Tuesday, 20 August 2013

स्वस्थ बहस की शुरूआत ही अकादमियों की मनमर्जी पर लगा सकेगी अंकुश- दूलाराम सहारण

मेरी बात -


मित्रो! बीच-बहस में "तो असल बात और पीड़ाएं ये हैं" पोस्ट के प्रत्युत्तर में मित्र दूलाराम सहारण ने बीच-बहस के लिए "स्वस्थ बहस की शुरूआत ही अकादमियों की मनमर्जी पर लगा सकेगी अंकुश"शीर्षक से ये आलेख भेजा है इस आग्रह के साथ कि इसे ज्यों का त्यों छापा जाए। बीच-बहस मंच ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए है अत: उनका आलेख ज्यों का त्यों यहां दिया जा रहा है ताकि बात एक तरफ़ा न लगे। 
दूलाराम जी का आभार कि उन्होंने मुझे कुण्ठाग्रस्त घोषित किया है..कुछ तो सोचकर ही यह फ़तवा दिया होगा। अस्तु! उनके इस आलेख में उनके द्वारा किए एक रहस्योद्घाटन, खुलासे से कम से कम उन आरोपों को बल मिलता है, और सच्चाई ध्वनित होती है कि अकादमी चाहे केंद्र की हो या राज्य की पारदर्शिता, निर्णायक एक पर्दा है दो नम्बर के कामों को एक नम्बर में बदलने का। उनके इस आलेख से ही मुझे पता चला कि केदारनाथ अग्रवाल की जन्मशती पर भेजा गया मेरा अनुवाद प्रस्ताव स्वीकृत हुआ है जबकि अकादमी की ओर से मुझे आज तारीख तक कोई विधिवत सूचना नहीं है। इससे एक कड़वा सच और सामने आता है कि पूरे राजस्थान से बरसों से न जाने कितने लेखकों के प्रस्ताव स्वीकृत हो फ़ाइलों में दफ़न हो जाते होंगे या वे कछुआ चाल से न जाने किस वजह से लेखकों तक पहुंच भी पाते होंगे कि नहीं(ऎसे उदाहरणों, हादसों की भी कमी नहीं कि अनुवाद की स्क्रिप्ट लेखक द्वारा समय पर अकादमी को प्रेषित कर दिए जाने के बावजूद जब तक वहां नियुक्त हमारे महामहिम प्रतिनिधियों की हरी झंडी न मिले प्रेस के दर्शन ही नहीं कर पाती और ऎसी कृति भी प्रेस जाने की चर्चाएं आम हैं जिनके प्रस्ताव ही बाद में प्रस्तुत और स्वीकृत कराए गए हैं, ऎसा है या नहीं इसका खुलासा तो दुलाराम जी बता सकते हैं।) यही हश्र केंद्रीय अकादमी अनुवाद कर भेजी जा चुके उन लेखकों के साथ होता रहा जो कि गुडबुक में नहीं होते। 
बहरहाल जिस सच और आरोप की ओर मैं संकेत कर रहा था और दया-अहसान की तरह मुझे स्मरण कराया गया है,"यह बताते चलिए कि साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली से आपको महाश्वेता देवी (1084 की मां) और केदारनाथ अग्रवाल (अपूर्वा) की रचनाओं के अनुवाद कार्य किसने दिलवाए?" उनकी इस दंभोक्ति से मेरे ऊपर कहे गए ’पारदर्शिता, निर्णायक एक पर्दा, ढोल है जिसकी असल पोल ये है कि ऎसे दो नम्बर के कामों को आसानी से अपने चाहे अनुसार एक नम्बर में बदल लिए जाते हैं।’ की सत्यता पुष्ट होती है। इस खुलासे से यह भी ज़ाहिर होता है कि लेखक को कतई ये भ्रम नहीं पालना चाहिए कि वह या उसकी कृति कुछ है। अकादमियो में जो हमारे हैं वे ही सब-कुछ हैं, उनकी मर्ज़ी के बिना पत्ता तक नहीं हिलता। महाश्वेता देवी के जिस उपन्यास के अनुवाद कार्य श्री देवल, तिवाड़ी की कृपा से दिलाए जाने के काले सच का खुलासा दूलाराम जी ने किया है, मुझे इसकी बिल्कुल भी जानकारी नहीं थी, आम लेखकों की तरह हम भी इसी भ्रम में थे कि केंद्रीय अकादमी में साफ़- सुथरा और कायदे- कानून और लेखक और कृति के अनुसार उसके लिए बनी विद्वानों की निर्णायक मण्डल के अनुमोदन और सम्मति से होता है, यह तो इस आलेख से पता चला कि वहां भी निर्णय और निर्णायक सिर्फ़ दिखावे मात्र के होते हैं असली पावर तो इन्हीं हाथों में होता है। 
रही बात 1084वें मां-महाश्वेता देवी के उपन्यास के राजस्थानी अनुवाद की तो मैं बता दूं कि ’1084वें की मां’ अकादमी द्वारा पुरस्कृत कृति नहीं थी, पुरस्कृत कृति तो (aranyer adhikar) अरण्येनेर अधिकार थी लेकिन चूंकि ’1084वें की मां’ महाश्वेता जी की सर्वाधिक चर्चित और प्रसिध्द कृति है जिस पर इसी नाम से गोविंद निहलानी फ़िल्म भी बना चुके थे, मुझे लगा राजस्थानी में भी इसे होना चाहिए, इसीलिए मैंने आप ही की तरह महाश्वेता जी से अनुमति लेकर अपने ही स्तर पर इसके अनुवाद का कार्य शुरु किया, बाद में किसी मित्र के सुझाव पर ही प्रस्ताव अकादमी भेजा था, मुझे ज़रा भी इल्म नहीं था कि यह प्रस्ताव अकादमी नहीं, देवल और तिवाड़ी साहब स्वीकृत करने वाले हैं और अपने इन शब्दों में जैसा कि दूलाराम जी बता रहे हैं, उन्होंने मेरे एक और प्रस्ताव पर अपनी नज़रें इनायत कर उसे स्वीकृत किया है जिसकी मुझे आज तक अधिकारिक सूचना नहीं है,आएगी तो मैं उसे इस मंच से अस्वीकार करने की घोषणा करता हूं.... 1084वें री मा" जैसे-तैसे कैसे छपी और इसके लिए इतिहास में नहीं जाऊंगा न ही इस इतिहास में जांऊगा कि प्रकाशन के बाद अनुवाद पुरस्कार अवधि में उस पर क्या-क्या और क्यों बीती।    
दूसरा आरोप मेरे द्वारा चर्चाओं से पलायन करने का लगाया है, पिछले दो सालों से जब से उन्होंने एक तरफ़ा आक्रमण का मोर्चा संभालते हुए जो कुछ लिखा है, फ़ेसबुक पर पढनेवाले अच्छी तरह जानते होंगे पूरे राजस्थान से सिर्फ़ नवनीत पाण्डे ने ही उनकी अधिकतर पोस्ट पर सवाल- जवाब किए हैं। और दूलाराम जी की तरह किसी प्रतिकूल दिखनेवाली अपनी स्वयं की पोस्ट को और उस पर मेरी टिप्पणी को डिलीट नहीं किया है। राजस्थान में साहित्य अकादमियों के अध्यक्षों के नामों की घोषणा के साथ ही आपने उनके खिलाफ़ एक शर्मनाक मुहिम शुरु की थी, महिने- दो महिने भड़ास निकाल कर आप ही गधे के सिर से सींग की तरह फ़ेसबुक से गायब हो गए थे और जैसे ही राजस्थानी अकादमी के पुरस्कारों की घोषणाएं हुई, आप अचानक फ़िर अपने उसी राग के साथ अवतरित हो गए.. नवनीत पाण्डे कहीं नहीं गया....अस्तु!
आपने अपनी विद्वता से अपनी जिन प्रतिभाओं और विविध क्षेत्रों में उपलब्धियों के साथ बड़े- बड़े भामाशाहों, कारोबारियों के सहयोग से अपने द्वारा किए, कराए गए जिन महान, ऎतिहासिक कार्यों को अपनी बड़ी सोच के साथ क्रियान्वित करने का जो यशोगान गाया है, उनके लिए ह्र्दय की अतल गहराइयों उनका हार्दिक अभिनंदन और स्वागत और कामनाएं कि आप अपने अभीष्ट  की प्राप्ति के लिए इसी ऊर्जा से जुटे रहें और अपने परिवेश को हर तरह से समृध्द करते रहें। और उस संजीवन प्रयत्न के लिए भी पूरे राजस्थान के लेखक समुदाय की तरफ़ से भी आप विभूतियों का आभार कि आप सुनील गंगोपाध्याय से मिले और उन्हें राजी कर आप के सद्र्प्रयासों से सभी भारतीय भाषाओं के साथ-साथ राजस्थानी को भी नए पुरस्कार दिला अपने कर्त्तव्य का निर्वाह कर प्रदेश का गौरव बढाया। पूरा राजस्थान व राजस्थानी आपकी कृतज्ञ है। आपने कहा अभीष्टों से मोहवश एक- दो नाम दो बार लिख दिए गए, मुझे उससे कोई शर्म नहीं, हमारे लिए तो सभी अभीष्ट हैं, कभी किसी से दुश्मनी का खयाल तक नहीं आता..सभी मित्र हैं, मतभेद हो सकते हैं, मनभेद किसी से नहीं.. ऎसे में अगर कोई नाम दोबारा आ गया तो आ गया..आखिर इंसान हैं भई, कंम्यूटर तो नहीं कि हमें तुरंत सुधार दें, आपके ध्यानाकर्षण से आलेख को संपादित कर दिया है लेकिन इससे सच और संदर्भ प्रभावित नहीं होंगे। और भी कोई लिपिकीय भूल रह गयी हो तो अवश्य बताएं.. हम अभी अपरिपक्व और नए हैं इस क्षेत्र में, सीखते- सीखते सीखेंगे।
अंतिम आरोप कि मैंने आलेख में जिन बातों की ओर इशारा किया वे गोडाघड़ेड़ी है, इन में कुछ भी सही नहीं। चलो, आपकी ये बात मान लेते हैं, बावजूद इसके कि ये सभी कड़वे सच हैं जिन से राजस्थानी में थोड़ी बहुत कलम चलानेवाले हर लेखक परिचित हैं और इसके लिए मुझे नहीं लगता कि किसी दस्तावेज़ी सबूत की जरूरत है।अगर नवनीत पाण्डे की सारी बातें गोडेघड़ेड़ी है या सच। इसका फ़ैसला इन बातों को पढनेवालों सुधि लेखकों और पाठकों पर छोड़ दीजिए न। उस यथार्थ को गोडाघड़ेडी कहकर कब तक, कहां तक छुपाया जाएगा जो है, सबके सामने हैं और जिससे सब वाकिफ़ हैं। मैं अपनी पसंद की सूची बनाऊं! मेरी औकात कहां! ये महाकर्म तो गुणीजनों, बिरले विद्वान व्यक्तित्वों को ही शोभा देते हैं और आप लोगों से बढकर ईमानधर्मी, नैतिक मूल्यों के संस्थापक गुणीजन विद्वान कौन?  आप के आकलन और कथनानुसार बाकी सब तो भ्रष्ट, निकृष्ट और पाप के घड़े हैं...
-नवनीत पाण्डे


bhai jee, kuchh metter hai. sidha post nahi  ho raha. kripiya jyu ka tyu beech-bahas me dene ka shrm kren.. sadar....                    
स्वस्थ बहस की शुरूआत ही अकादमियों की मनमर्जी पर लगा सकेगी अंकुश- दूलाराम सहारण
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संदर्भ: नवनीत पांडे के ब्लॉग बीच-बहस की पोस्ट

भाई नवनीत जी, आपने काफी स्वस्थ बहस शुरू की है। राज्य में स्थित राजस्थानी अकादमी की नादरशाही के खिलाफ बात शुरू की तब से मैं ऐसी बहस की अपेक्षा कर रहा था। मैं बार-बार कह रहा था कि अकादमी के कारिंदे चुप क्यों है? अकादमी को बोलना चाहिए। अगर हम सही को गलत ठहरा रहे हैं तो अकादमी अपना पक्ष रखे। पाठक स्वयं तय कर लेगें कि कौन सही कह रहा है और कौन गलत? खैर.... किसी दूसरे के बहाने देर आए दुरस्त। 
नवनीतजी, मैं आपकी इस बहस का स्वागत करता हूं। साथ ही राजस्थानी साहित्य की समझ रखने वाले तथा फेसबुक, ब्लॉगिंग से जुड़े सभी विद्वान, साथियों से आग्रह करता हूं कि वे इस बहस में हिस्सा लें। अपनी बात बेबाकी से रखें। ताकि अकादमियों की दशा-दिशा सुधरे और अकादमियों के कर्ताधर्ता जो बनते हैं वे कुछ भी गलत करने से पहले दो बार सोचें।
नवनीत भाई, बात यहां राज्य अकादमी और केन्द्रीय अकादमी की नहीं है। बात अकादमियों में होने वाले अपने-पराये, जात-मुसाहिबा, बजट-चैपट आदि की है। इसलिए दोनों अकादमियों की गतिविधियों पर खुली बहस होनी चाहिए। मैं आपकी तरह कुण्ठाग्रस्त नहीं हूं। मेरे लिए दोनों अकादमियां समान है। क्योंकि किसी भी अकादमी ने व्यक्तिशः मुझे कहीं उपेक्षित नहीं किया। हां, आपकी बात सही मानें तो एक अकादमी ने मुझे बेहिसाब उपकृत भी किया है। यहां, आपकी इस बात के मायने समझता हूं और आपके इर्द-गिर्द कैसे संकेत आ रहे हैं, पल-पल की खबर भी इन दिनों रखता हूं। 
मुझे कहते हुए दुख है कि जो कायर खुद कहने में असमर्थ हैं, आरापों को सहन करने की हिम्मत नहीं रखते व चर्चाओं से पलायन कर जाते हैं, उनकी भाषा को पढकर किसी दूसरे को ही जवाब देना पड़ रहा है। खैर.... फिर भी हम यह स्वीकार कर रहे हैं। 
हां, मैं यहां मेरा पक्ष नहीं रखना चाह रहा था। क्योंकि खुद को कहीं दोषी नहीं पाता। परंतु बात विवादित बनाने के लिए ही उठी है तो मैं कुछ कहना चाहूंगा। और विवादित होने से डरूंगा नहीं। यहां मैं तो श्री चंद्रप्रकाश देवल की खुले दिल से प्रशंसा करूंगा कि उन्होंने युवाओं की अहमियत को समझा और साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली में पहली दफा उनके माध्यम से युवाओं की दखल हुई। मैं एडवायजरी में गया। शायद राजस्थान से पहली दफा 30 के इर्दगिर्द का कोई युवा गया होगा। अबकी बार 30 के इर्दगिर्द का युवा ओम नागर, कोटा गया है। अगली दफा और कोई युवा होगा। कोई नहीं होगा तो हम पुरजोर युवा को लाने का प्रयास करेंगे। एडवायाजरी की ऐसी शुरूआत में अगर कहीं मैं ‘दोषी’ हूं तो वह दोष स्वीकार करता हूं और ऐसे दोष बार-बार करने की हामी भरता हूं। मैं तो एडवायजरी बनाने वालों से भी निवेदन करता हूं कि वे ऐसे ‘दोष’ सहन करते रहें। क्योंकि बुर्जुगों के अनुभव और नई सोच का समन्वय कहीं न कहीं तो भाषा का हितकारक ही होगा। 
हां, नवनीतजी, मेरे एडवायजरी में जाने से क्या लाभ-नुकसान हुआ, यह आप ही बताइगा। क्योंकि आपकी जबान कहूं तो मुझे नुकसान दीखते नहंी और लाभ गिनाकर मेरे काम को मैं छोटा नहीं करना चाहता। हां, आप बता सकते हैं और में प्रत्युत्तर के लिए सदैव तत्पर हूं। आपके शार्गिदों की तरह मांद में नहीं छिपने वाला।
एडवायजरी मेंबर की हैसियत से मेरे सभी काम हुए, ऐसा नहीं। कुछ पर सहमति नहीं बनी। जिन पर सहमति नहीं बनी, उनके मैंने चूरू आकर अपने संसाधनों से पूरा किया। पूरा दमखम झोंककर।
रही बात युवा पुरस्कार की- आपको शायद ध्यान नहीं है कि राजस्थानी में पहला युवा पुरस्कार मेरे ही प्रयास से कमला गोइन्का फाउण्डेशन, मुम्बई ने शुरू किया। फाउण्डेशन मेरी व्यक्तिशः कुछ मदद करना चाहता था। तब मैंने उन्हें यह सुझाव दिया कि मुझे तो आप सहयोग दे देंगे परंतु राजस्थानी में जो दूसरे युवा काम कर रहे हैं उनको कौन सहयोग देगा? तब उन्होंने हामी भरी और श्री किशोर कल्पनाकांत का नाम जैसे ही मैनंे उनको सुझाया, युवा पुरस्कार शुरू हो गया। इस सारी प्रक्रिया के मेरे पास लिखित दस्तावेज हैं। आप चाहें तो देख सकते हैं। यह पुरस्कार 2007 में श्री उम्मेद धानियां, 2009 में श्री मदन गोपाल लढा, 2011 में सुश्री कीर्ति परिहार को मिल चुका है और अब 2013 के अक्टूबर में एक और युवा को मिलने जा रहा है। 2013 के पुरस्कार का एक निर्णायक में भी था।
किशोर कल्पनाकांत युवा पुरस्कार के बाद फतेहपुर शेखावाटी के धानुका सेवा ट्रस्ट ने मेरे ही निवेदन पर युवा पुरस्कार शुरू किया, जोकि श्री देवकरण जोशी, कुमार अजय, सतीश छींपा सहित मुझको भी मिल चुका है। दोनों समारोह में आपके ‘आका’ आए हुए हैं, उनसे पूछ सकते हैं।
साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष श्री सुनील गंगोपाध्यायजी के यहां युवा पुरस्कार के संबंध में हम कई दफा गये। आप जब जानेंगे तब महसूस करेंगे कि श्री चंद्रप्रकाश देवल की भूमिका अगर वहां नहीं होती तो युवा पुरस्कार प्रारंभ पता नहीं होता कि नही भी होतां? 
साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली की पहल के बाद हमारी अकादमियां जांगी और उदयपुर तथा बीकानेर से युवा पुरस्कार शुरू हुए। परंतु, दुर्भाग्य आयु और जाति निर्धारण का वहां विवादित साया रहा। 
मैं तो अखिल भारतीय मारवाड़ी सम्मेलन, लखोटिया ट्रस्ट, राना के साथ-साथ दो-चार और प्रवासियों के निरंतर संपर्क में हूं। आपको जल्दी ही राजस्थानी में कई युवा पुरस्कार और देखने को मिलेंगे। हमारी भाषा में अब युवा पुरस्कार की कितनी अहमियत है, यह भी बताऊंगा।
हां, मेरा सौभाग्य है कि पहली दफा साहित्य अकादेमी युवा पुरस्कार मुझे मिला। पुरस्कार ज्यूरी में श्री नंद भारद्वाज, कुंदन माली, कमल रंगा थे। प्रक्रिया में श्री ओम नागर, मदन गोपाल लढा, विनोद स्वामी, दुलाराम सहारण थे। ज्यूरी ने सर्वसम्मति से फैसला मेरे पक्ष में किया। लिखित दस्तावेजों के बहाने यह सारी बातें सार्वजनिक है। फिर भी आप मानते हैं कि गलत हुआ? तो आपकी बात के मायने निकाले जा सकते हैं। 
फिर तो आप इस बात के मायने भी साथ में जोडि़एगा कि साहित्य अकादेमी के बाल साहित्य पुरस्कार प्रक्रिया में मेरी पुस्तकें लगातार तीन साल ज्यूरी के सामने जाती रही। फिर भी पुरस्कार नहीं मिला। क्या कारण रहा? बताएंगे तो मेहरबानी होगी।
हां, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली की पारदर्शिता देखिएगा- अकादेमी की ज्यूरी पुरस्कार के साथ् ही ‘पुरस्कार गत’ घोषित की जाती है। अपनी राज्य अकादमी की तरह सूचीगत नहीं। इस बहस से पहले हम राज्य अकादमी से यह भी मांग कर रहे थे कि पुरस्कारगत अकादमी निर्णायक बताए ताकि वे गलत निर्णय करते हैं तो कटघरे में आएं। तय मानिए कि निर्णायकों को अगर सार्वजनिक होने का आभास होगा तो ऐसे में वे अकादमी अध्यक्ष का दबाव सहन नहीं करेंगे। 
इसी संदर्भ में आपको स्मरण करवा दूं कि ‘रावत सारस्वत साहित्य पुरस्कार’ कभी हम दिया करते थे (2009 में कमला गोइन्का फाउण्डेशन द्वारा ‘रावत सारस्वत पत्रकारिता सम्मान’ शुरू करने तक।) तब हम उस पुरस्कार के तीनों निर्णायकों के निर्णय पत्रक की छायाप्रति निर्णय के साथ भेजते थे। किसी से पूछ लीजिएगा। लाभ यह था कि निर्णायकों को पता रहता था कि निर्णय पत्रक सार्वजनिक होंगे और ऐसे में आयोजक संस्थान निर्णायकों से सही निर्णय पाता था। आप बताइए राज्य अकादमी ऐसा क्यों नहीं कर सकती? राज्य अकादमी कार्यसमिति के सदस्यों को प्रत्येक पुरस्कार में एक-एक निर्णायक की हैसियत से क्यों घुसेड़ती है? और एक निर्णायक के एकतरफा अंकों का निर्णय में क्या महत्त्व होता है, आप जानते हैं। अकादमी को अगर ऐसा ही करना है तो लेखकों से किताब न मंगावाए और जिसको पुरस्कार देना है वह कार्यसमिति को बैठक करके सर्वसम्मति से घोषित कर दे। जैसा कि हमारा प्रयास संस्थान ‘घासीराम वर्मा साहित्य पुरस्कार’ में करता है- बिना पुस्तक मंगाए, अपने-अपने सुझाव के बाद किसी एक रचनाकार का नाम तय। नुकसान कहां है? क्यों प्रविष्ठियां मांगने का नाटक करती है राज्य अकादमी?
हां, आपने मुझ पर यह व्यंग्योक्ति की- (चूंकि ये राजनैतिक पृष्ठभूमि से साहित्य के मैदान में आए हैं, इन से ऐसी अपेक्षा करना कोई आश्चर्य नहीं।)
नवनीतजी, मैंने फेसबुक पर आपको पहले भी कई दफा कहा है कि कुछ लिखने से पहले तथ्य को जांच लिया करें। इससे आपकी हास्यास्पद स्थिति नहीं बनती। आप वक्त-वक्त पर ऐसी हास्यास्पद स्थिति बनाकर चर्चाओं से दूर भाग जाते हैं। अब आग्रह है कि आप मेरे ब्लाॅग या वेबसाइट देखें। आपकी झूठ भरी यह व्यंग्योक्ति सामने आ जाएगी। नवनीत भाई, नवीं कक्षा में पढते थे तब राजस्थान पत्रिका समूह की ‘बालहंस’ में हमारी पहली रचना छपी थी। बी.ए. के दिनों में (तबतक छात्रसंघ महासचिव भी नहीं बना था) राज्य अकादमी ने महाविद्यालय स्तरीय पुरस्कार दिया था, उस वक्त राज्य के भैरोसिंहजी शेखावत मुख्यमंत्री थे। बाद में छात्रसंघ महासचिव बना और फिर अध्यक्ष। बाद में राजनीति के मार्ग। 
हां, राजनीति के साथ साहित्य कोई गुनाह है तो आप लक्ष्मीकुमारी चूंडावत, रेंवतदान चारण सहित बहुत सारे नाम हटा दीजिएगा अपनी सूची से, और इनमें से मौजूद लोग अगर कुछ भी कहें तो उनकी बातों को गंभीरता से मत लीजिएगा!!
अब राजस्थानी युवाओं की बात- राजस्थानी युवाओं की बात करेंगे तो बड़ी पीड़ा के साथ कहना पड़ रहा है कि राजस्थानी में पांच से सात के बीच ही सक्रिय युवा रचनाकार हैं, जिनको क्रमशः युवा पुरस्कार दिया जाना अकादमियों की मजबूरी होगी। अगर ऐसे ही हालात रहे तो अकादमियों समेत सभी संस्थाओं को अपने युवा पुरस्कार बंद करने पड़ेगे। मैंने पूर्व में जिक्र किया कि इस बार के किशोर कल्पनाकांत युवा पुरस्कार का एक निर्णायक मैं भी था। (निर्णय घोषित हो चुका है तब बता रहा हूं)। इस पुरस्कार में 35 वर्ष से कम के युवा की पांडुलिपि पर पुरस्कार दिया जाता है। आपको पीड़ा होगी कि नहीं परंतु हरएक राजस्थानी शुभचिंतक को यह जानकर पीड़ा होगी कि वहां सिर्फ और सिर्फ एक ही पांडुलिपि आई। कहां तैयार हो रहे हैं राजस्थानी लेखन में युवा? 
फाउण्डेशन ने कहा यह तो पुरस्कार प्रक्रिया ही नहीं हुई। या तो इस बार पुरस्कार किसी को नहीं दें या फिर हमेशा-हमेशा के लिए बंद कर दें, क्योंकि हालत ऐसे ही रहने हैं। हमारे बड़े निवेदन के बाद उस एक मात्र प्रविष्टि पर पुरस्कार घोषित किया गया है। 
मुझ पर कुछ कहने से पहले 2015 के उक्त आगामी पुरस्कार तक पांच-सात युवाओं की पांडुलिपियां तैयार करवाइएगा, ताकि राजस्थानी का भविष्य सुरक्षित हाथों में जाए। युवा तैयार हों।
आगे चलकर साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली तथा राज्य अकादमी में यही हालात होंगे। राजस्थानी के संदर्भ में। देखते रहना। पांच से ज्यादा प्रविष्ठियां या नाम नहीं दीख रहे हमें तो। प्रविष्ठियों के सबूत गवाह हैं। तय मानिए, सबको मिलेगा बारी-बारी युवा पुरस्कार। ऐसी स्थितियों थी तब ही तो मैंने नीरज दइया और राज्य अकादमी के प्रकाशन उपक्रम ‘मंडाण’ की जी खोलकर प्रशंसा की थी। बहुत जरूरत है ऐसे प्रयासों कीं। अकादमी बहुत कुछ कर सकती है। हां, उसे भेदभाव मुक्त और अपने-पराये के मोह से दूर होना पड़ेगा।
हमारी क्षमता हमारे अंचल तक थी। हमें कहते हुए खुशी है कि आने वाले समय में चूरू से 10-15 ऐसे नाम राजस्थानी साहित्यिक समाज को दीखेगें, जो अब तैयार हो रहे हैं तथा कुछ ही समय में उनके जाने-पहचाने होंगे। क्या ऐसा प्रत्येक इलाके में नहीं हो सकता? परंतु, करे कौन? फेसबुक और ब्लाॅग पर बहस के बाद घर....। समय ही कहां होता है युवाओं की रचनाओं को सुधारने का, उनकी भाषाई समझ विकसित करने का? मुबारक आपको....।
हां, बीच में एक बात आपसे पूछ ही लूं। श्वसुर, दामाद, सरस्वती मानस पुत्र की शब्दावली आपकी ही है क्या? आपकी ही है तो फिर यह बताते चलिए कि साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली से आपको महाश्वेता देवी (1084 की मां) और केदारनाथ अग्रवाल (अपूर्वा) की रचनाओं के अनुवाद कार्य किसने दिलवाए? 
हां, अगर अनुवादक रचनाकार होने या कहलवाने से आपको परहेज है तो फिर ऐसे स्वयं के प्रस्ताव आप अकादमियों के पास क्यों भेजते रहे? अनुवाद कार्य वह भी छंदयुक्त करने का मादा नहीं है तो मालचंद तिवाड़ी का गीतांजलि अनुवाद उठाकर देख लीजिएगा। 
हां, साहित्य अकादेमी के पुरस्कार वंचितों की सूची आपने बड़ी ही मेहनत से बनाई है। बधाई। कुछ नाम तो अति मोह के कारण दो बार भी आ गए। यह आपका कसूर नहीं? मरते वक्त आदमी अपने इष्ट का ही बार-बार स्मरण करता है!!
भाई, सूची के बहाने मुद्दे को भटकाना पुरानी कला है। परंतु इसी कला के बीच आपसे भी सवाल करना वाजिब है। अबतक साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली से जिनको पुरस्कार मिले, उनकी सूची यह है-
श्री विजयदान देथा, मणि मधुकर, कन्हैयालाल सेठिया, सत्यप्रकाश जोशी, अन्नाराम सुदामा, चन्द्रप्रकाश देवल, रामेश्वरदयाल श्रीमाली, नारायणसिंह भाटी, मूलचंद प्राणेश, मोहन आलोक, सुमेरसिंह शेखावत, सांवर दइया, महावीर प्रसाद जोशी, नैनमल जैन, भगवतीलाल व्यास, यादवेन्द्र शर्मा चंद्र, रेवंतदान चारण, प्रेमजी प्रेम, अर्जुनदेव चारण, नृसिंह राजपुरोहित, करणीदान बारहठ, किशोर कल्पनाकांत, नेमनारायण जोशी, मालचंद तिवाड़ी, शांति भारद्वाज राकेश, वासु आचार्य, ज्योतिपुंज, अब्दुल वहीद कमल, भरत ओळा, संतोष मायामोहन, नंद भारद्वाज, चेतन स्वामी, लक्ष्मीनारायण रंगा, कुंदन माली, दिनेश पंचाल, रतन जांगिड़, मंगत बादल, अतुल कनक, आईदान सिंह भाटी।
नवनीतजी, अब बताइएगा आपकी सूची वाले वंचित नामों में से कौनसा नाम किसकी जगह होना चाहिए था? मतलब किसको अवार्ड न मिलकर किसको दिया जाना चाहिए था? क्या पुरस्कार प्राप्तकर्ताओं की यह सूची आप पूरी की पूरी खारिज कर रहे हैं? या संशोधन चाह रहे हैं? खारिज तो कैसे? और संशोधन तो कौनसे, मतलब किसकी जगह कौन? 
हम आपके इस प्रत्युत्तर की बेसब्री में है। 
अब सवाल आपके सोच में अंतिम स्थान पर और हमारी सोच में पहले स्थान वाली बात पर-
हम तो बेबाकी से कह रहे हैं कि किसी भी भारतीय भाषा के सरकारी संस्थान के पास ऐसा उदाहरण नहीं होगा जैसा कि राजस्थान राज्य अकादमी के पास बिज्जी के बहाने है। नोबल नामांकित किसी भी भाषा का साहित्यकार अपने ही गृह राज्य की संस्था द्वारा सिरे से खारिज? मतलब अकादमी की स्थापना सन् 1983 से लेकर अब तक 200 से अधिक लोगों को पुरस्कार-सम्मान दिया जाना, और नोबल नामांकित, पद्मश्री सम्मानित बिज्जी का नाम ही नही आनां? आपको इसमें ‘दीन-हीन की तरह प्रस्तुत करना’ लगता है तो आपको पाकर राजस्थानी समाज धन्य है!! 
राज्य अकादमी द्वारा बिज्जी की अवहेलना होना पूरा भारतीय साहित्यिक समाज देख-महसूस रहा है। समय ही तय करेगा। 
मित्रों से आग्रह है कि इस जरूरी बहस को आगे बढाएं ताकि अकादमियों की दशा सुधर सके। रही बात, विवादित करने की- काम करने वालों पर लांछन लगते ही हैं। आजादी पाने वालों को देशद्रोह के मुकदमों में जेल जाना पड़ता ही है। परंतु समय उनका मूल्यांकन करता है। चुप रहने वालों का भी समय इतिहास लिखता है। 
यह अकादमी परिवेश में दासता के वातावरण से मुक्ति के साथ-साथ वेद-मुक्ति का आंदोलन भी है। 
यह सार्वकालिक है कि जातिवादी, गिरोहवादी अध्यक्षों की ओर से कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी अपने कुतर्क रखते हैं तथा खिलाफ बोलने वालों को व्यक्तिगत आरोपों के घेरे में लेते रहे हैं, भले ही वह राजनीतिक दल हों या फिर साहित्यिक दल। तो ऐसे में डरना क्या?
मुझे डर नही, तब ही तो बात के प्रारंभ में मैंने इसे ‘स्वस्थ बहस की शुरूआत’ कहा। मैं बात के रूप में और दस्तावेज के रूप में- सही कहने के लिए तैयार हूं। हो, बहस का सार्वजनिक मंचन!! अकादमी इतर माध्यम से नहीं, खुद खुलकर आए जवाब में? हां, बात तथ्ययुक्त हों, जिन्हें दस्तावेजों से भी साबित किया जा सके। नवनीतजी की भांति ‘गोडै घड़ेड़ी’’ नहीं हों। एक सज्जन ने कहां, किसी ने कहा, उसने कहा, विश्वस्त सूत्र के हवाले से, लोगों में चर्चा है आदि-आदि जुमले नहीं होने चाहिए।
स्वागत होगा अकादमी का......।।
-दूलाराम सहारण

Sunday, 18 August 2013

तो असल बात और पीड़ाएं ये हैं (संदर्भ राजस्थानी साहित्य अकादमी पुरस्कार विवाद)

तो असल बात और पीड़ाएं ये हैं (संदर्भ राजस्थानी साहित्य अकादमी पुरस्कार विवाद)

"कुछ नहीं, यह उन चंद लोगों की हताशा, निराशा है जिनके स्वार्थ, हितों की मंशा और मंसूबे अपनी झोलियां भर लेने के बाद भी और बहुत कुछ बटोर लेने के बाद भी आधे- अधूरे रह गए लगते हैं, यह राजस्थान साहित्य जगत और राजस्थानी रचनाकारों को शर्मसार करनेवाली वैचारिक निम्नता है और इसे जातीयता का रंग देना तो उस शब्द के साथ कृतघ्नता भी जिसके रचाव का ऎसे लोग प्रगतिशील होने का दम भरते हैं। 
               लगभग बीस बरसों केंद्रीय साहित्य अकादमी में काबिज़ श्वसुर, दामाद और उनके सरस्वती मानस पुत्र (जिनके लेखन के बारे में उनके घनिष्टतम साहित्यकार मित्र ने भरे मंच से कहा था ’इनका पता ही नहीं चलता ये किस भाषा के लेखक हैं और उन्हें अनुवादक रचनाकार के तमगे से नवाज़ा था) व उनकी सरपरस्ती में पलनेवालों की वर्चस्वता, सत्ता हाथ से निकल जाना उस समय ये नैतिकताएं, ईमानदारियां कहां थी जब इनके काल में (1) ऎसे राजस्थानी साहित्यकार अचानक अवतरित किए जिनकी जानकारी राजस्थानी साहित्य जगत और राजस्थानी के लेखकों को केंद्रीय साहित्य अकादमी से उस लेखक के नाम पुरस्कार घोषित होने पर ही पता चला.. सब ने आश्चर्य किया था..अरे! ये राजस्थानी के लेखक हैं, पहले कभी देखा- सुना तो नहीं। (2) ऎसी कृति को पुस्कार दिया गया जो एक वर्ष तो उस विधा में निर्णायक मंडल द्वारा उस विधा में खारिज़ कर दी गई लेकिन दूसरे वर्ष चूंकि कृति को नहीं, कृतिकार को पुरस्कृत करना था, उसी कृति को उसी विधा में पुरस्कार दिला दिया गया|"
जिन वरिष्ठ और युवा प्रतिभावान, योग्य रचनाकारों के चित्र दूलाराम सहारण पुरस्कार वंचितों का डॉयलॉग लगा फ़ेसबुक पर चस्पां कर राजनीतिज्ञों की तरह भावनात्मक सुहानुभूति बटोरने की कुचेष्टा कर रहे हैं, (चूंकि ये राजनैतिक पृष्ठभूमि से साहित्य के मैदान में आए हैं, इन से ऎसी अपेक्षा करना कोई आश्चर्य नहीं) ये प्रतिभाएं आज पैदा नहीं हुई, ये उस वक्त भी थीं, जब केंद्रीय साहित्य अकादमी में आप राजस्थानी के प्रतिनिधि थे तब आप के ये सच कहां थे, ये ईमानदारीयां और नैतिकताएं कहां छुपी थीं...राजस्थानी में कहावत है पूत के पग पालने दिखते हैं सो दूलाराम जी की अप्रतिम, विलक्षण प्रतिभा को केंद्रीय साहित्य अकादमी में दामाद, सरस्वती मानस पुत्र ने तुरंत पहचानते हुए मात्र एक महाविद्यालयी पुरस्कार की बिना पर उन्हें बरसों से राजस्थानी कलम घिस रहे राजस्थानी रचनाकारों पर वरीयता देते हुए न केवल राजस्थानी परामर्श मंडल में स्थान दिया, राजस्थानी भाषा का पहला  युवा पुरस्कार भी झोली में डाल कर इतिहास रच दिया। धन्य आपकी नैतिकताएं! धन्य आपकी ईमानदारियां!
                  समय परिवर्तनशील है, और एक स्वस्थ मन को इसे सहज भाव से स्वीकारने में कभी कोई संकोच, मलाल नहीं होना चाहिए.. ये सारी विकृतियां तभी उजागर होती हैं या की जाती है जब आप इसे स्वीकार नहीं करते। बीस- पच्चीस बरसों तक राजस्थानी साहित्य में केंद्रीय साहित्य में जो  होता रहा है, राजस्थानी में कलम चलानेवाले इससे अनजान नहीं है। जो हुआ, सब ने देखा है, जब- तब अपना विरोध भी जताया है और अब और आगे भी कुछ गलत होगा तो सच्ची कलम चुप नहीं रहनेवाली..पर ऎसे, इस निम्नता और मर्यादाएं लांघने की हद तक तो कतई नहीं... पुरस्कारों से कोई लेखक नहीं बनता, बनाता वरन अधिकतर तो यही देखा गया है कि पुरस्कारों नें लेखन का क्षरण ही किया है इसलिए ऎसे मामलों को वही लोग तूल देते हैं और गंभीरता से लेते हैं जिनके कुछ न कुछ हित, स्वार्थ पूरे होने से रह जाते हैं या सिध्द होने के बावजूद पेट नहीं भरते हैं। सच्चा रचनाकार तो अपने रचनाकर्म में ही रमा रहता है, पुरस्कारों-सम्मानों  की राजनैतिक और सैंटिगों से एकदम अनजान और परे। मिल गया तो वाह! नहीं मिला तो वाह! हां, पुरस्कारों- सम्मानों के सच, कहानियां सामने आने पर अचंभित होते हुए दुख जरूर महसूस करता है शब्द और शब्दकारों के चरित्र में होते ये क्षरण देख..अरे! ऎसा भी होता है! ऎसा कैसे हो गया?

ये उदगार मेरे नहीं राजस्थान के विभिन्न रचनाकारों से हुई सत्रों के बीच हुई अनौपचारिक बातचीत- चर्चा में थे जो राजस्थानी लोक साहित्य और संस्कृति पर केंद्रीय दो दिवसीय अकादमिक आयोजन में बीकानेर आए थे। अधिकतर वरिष्ठ रचनाकार सोशल मीडीया से जुड़े नहीं हैं लेकिन मीडीया जुड़े लेखकों से उन्हें समाचार सारे मिल रहे हैं और वे आश्चर्य चकित हैं.और इस सारी कहानी और प्रकरण पर एक वरीष्ठ रचनाकार ने हंसते हुए  बहुत ही कम शब्दों में एक राजस्थानी और एक हिन्दी कहावत में चुटकी ली, आप व्यासजी बैंगण खावै, दूजां परहेज बतावै... नौ सौ चूहे खा के बिल्ली हज़ को चली.....
  पुरस्कार विवाद में फ़ेसबुक पर झूठी वाह-वाही लूटनेवाले और शब्द की गरिमा से खेलनेवाले और उसे जातिवादी रंग देनेवाले और केंद्रीय साहित्य अकादमी  लगभग बीस- बाइस बरसों से राजस्थानी की ठेकेदारी संभाले हुए बताएं कि सन 1974 से 2012 तक के 39 उनतालीस बरसों में उन्होंने कितने सर्वहारा वर्ग के रचनाकारों को सम्मानित कराया.. इस सूची में सिर्फ़ एक अल्प संख्यक है और दलित तो एक भी नहीं  जब आप एक अंगुली किसी दूसरे की ओर उठाते हैं  बाकी अंगुलियों की दिशा देख लीजिया कीजिए। आप फ़ेसबुक पर जैसी सूचीयां जारी कर रहे हैं, उससे भी खतरनाक सूचीयां  केंद्रीय साहित्य अकादमी द्वारा अनादरित उन महान विभूतियों की है जहां राजस्थानी के नाम पर अपनी रोटीयां सेंकने वालों द्वारा अधिकतर उन्हें दुशाले ओढाए जाते रहे हैं जो इन  अनादरित व वंचित महान विभूतियों के कद के समक्ष कहीं नहीं ठहरते थे, क्यों कि सब अंदर के मामले थे। 

 राजस्थानी के इन सिरमौर रचनाकारों  पर  नज़रें इनायत नहीं हो सकी सिर्फ़ इसलिए कि वे  दरबारी नहीं बने और न ही कभी इसकी जरूरत समझी क्योंकि इनका लेखन सब पुरस्कारों से बड़ा था और है।
बरसों से सृजनरत राजस्थानी के ये वरिष्ठ रचनाकार पिछले बीस बरसों से केंद्रीय साहित्य अकादमी में राजस्थानी के कोकस से सैटिंग, समीकरण न बैठा पाने का फ़ल भुगत रहे हैं सबसे पहले लक्ष्मीकुमारी चूड़ावत (1984 में पदमश्री व अभी हाल ही में राजस्थान रत्न से सम्मानित), बैजनाथ पंवार, जहूर खां मेहर, रामस्वरूप किसान, मीठेश निर्मोही, भंवरलाल’भ्रमर’, ओम पुरोहित ’कागद’, पारस अरोड़ा, अस्त अली मलकान, माधव नागदा, श्याम जांगिड़, नागराज शर्मा, ओंकार श्री, तेजसिंह जोधा, भवानीशंकर व्यास’विनोद’, राम निवास शर्मा, कैलाश मंडेला, अंबिकादत्त, डा. किरण नाहटा, मदन केवलिया, हनुमान दीक्षित, देवकिशन राजपुरोहित, डा. मदन सैनी, बुलाकी शर्मा, बी.एल.माळी’अशांत’, कानदान कल्पित, डा.सत्यनारायण सोनी, ज़ेबा रशीद, मेहरचंद धामू, डा.नीरज दइया, रवि पुरोहित, दुष्यंत, डा. राजेश कुमार व्यास, मधुकर गौड़,  मनोज स्वामी, श्रीभगवान सैनी, पूरन शर्मा ’पूर्ण’, श्रीलाल जोशी, सूरजसिंह पंवार, पुष्पलता कश्यप, चांदकौर जोशी, शारदा कृष्ण, लीला मोदी के अलावा भी बहुत से ऎसे नाम हैं जिन्हें दुलाराम जी के शब्दों में कहें तो पुरस्कार के बिना भी इनकी लेखकीय ऊर्जा से राजस्थानी के पाठक अच्छी तरह से परिचित हैं।

                   यहां उन विलक्षण प्रतिभाओं का जिक्र भी प्रासंगिक होगा जो  केंद्रीय अकादमी के पुरस्कारों से ही अवतरित हुईं जिन में से कुछ के लेखक होने का पता तो उनके नाम पुरस्कार घोषणा से ही चला और कुछ की ऎसी कोई राजस्थानी कृति ही नहीं थी जिसका कि उल्लेख किया जा सके।

वे जो उपेक्षा और प्रतीक्षा में दिवंगत हो गए..
जनकवि हरीश भादानी, नानूराम संस्कर्ता, मोहम्मद सदीक, धनंजय वर्मा, निर्मोही व्यास, कन्हैयालाल भाटी, दुर्गेश आदि


और अंत में एक मित्रवत आग्रह - 

परम आदरणीय पद्मश्री, राजस्थान रत्न श्री विजयदान देथा हमारे राजस्थान और राजस्थानी के ही नहीं अपितु पूरे राष्ट्र के साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहर हैं अपने स्वर्णिम समय में उन्होंने जो किया, जैसे किया उसे किनारे रख दें तब भी यह सच है कि उन्होंने अपनी अप्रतिम भाषा, शिल्प और शैली में संपूर्ण राजस्थान के विभिन्न अंचलों में अपनी मेहनत और जीवटता से राजस्थानी लोक कथा संग्रह का ऎतिहासिक कार्य किया है जो कि हर नए राजस्थानी युवा हस्ताक्षर के लिए मिसाल ही नहीं, प्रेरणा स्रोत भी रहेगा, आज साहित्य में लेखकों की बाढ और पाठकों का अकाल का संकट समय है और एक- रचना लिख मारने के बाद आत्ममुग्ध हुआ जा रहा है। बिज्जी एक उदाहरण हैं.. ऎसे व्यक्तित्व को इस तरह,  इतना दीन-हीन की तरह प्रस्तुत करना निंदनीय और सर्वथा बिज्जी के उस स्वभाव के विपरीत है जिससे उन्हें जानने व पढनेवाले भलीभांति परिचित हैं। शेर बुढा जाने पर भी शेर ही होता है। अस्तु!