जगह नहीं है। शिक्षण, साहित्य और पत्रकारिता जगत के फ़ेसबुक से जुड़े शिक्षकों, लेखकों और पत्रकारों के बारे में थानवी जी का यह आकलन भी आहत करने वाला है..वे ऎसा सोच ही कैसे सकते हैं? सिर्फ़ इसलिए कि उन्हें किसी से अपनी खुंदक निकालनी है। और इसके लिए उन्होंने फ़ेसबुक पर मौजुद अधिकतर शिक्षकों, लेखकों और पत्रकारों को विफ़ल होने का सर्टिफ़िकेट जारी कर दिया। जैसा कि मैंने पहले निवेदन किया उन जैसे संजीदा और विविध विषय-मर्मज्ञ व्यक्तित्व की कलम ऎसी चूक कैसे कर सकती है, लेकिन यह कड़वा सच है। अपनी टिप्पणी में वे जिस ईमानदारी की वकालत करते हैं, इस पोस्ट में खुद उनकी बेईमानी दिखायी देती है और वे कहीं पे निगाहें कहीं पर निशाना वाला अपना पसंदीदा खेल खेलते नज़र आते हैं। फ़ेसबुक जैसी सोसल नेटवर्किंग साइटों ने कुछ अपवादों (मनीषा पाण्डे, कट्टर पंथियों व उन जैसे अपने पूर्वाग्रहों से पीड़ितों को छोड़) सभी को, सभी से संवाद का एक बहुत बड़ा मंच दिया है जिसकी वजह सामाजिक, सांस्कृतिक, कला क्षेत्र में काम करनेवाली नामी-गिरामे हस्तियों से लेकर गुमनाम नामों तक, के बीच संवाद कायम करते हुए, बीच की खाई तो पाटी ही है, साथ ही बहुतेरे उजले-काले अध्यायों को भी सामने रखा है और जिन पर गंभीर चर्चाएं, समीक्षाएं हुयी है। फ़ेसबुक के ही कई शिक्षकों, लेखकों पत्रकारों की रचनाओं को देश की लब्ध-प्रतिष्ठ ( प्रिंट मीडिया) पत्र-पत्रिकाओं ने स्थान देते हुए उनके लेखन को उद्धत भी किया है। </div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मेरे विचार से फ़ेसबुक से जुड़े उन सभी शिक्षकों, लेखकों और पत्रकारों को अपना विरोध दर्ज कराना चाहिए जिनकी काबलियत पर उन्होंने अंगुली उठाते हुए इस तरह का फ़तवा दिया है। उन से ससम्मान एक ही सवाल पूछना चाहता हूं ..सफ़लता से उनका आशय क्या है...वह जो उन या उन जैसे लोग जहां, जो कर रहे हैं लेकिन यह सफ़लता कैसे हैं, वह तो उनकी या उन जैसे लोगों की काबलियत के आधार पर लगी नौकरी है जिसके लिए उन्हें तनख्वाह मिलती है? और यह काबलियत तो मेरा विश्वास है कि फ़ेसबुक से जुड़े शिक्षकों, लेखकों और पत्रकारों में भी है ही, फ़िर वे विफ़ल कैसे हैं? या सफ़लता से उनका तात्पर्य दिल्ली के पत्र-पत्रिकाओं में छपनेवाले या दिल्ली में रहनेवाले शिक्षकों,लेखकों और पत्रकारों से है। क्या वे कहना चाहते हैं कि फ़ेसबुक से जुड़े उदय प्रकाश, राजेन्द्र यादव, बोधिसत्व, नंद भारद्वाज, प्रेमचंद गांधी, मोहन श्रोत्रिय(जिन्हें आपने बाबा घोषित किया है), दुर्गा प्रसाद अग्रवाल, बोधिसत्त्व, मायामृग, अरुण मिश्र, अरुणदेव महेश पुनेठा, प्रभात रंजन, अशोक कुमार पाण्डे, डा. पुरुषोत्तम अग्रवाल, आशुतोष कुमार, दिविक रमेश, श्याम बिहारी श्यामल, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, पूर्णिमा वर्मन, डा. कविता वार्चष्णेय, सुमन केशरी अग्रवाल, रति सक्सेना, वंदना शर्मा, वंदना ग्रोवर, लीना मल्होत्रा, अपर्णा मनोज, मनीषा कुलश्रेष्ट, अंजु शर्मा, विपिन चौधरी, विमलेश त्रिपाठी, नीलोत्पल,नीलकमल, पंकज प्रसून आदि-आदि..सब(लिस्ट बहुत लम्बी है, कितने नाम लूं क्षमा करें... मित्रो! मैने यहां वरिष्टता सूची का ध्यान नहीं रखा है ) आदि जो देश की लगभग सभी लब्ध-प्रतिष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में छपें है और समान रूप से फ़ेसबुक पर भी सक्रिय है और विश्व के सभी सम सामयिक विषयों और घटनाक्रमों पर अपनी दृष्टि के अनुसार विचार शेयर करते हैं.. विफ़ल लोग हैं? और सिर्फ़ इसलिए कि उदारीकरण, व्यावसायिकरण और बाजारवाद की वजह से उनके स्थान देश के घरानों की पत्र-पत्रिकाओं में रचना-विचार-मंथन के कालम में दस प्रतिशत से भी कम में सिमट कर रह गए हैं .. और सोशल नेट वर्किंग साइट पर वे अपने आपको अपनी तरह अभिव्यक्त कर पा रहे हैं और ऎसा करने के लिए उन्हें यहां किसी सम्पाक के खेद व अभिवादन और किसी के सर्टिफ़िकेट की जरूरत नहीं है।</div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>कुछ तो कमाल-धमाल होगा ही फ़ेसबुक के लोकतंत्र में कि जो बात आप कहीं और नहीं कह पाते, वहां उनकी सीमाएं हैं, वे यहां साझा करते हैं... और उनकी पोस्ट के प्रत्युत्तर में जो मैं उनके सामने नहीं कह पाता, शायद वे इजाजत भी नहीं देते .. इस विश्व मंच पर कहने के लिए स्वतंत्र हूं.. भले वे इसे मेरी कुंठा, विफ़लता या किसी भी विशेषण से नवाज़े तो नवाज़े... इस पूरे प्रकरण के बारे में लिखते हुए मुझे रहीम जी का यह दोहा कई बार याद आया </div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span></div>
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रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून, पानी गए न ऊबरे, मोती मानस चून।</div>
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नवनीत पाण्डेhttp://www.blogger.com/profile/14332214678554614545noreply@blogger.com5