Thursday 26 June 2014

बेचारा पाठक! (संदर्भ अखिलेश का नया उपन्यास ’निर्वासन’) - नवनीत पाण्डे

 बेचारा पाठक! (संदर्भ अखिलेश का नया उपन्यास ’निर्वासन’) - नवनीत पाण्डे



मामला बिल्कुल ताज़ा ताज़ा है...हमारे समय के महत्त्वपूर्ण कथाकार अखिलेश के नए उपन्यास ’निर्वासन’ पर एक ही दिन में हिन्दी के दो दिग्गज आलोचकों के विरोधाभासी वक्तव्य हमारी आलोचना के दो चेहरे हमारे सामने रखते हैं। सवाल ये है कि पाठक क्या करे क्यों कि यह आकलन इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि मामला पाठक की जेब से छ सौ रुपए निकलवाने  का है। शायद ऎसे ही कारण और उदाहरणों ने आलोचक- आलोचना को संदेहों के घेरे ला खड़ा किया है। इससे यह भी प्रमाणित होता है कि आलोचक भी आलोचक होने से पहले एक पाठक ही होता है जिसकी अपनी पसंद नापसंद होती है.. कोई रचना किसी के लिए दो कौड़ी की तो किसी के लिए अमूल्य और महत्त्वपूर्ण हो सकती है। 

Prabhat Ranjan
June 22 · Edited
प्रकाशक द्वारा लखटकिया पुरस्कार के ठप्पे के बावजूद अखिलेश का उपन्यास 'निर्वासन' प्रभावित नहीं कर पाया. कई बार पढने की कोशिश की लेकिन पूरा नहीं कर पाया. महज विचार के आधार पर किसी उपन्यास को अच्छा नहीं कहा जा सकता है. साहित्य भाषा के कलात्मक प्रयोग की विधा है. 'निर्वासन' की भाषा उखड़ी-उखड़ी है. 'पोलिटिकली करेक्ट' लिखना हमेशा 'साहित्यिक करेक्ट' लिखना नहीं होता है. सॉरी अखिलेश! एक जमाने में आपको पढ़कर लिखना सीखा. लेकिन आज यही कहता हूँ- आप चुक गए हैं! (और हाँ! एक बात और, 349 पृष्ठों के इस उपन्यास की कीमत 600 रुपये? क्या यह किताब सिर्फ पुस्तकालयों के गोदामों के लिए ही है, पाठकों के लिए नहीं)

Virendra Yadav
June 22 · Edited
अखिलेश का उपन्यास 'निर्वासन' इन दिनों पढ़ा .सचमुच यह उपन्यास -अपनी समग्रता में अपने समय के सम्पूर्ण यथार्थ का उपन्यास है . यह उपन्यास जिस तरह पश्चिमी आधुनिकता और दिशाविहीन अंधविकास का क्रिटिक प्रस्तुत करता है वह कई नवीनताओं को लिए हुए है . जिन दिनों विकास की डोर पर जीडीपी की पतंग लहराई जा रही हो और विकास माडल के नाम पर सत्ताएं बन-बिगड़ रही हों, इस उपन्यास में अन्तर्निहित विकास बनाम विनाश का विमर्श स्वयमेव नयी अर्थवत्ता ग्रहण कर लेता है . हाल के वर्षों में हिंदी के अधिकांश उपन्यास इन अर्थों में सीमित यथार्थ के उपन्यास रहे हैं कि इनमें किसी एक कालावधि ,विशेष मुद्दे ,प्रवृत्ति या विमर्श की केन्द्रीयता रही है . लेकिन ‘निर्वासन’ एक साथ सवर्ण पितृसत्ता, कुलीनता और उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रत्याख्यान है. अखिलेश का यह उपन्यास दलित हरहू राम से लेकर अमरीका पांडे और गाँव गोसाईंगंज से लेकर महानगरीय यथार्थ का जिस तरह से विस्तार लिए हुए है वह एक साथ स्थानिक और वैश्वीकृत है. अच्छा यह है कि बेदखलियों की यह कथा रोजमर्रा के अनुभवों, अपने इर्दगिर्द मौजूद जीते जागते लोगों , घर-परिवार के घात-प्रतिघातों और बदलते समय के पदचापों को सुनते हुए जिस तरह से रची-बुनी गयी है वह अलग और नयी है . अर्थहीनता को अर्थ देते , उपस्थित में अनुपस्थित को लक्ष्य करते और भोगवाद का प्रतिपक्ष पेश करते हुए अखिलेश का यह औपन्यासिक हस्तक्षेप लेखक की सामाजिक भूमिका का भी निर्वहन है . कहना न होगा कि ‘निर्वासन’ इस दौर के उपन्यासों में एक महत्वपूर्ण और स्वागतयोग्य उपलब्द्धि है.

Maitreyi Pushpa

इन दिनों ! प्रिय रचनाकारों !
तय करो कि तुम पाठकों के लिए लिखते हो या समीक्षक / आलोचकों के लये ?कबीर की मिसाल सामने है जिसने समाज के लिए कहा। तुलसी के लेखन की समीक्षा किसने की ?प्रेमचंद ,निराला और रेणु को जिन्होंने पहले ही हल्ला पटक लिया ,बाद में दांत निपोरते फिरे। इन दिनों समीक्षकों की योग्यता क्या है , दोस्ती और दुश्मनी की दलबन्दी। पाठकों में यह दुर्गुण नहीं होता । दोस्त समीक्षक पीठ ठोकें और पाठक अपना माथा पीटें तो हमारी रचना की जगह कूड़ेदान में होनी चाहिए।

मैं मैत्रेयी जी के विचारों से सहमत हूं, लेखकों को समीक्षकों- आलोचकों से अधिक अपने पाठकों पर भरोसा करना चाहिए और उन्हीं से सीधा संवाद स्थापित करने का ध्येय रखना चाहिए क्योंकि मेरी दृष्टि में रचना वह हाथी हैं जिस में रचित उत्स-मर्म का हर पाठक अपने- अपने अंध-स्पर्श (पाठकीय क्षमता) से दर्शन करता है, आलोचक भी आलोचक से पहले पाठक ही होता है। 

- नवनीत पाण्डे


Wednesday 25 June 2014

प्रार्थना में हिंसा – नील कमल

मित्रो बीच बहस में  आज प्रस्तुत है मठाधीशी- आलोचना, पुरस्कारों पर उठ रही अंगुलियों व सवालों पर युवा कवि नील कमल का एक धारदार व्यंग्य आलेख 

प्रार्थना में हिंसा – नील कमल

      समाज में हर युग में खल शक्तियां रही आई हैं । भाषा और साहित्य भी समाज का ही अभिन्न हिस्सा है । लाजमी है कि यह खल शक्तियों से अछूता नहीं रह सकता । शुभ और अशुभ का द्वंद्व बहुत पुराना है । मनुष्यता के हित में जो है वही शुभ है,  अच्छा है,  भला है । जो मनुष्यता का अहित करने वाला है वह अशुभ है, बुरा है, खराब है । असुर तमाम खल शक्तियों का ही रूप है । सुर शुभ शक्तियों का प्रतीक है । बहुत से लोग असुर शब्द सुनते ही भड़क जाते हैं । क्यों ? क्योंकि असुर एक जनजाति है । मेरी उन तमाम मित्रों के तर्क के साथ पूरी सहानुभूति है । और करबद्ध निवेदन भी है कि असुर शब्द को वहीं तक संकुचित न करें । मैं बिना किसी पूर्वग्रह के तमाम खल और अशुभ शक्तियों के लिए असुर शब्द का प्रयोग करने की अनुमति चाहता हूँ ।
       मुझे इस बात का ज्ञान है कि असुर जनजातियों को खनिज से लौह धातु बनाने का तरीका मालूम था । आज भी वे बहुत कठिन जीवन गुजारते हैं । उनकी अवमानना का कोई उद्देश्य नहीं । लेकिन समाज में बुरी शक्तियों के लिए असुर शब्द का प्रयोग कोई नई परिघटना नहीं है । महिषासुर वध की कथा भारतीय सन्दर्भों में सभी जानते हैं । बंगाल में तो दुर्गापूजा के पंडालों में महिषासुर-मर्दिनी देवी दुर्गा की पूजा को सांस्कृतिक उत्सव के रूप में मनाने की लम्बी और ऐतिहासिक परम्परा रही है । और पूरी विनम्रता के साथ कहना चाहूँगा कि तीन दशक से भी लम्बे समय के शासन में किसी कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी ने भी इस सांस्कृतिक प्रतीक का विरोध कभी किया हो याद नहीं आता ।
      खल शक्तियों का समाज में होना शुभ नहीं है । शुभ होता तो दुनिया में इतने युद्ध न लड़े जाते । मनुष्य जब अशुभ शक्तियों को लड़ कर परास्त नहीं कर पाता तब वह इनके अंत के लिए प्रार्थना करता है । पूंजीवाद से लड़कर जब हम जीत नहीं पा रहे तब उसके सर्वनाश की कामना तो करते ही हैं । कामना क्या करते हैं,  हम तो सड़कों पर उतर कर नारे भी लगाते हैं । साम्राज्यवाद हो या पूंजीवाद इनके अंत के लिए की गई प्रार्थनाएं मेरे लिए पवित्र रही हैं । अब यदि किन्हीं कारणों से इन शक्तियों को मैं महिषासुर नाम दूँ तो किसी के पेट में दर्द क्यों उठना चाहिए भला ?
      एक बार दुर्गापूजा के समय कलकत्ता के पूजा मंडपों से लौट कर मैंने मित्र को बताया कि मैंने देवी दुर्गा से हिन्दी के तमाम महिषासुरों के समूल नाश के लिए प्रार्थना की है । मित्र सुनते ही उखड़ गए। मेरा हुक्का पानी बंद हो गया । तो क्या यह विचार करना उचित नहीं कि साहित्य के परिसर को गंदा करने वाले और इसके भीतर असाध्य बीमारियाँ फैलाने वाले प्राणियों का स्थान क्या होना चाहिए । एक गृहस्थ अपने अनाज को चूहों से बचाने के लिए उन्हें विष से मारता है, एक किसान अपनी फसल को कीड़ों से बचाने के लिए उन्हे विष से मारता है, घर के कोनों अंतरों में छिपे तिलचट्टो को हम-आप मारते हैं । क्या वह गृहस्थ हत्यारा है जो अपने अनाज को चूहों से बचाना चाहता है ? अपनी फसल को कीड़ों से बचाने वाला किसान क्या हत्यारा है ? और अपने घर को तिलचट्टों से मुक्त करने वाले आप या हम क्या हत्यारे लोग हैं ?
     यहाँ तो बात सिर्फ एक प्रार्थना है कि हिन्दी के महिषासुरों का समूल नाश हो । कुछ उदाहरणों से बात साफ़ होगी । एक साहित्यिक हैं । बड़ी शख्सियत वाले आलोचक हैं । कॉलेजों और युनिवर्सिटियों में नियुक्तियां करवा सकते हैं । इनके आगे पीछे चेलों की फ़ौज घूमती है । चेलों की सेवा और समर्पण से प्रसन्न ये साहित्यक इन्हें कॉलेजों में नियुक्तियां दिलवाने में माहिर हैं । इनकी सुनियोजित उपेक्षा के कारण न जाने कितनी प्रतिभाएं अपनी काबिलियत के अनुरूप जगह न पा सकीं । एक यशस्वी सम्पादक हैं । वे लेखक पैदा कर देते हैं, जब भी चाहें । और उनके पैदा किए लेखक महान मान भी लिए जाते हैं । 
        प्रायोजित चर्चा पुरस्कार योजनाओं आदि का एक रैकेट है । क्या ऐसे संपादकों का बना रहना ठीक है ? एक बड़ा प्रकाशक है । वह लेखक की किताब बेचकर मालामाल है और लेखक सम्मानजनक जीवन जीने तक को मोहताज है । एक वरिष्ठ कवि हैं । ये विभिन्न सम्मान पुरस्कार दिलाने वाली समिति में अपरिहार्य रूप से रहते हैं । कृपा पात्रों को सम्मान और पुरस्कार दिलवाते हैं । इनका क्या किया जाना चाहिए । वन्दना तो नहीं करेंगे न ? अंतिम उदाहरण एक युवा कवि का । वह दस वाक्य हिन्दी के कायदे से नहीं लिख बोल पाता है । लेकिन वह इतना जानता है कि किसका पैर छूने से उसे लाभ मिलने वाला है । वह हर उस जगह शीश नवाता है जहां से उसे लाभ प्राप्त हो सकता है । और एक के बाद एक उसकी किताबें आने लगती हैं । वहीं दूसरी तरफ खून पसीने की कविता लिखने वाले डिप्रेसन की गोलियां खाते मिलते हैं । ऐसे युवाओं का क्या करेंगे आप ? फलने फूलने का आशीर्वाद देंगे ?
       उदाहरण पांच की जगह पचास दिए जा सकते हैं । एक महत्वाकांक्षी युवा लिटरेरी एजेंट का काम करता मिल जाएगा आपको । एक अस्सी साल का कवि महँगी शराब की बोतल से तृप्त एक घटिया किताब का ब्लर्ब लिखता मिल जाएगा आपको । रचना के साथ विज्ञापन का चेक भेज कर खुद को छपवाने वाले साहित्यिक भी दुर्लभ नहीं है । तो प्रश्न यह है कि क्या इनकी बरबादी की कामना भी न की जाए । मैं विश्वास करना चाहता हूँ कि समाज में और साहित्य में भी अच्छे और शुभ का उत्थान हो । प्रतिभाओं को उचित स्थान मिले । जिसकी जो जगह है उससे वह छीनी न जाए । यह क्या इतना आसान है ? क्या ही अच्छा होता कि समाज में इतने अच्छे लोग होते कि बुरे लोग सिर उठा कर चलने का साहस न कर पाते । जो शुभ है, जो सुन्दर है वही सर्वथा सम्मानित होता । वह उपेक्षित न होता । क्या यह सोचना अपने आप में बहुत अव्यवहारिक है ? यदि नहीं तो क्या यह अपने आप हो जाएगा ? इसके लिए किसी शुभ दिन का इंतजार करना चाहिए ? नहीं । ऐसे किसी शुभ दिन के इंतजार से बेहतर है ऐसे दिन के लिए छोटे-छोटे कदम उठाना । कदम उठाने की शुरुआत आगे बढ़ने की इच्छा से होती है । यह हमें ही तय करना होगा कि हमारी प्रार्थनाओं में हम किसको बचाएं और किसको मिटा दें।


– नील कमल
जन्म : १५.०८.१९६८(वाराणसी , उत्तर प्रदेश), शिक्षा : गोरखपुर विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर, कविता-संग्रह "हाथ सुंदर लगते हैं" २०१० में कलानिधि प्रकाशन , लखनऊ से व ’यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है’  ऋत्विज प्रकाशन  से प्रकाशित, कविताएँ,कहानियां व स्वतन्त्र लेख महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित [प्रगतिशील वसुधा , माध्यम , वागर्थ , कृति ओर , सेतु , समकालीन सृजन , सृजन संवाद , पाठ , बया, इन्द्रप्रस्थ भारती , आजकल , जनसत्ता , अक्षर पर्व , उन्नयन , साखी , शेष व अन्य

Thursday 3 April 2014

फ़ेसबुकिए-बिनफ़ेसबुकिए v/s फ़ेसबुकिए-बिनफ़ेसबुकिए - नवनीत पाण्डे

(आभासी दुनिया वैचारिक घमासान) 

(क्षमा सहित आभार बुध्दिजीवी अग्रजो/ मित्रो गणेश पाण्डेय, दयानंद पाण्डे,  कल्ब ए कबीर (कृष्ण कल्पित), शिरीष कुमार मौर्य, निलय उपाध्याय, नील कमल, लालित्य ललित, सूरज प्रकाश डा.सुनीता, रवीन्द्र के दास, अविनाश मिश्र, स्वतंत्र मिश्र, आशुतोष कुमार,  अशोक कुमार पाण्डे, दखल प्रकाशन, गिरिराज किराड़ू, ओम थानवी, उदय प्रकाश, प्रभात रंजन, केशव तिवारी, वीरेंद्र यादव आदि का जिनकी फ़ेस बुक पोस्ट्स के बिना यह विचार- आलेख असंभव था- नवनीत पाण्डे)
"फेसबुक बहुत मज़ेदार जगह है। किसी का भी स्‍टेटस जहां से शुरू होता है, वहां से बहुत दूर जाकर कहीं और निकलता और खुलता है। टिप्‍पणियां टिप्‍पणीकारों के मूड के साथ आगे बढ़ती हैं - ज़रूरी नहीं होता कि वे स्‍टेटस पर फोकस हों। बात कुछ की कुछ बनती चली जाती है। एक स्‍टेटस में इतनी सम्‍भावनाएं होती हैं कि देख कर कभी तो चकित रह जाता हूं। कभी सामान्‍य बातचीत झगड़े में बदल जाती है और झगड़ा दोस्‍ताना टिप्‍पणियों में बदल जाता है। आप कोई सैद्धान्तिक या गम्‍भीर बात कर रहे होते हैं लेकिन सामने वाला आपको छेड़ने का रवैया अपनाता है, कोशिश भर चिढ़ाता है - यही आप भी किसी और के स्‍टेटस पर कर रहे होते हैं। अकसर मज़ाक में कही गई बातों पर बातचीत बहुत गम्‍भीर रूप ले लेती है और कभी गम्‍भीरता का मज़ाक बन जाता है। मुझे यह सब होना बहुत अच्‍छा लगता है। इधर लगातार महसूस कर रहा हूं कि यह जगह भले आभासी कही जाए पर जीवन यहां पूरी वास्‍तविकता में खिल कर सामने आता है। शुक्रिया मेरे सभी दोस्‍तो मेरे लिए इस एक जगह इस तरह एक साथ सम्‍भव होने के लिए।" शिरीष कुमार मौर्य

"फ़ेस बुक अपने एकान्त मे सहकर्मियो की तलाश है।" - निलय उपाध्याय

"ऐसे दोस्त हैं जो फेसबुक को विदा अलविदा बोलते हैं और दो-चार दिन से ज्यादा इससे दूर नहीं रह पाते, कई तो कई बार ये करतब कर चुके. ऐसे भी हैं जिन्होंने जाने की कोई ड्रामाई घोषणा नहीं की और गायब हो गए. इस दूसरी केटेगरी में सबसे ज्यादा अचम्भा चन्दन पाण्डेय के गायब होने से हुआ. इधर मेरे मन में भी ख़याल आ रहा है. पिछले आठेक महीनों में मैं जितना ऑनलाइन रहा हूँ पहले कभी उसका चौथाई भी नहीं रहा. सोच रहा हूँ गायब होने से पहले एक बार दिन में दस स्टेटस लगाने पचासेक कमेन्ट करने, दो सौ लाईक मारने और कुछेक हैप्पी बड्डे बोलने का परचा पास कर के पूरा सोशल हो कर ही नेटवर्क से जाऊं.- गिरिराज किराड़ू 

"फ़ेसबुक का मैदान अब राजनीति के तीन खानों में बंट गया है। राहुल, मोदी और केजरीवाल। अपने को विवेकवान मानने वाले एक से एक विद्वान धोबिया पछाड़ पर आमादा हैं। तलवारें हवा में लहरा रही हैं। तो कोई इन के-उन के नाम पर मटर छील रहा है। कोई स्वेटर बुन रहा है। तर्क अब पूरी तरह कुतर्क में तब्दील है। लता मंगेशकर, सलमान खान भी लगे हाथ भुट्टे की तरह भुने जा रहे हैं। कोई मोदी को धूर्त बता रहा है, कोई चाय वाला। कोई राहुल को चुगद बता रहा है तो कोई आदर्श का मारा और सहनशील। तो कोई केजरीवाल को अराजक और कोई गेम-चेंजर बता रहा है। अजीब अफ़रा-तफ़री है। पेड वाले फ़ेसबुकिए अलग पेंग मार रहे हैं। विद्वान लोग अलग करेला नीम पर चढ़ कर बेच रहे हैं। सारी जंग फ़ेसबुक पर आ गई है। गोया एक नया कुरुक्षेत्र बन गया हो। हल्दीघाटी और पानीपत से लगायत सारी लड़ाइयां जेरे जंग हैं। क्या कहा, विवेक? हा-हा तो वह तो भुट्टे भुन रहा है इस सर्दी में। लेकिन सवाल यह है कि खा कौन रहा है और खेल कौन रहा है? धूमिल याद आ रहे हैं : एक आदमी/ रोटी बेलता है/ एक आदमी रोटी खाता है/ एक तीसरा आदमी भी है/ जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है/ वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है/ मैं पूछता हूँ--/ 'यह तीसरा आदमी कौन है ?'/ मेरे देश की संसद मौन है। ' और अब शायद अपनी जनता भी मौन है। बोल रहे हैं तो सिर्फ़ सर्वे, चैनल और हां फ़ेसबुकिए। राहुल, मोदी, केजरीवाल ! जैसे रोटी-दाल, नू्न -तेल, सब्जी-दाल,प्रेम मुहब्बत, अस्पताल, स्कूल, टैक्स, पेट्रोल, गैस आदि हेन-तेन सब घास चरने चले गए हैं। कि सोने? फेको रहो ज्वानो ! खूब कस के ! कोई भी कैच नहीं कर पाएगा।" - दयानंद पाण्डे

"गुटनिरपेक्षता इतिहास में दर्ज है...किसी जमाने में दरबारी लेखक-लेखिकाएँ हुआ करते थे...राजे-राजवाड़े से होते हुए आज 'गिरोहबाद' 'गुटबाजी' और 'केचुआबादी' परम्परा की पैदाइश बेशुमार बढ़ी है... जिससे समाज का दर्पण खंड-अखण्ड और अनगिनत टुकड़ों में विभाजित हो चूका है... इस विभाजन रेखा से किसको कितना लाभ और हानि हुआ है...? इस बिंदु को लेकर जब 'शब्दशिल्पियों' और 'वर्णउच्चारकों' के दरबार में गयी तो अदभूत अनुभव का समाना करने को देखी... कहते हैं कि- 'हमाम में सब नंगा है...' यही नंगई साहित्य के समस्त विधाओं में विकराल रूप में विरजमान है... कुछ ने जबाब दिया...कुछ ने नाम न बताने के शर्त पर लपेट कर...ओड्चा भर भड़ास निकाली...कुछ ने इसे 'समुन्दरमंथन' के समक्ष रखा...क्योंकि 'विष' और 'अमृत' दोनों के बिन समय के कसौटी पर इन सरोकारों को कसना मुमकिन नहीं है...

"लगातार बहुत सारे लोगों के लिखे को पढ़ रही हूँ...खेमे और खुमचो में बटे लोग...देशहित/साहित्य/सरोकार/सृजन/सम्मान/अस्तित्व और अस्मिता की बात करते हुए...बड़े अजीब लगते हैं...क्योंकि बहुतेरे जाने-अनजाने स्त्री-पुरुष दोनों 'फुट डालो और राज्य करो' की भावना प्रदर्शित करते हुए जान पड़े... सही को सही/अंधे को अँधा/शराबी को शराबी/ घुमक्कड़ को घुमक्कड़ और गिरोबादी को गुट्बाज बर्दास्त नहीं होते...वस्तुतः सच्चाई यही है कि हम जो होते हैं उसका ठप्पा सहन नहीं कर पाते हैं... फिर भी उनके उगले गये शब्दों से आँख मूंदकर आगे नहीं बढ़ सकते हैं...इसीलिए नित्य किये गये कैय करें स्वीकार...उसके बाद करें... सृजन/सरोकार और सम्मान की उलटी बात...हाय...फेकने-फेकने भये हैं...जीवन के पल दो-चार...ईश्वर उनकी भला करें चारो धाम... डॉ. सुनीता

"मेरे स्पष्ट बोलने के कारण इस फ़ेसबुक पर बहुत लोग नाता भी तोड कर जा चुके हैं.... तो क्या मुझे अपनी स्पष्टवादिता छोड देनी चाहिए ?" - रवीन्द्र के दास

"मैं तो फेस-बुक को चतुर्भुज-स्थान समझता था, पार्थ ! लेकिन यह तो एक क़त्ल-गाह है, सार्त्र !- कल्बे कबीर (कृष्ण कल्पित)


मित्रो! हिन्दी फ़ेसबुकी साहित्य जगत का मुझे यह संक्रमण काल लग रहा है। जिस में एक नहीं, कई तरह के संक्रमण हैं और जिन में सब से अधिक आत्ममुग्धता, फ़तवाबाजी,  उपेक्षा, प्रलाप आदि हैं। इन में भी सबसे अधिक आत्ममुग्धता है जिस में एक अनेक नहीं कई कंपनियां सक्रिय हैं जिन में कट्टर बाजारु प्रतियोगिताएं दिखायी देती है और इस प्रतियोगिता में एक दूसरे को धोबी- पाट देने के लिए किसी भी हद तक जाते और तथाकथित बुध्दिजीवी  मर्यादाओं बगलें झांकते और मुंह छिपाते देखा गया है। पिछले एक दो बरसों से एक नयी बात जो हुयी है.. वह है हिन्दी कविता- कहानी में कुछ नए नाम अवतरित कराए गए और लगातार यह क्रम जारी है.. जिनका लिखने- पढने की दुनिया में  कहीं कोई उपस्थिति दर्ज़ नहीं थी। मज़े की बात ये कि जिस तरह ऎसे नाम आए... वैसे ही उन में से अधिकतर गायब भी हो गए.... सिर्फ़ एक माहौल बनाने वाली बात होकर ही रह गए.. ऎसे आत्ममुग्ध  लेखकों- आलोचना- संपादक विशेषज्ञों की हर गतिविधि अपने निर्धारित दायरों- अपनी धारा में  ही केंद्रित रहती है, बावजूद इसके कुछ अन्य बातें भी किसी कंपनियों के अपने अपने उत्पाद को सबसे अलग विशेष बताने वाले हम उसी उत्पाद को क्यों लें वाले  बड़े-बड़े विज्ञापन में रिझानेवाले अतिश्योक्ति पूर्ण  तमाम तामझाम व कथन यहां भी मिलेंगे फ़र्क है तो बस यह कि इन में उन कंपनियों की तरह विज्ञापन में वह नन्हा सा स्टार नहीं होता जिस में उत्पाद सम्बंधी शर्तें छुपी होती है.. स्टार प्रचारक, एबेंसेडर जरूर हैं। और  होता अधिकतर यहां भी वही है ऎसे विज्ञापनों वाले कंपनी उत्पाद खरीदने पर होता है। खोदा पहाड़ निकली चूहिया। सुनवाई कंपनियों में भी नहीं होती, यहां भी नहीं हैं। अगर आपने हिम्मत कर फ़तवे को स्वीकार नहीं किया, या सहमत नहीं हो कुछ कह-सुन दिया तो आप खेमे- समूह से बाहर और उपेक्षित।  
          मीडिया के मैनेज होने का आरोप लग रहा है लेकिन साहित्य में तो यह चक्कर बरसों से हैं..और अब फ़ेसबुक पर भी... लिखने से लेकर छपने, बिकने, चर्चित, स्थापित और पुरस्कृत होने का एक  पैटैर्न है..अगर आप उस पैटैर्न के समर्थक, साथ नहीं हैं तो आप कुछ भी विरोध में कहें- लिखें हाय तौबा किसी के क्या फ़र्क पड़नेवाला है क्योंकि यहां तो अधिकतर बहती गंगा में हाथ धोने में विश्वास रखनेवाले लोग होते हैं।

फ़ेस बुक के तीन फ़ेस 

1. सर्वाधिक - वे जो सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी और अपने परिवार, मित्रो से सम्बन्धित उपलब्धियां (जिनके केंद्र में वे खुद या उनके अपने हैं), की पोस्ट या चित्र शेयर करते है।

2. सर्वाधिक से थोड़े कम - कुछ उदार परिवार, मित्रो से थोड़े आगे बढ अपने शहर, प्रांत की पोस्ट या चित्र शेयर करते हैं।

3. सबसे कम - अपनी और अपने परिवार, मित्रो से सम्बन्धित उपलब्धियां (जिनके केंद्र में वे खुद या उनके अपने हैं) से अधिक समाज, आम आदमी, देश-विदेश के सम सामयिक सामाजिक, राजनैतिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और कलाओं से सम्बन्धित घटना-क्रमों, मुद्दों पर वैचारिक अपनी सोच, बहस और मंथन से ध्यानाकर्षण करते हैं

फ़ेस बुक के तीन अनुभूत सत्य

पहला- पोस्ट चाहे जैसी हो अगर प्रोफ़ाइल फ़िमेल हैं तो दावा है खूब सारे लाइक और कमेण्ट मिलेंगे

दूसरा- पोस्ट चाहे जैसी हो अगर पोस्ट किसी प्रोमिनेंट फ़िगर की हैं तो भी खूब सारे लाइक और कमेण्ट मिलेंगे

तीसरा- पोस्ट चाहे कितनी ही अच्छी, सही और मुद्दे की हो लेकिन अगर प्रोफ़ाइल सामान्य और दमदार नहीं तो बहुत मुश्किल है कि आपकी बात को आपके निजी मित्रों से बाहर किसी का समर्थन मिल पाए।

चार साला फेसबुक सर्फिंग से प्राप्त बोध 

१. यहाँ आत्म-विज्ञापन ही होता है 

२. यहाँ "सुविधावादी" मानसिकता अधिक प्रबल है. 

३. यहाँ सिर्फ और सिर्फ आत्मानुकूलित बातें कही-सुनी जाती हैं.

४. यहाँ "अपने को कुछ समंझने वाले" दूसरे को अपने प्रशंसक से अधिक नहीं मानते हैं. 

५. यहाँ सभी "अपनी धारणाओं" को 'सच' कहकर परोसने का यत्न करते है. 

६ . यह पाठ्य से अधिक दृश्य माध्यम है. 

विशेष : तथापि नए संपर्क बनते हैं जो आत्म-विस्तार की गरज से बेहतर है जो इससे पहले संभव न था. (रवीन्द्र के दास)

आप अपनी वाल पर जो चाहें जैसे चाहें विचार लिखें और उन पर आयी टिप्पणियों पर अपने हिसाब से फ़ैसले लें लेकिन आपको कोई हक नहीं कि आप अपने मित्र की वाल पर व्यक्त विचारों पर किसी टिप्पणी या टिप्पणियों पर सारी मर्यादाएं ताक पर रखते हुए अभद्रता और असहनीय बद्तमीज़ी पर उतर आएं भले ही विचारों कितनी ही असहमतियां हों लेकिन यह भाईगिरी दिखाने का मंच तो कतई नहीं है जैसा कि कुछ लोगों ने समझ रखा है.. ऎसे मित्रो से तो...ऎसी ही समस्या से त्रस्त हो आज एक मित्र को अमित्र करना पड़ा है..

"महान कौन? कुछ लोग महान पैदा होते हैं. कुछ लोगों को महानता विरासत में मिलती है. कुछ लोग महान बनने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाते हैं, वे काम तो बहुत औसत दर्जे का और कभी-कभी बहुत घटिया काम भी करके अपने जीवन में महान बने फिरते हैं लेकिन मरते ही उनकी गली, उनका दरबार, उनके दरबारी दुसरे महान किस्म के लोगों कि खोज में लग जाते हैं. वे अपने आसपास घिरे लोगों के बीच ही महान बने रहते हैं. पर कुछ लोग सिर्फ काम करते हैं और सिर्फ काम करते हैं. अपने काम का जिक्र भी सिर्फ सन्दर्भ आने पर ही बहुत ही संक्षेप में करके आगे चल पड़ते हैं. वे यह समझते हैं जीवन तो एक ही मिला है या तो काम हो सकेगा या नाम. काम मरते दम तक कर लो नाम बाद में उनके काम से होता रहेगा। वे यह समझ कर काम करते हैं कि पेड़ का हर पत्ता छाया और हवा देने के काम नहीं आता, कुछ आँगन में बिखरकर, सड़कर अपने समाज के लिए खाद बनकर जीवन को लहलहाने के काम ही आ सकें तो भी जीवन सार्थक।" - स्वतंत्र मिश्र 

"आत्मप्रचार एक अच्छी चीज है क्योंकि इससे 'आत्म' संपृक्त है, लेकिन फिर भी अपनी कविताओं को, उनके लिंक्स को या कहीं प्रिंट में पब्लिश होने की उनकी सूचना को फेसबुक स्टेट्स में शेअर करना मुझे हमेशा अनुचित लगता रहा है।"  
 - अविनाश मिश्र

फ़ेस बुक २

किसी की वाल पर जाकर टैग करना....

अचानक आए संकट से निपटने के लिए 
नींद में सोए आदमी के घर 
आधी रात को
दरवाजे पर दस्तक देना है। 

संकट में मित्रो का
सहयोग करना अच्छा लगता है 
यह तो अपनी भी सुरक्षा है।

पर कच्ची नींद मेंं
ये लगे कि कोई 
अपनी कुंठा का वमन करने आया है 
तो....

आप ही बताईए 
आपको कैसा लगता है? - निलय उपाध्याय
फ़ेसबुक के वे मित्र जो अपनी हर पर्सनल एक्टीवीटी के छाया -चित्र यूं चस्पां करते हैं जैसे वे कोई ऎतिहासिक हो जिन्हें फ़ेसबुक पर्यटकों द्वारा देखा जाना अनिवार्य है मैं टूथ ब्रुश करते हुए, मैं नहाते हुए, धोते हुए, मैं खाते हुए, मैं खिलाते हुए, मैं सोते हुए, मैं जागते हुए, मेरी टिकट कन्फ़र्म हो गयी, मैं ये मैं वो, मैं ऎसे, मैं वैसे.. जाने कितने उदाहरण होंगे ऎसे...हद नहीं मित्रो ये बेहद की पराकाष्ठा है और ऎसे चित्रो को टैग करना तो उफ़्फ़! क्या हैं आप.. एक सह्र्दय मित्र होने के नाते एक सलाह- सुझाव देना चाहूंगा कृपया अपनी बेहद निजी ज़िंदगी को सार्वजनिक बाजार बनाने से बेहतर हो कि आपसी संवाद के इस बेहतरीन माध्यम का उपयोग और ऊर्जा हम यहां हमारे सार्वजनिक जीवन में हासिल प्रतिभा- उपलब्धियों, विशेषताओं को साझा करने में करें न कि नितांत व्यक्तिगत क्रिया- कलापों के प्रदर्शन में...अपने ही मित्रो की सहनशीलता और धैर्य की ऎसे परीक्षा न लें कृपया! ..मैंने पहले भी अपनी एक पोस्ट में ध्यान दिलाने का प्रयास किया था.. मित्रो! फ़ेसबुक सोशल मीडिया माध्यम के रूप में हमें मिली वह संजीवनी है जिसके माध्यम से हम हमारी वैचारिक अभिव्यक्तियां दूसरों के साथ न केवल साझा करते है अपितु उस विषय में विशेषज्ञों से संवाद-बहसें भी करते है। इस माध्यम ने हमें वह मंच दिया है जो हकीकतन हमें शायद ही मिलता.. एक और उपलब्धि और खासियत यह कि यहां हमें अपने उन अग्रजों- विशेषज्ञों से सीधे संवाद- सम्पर्क का भी मौका मिला है जिनको हम सिर्फ़ सूचना- प्रचार- प्रिण्ट माध्यमों से जानते थे..अत: इस मंच पर हमारी उपस्थिति और मान- मर्यादा किसी और के नहीं हमारे खुद ही के हाथों में हैं..इसका सम्मान करें और अपने चाहनेवालों - मित्रो के बीच उदाहरणीय बनें और इस वैश्विक आंगन को अपना बैडरूम बनाने से बचाएं...इसे इसे अन्यथा न लें, आपके हित में ही हमारा हित है.. आपकी मित्रता- विचार हमारे लिए अमूल्य है....आपकी नित्य दैनिक क्रियाएं कदापि नहीं..

देखिए! देखिए तो!
मेरा घर
मेरी रसोई
बच्चों का कमरा
मेरी स्टडी
हमारा बैडरूम
छोटी बॉल्कोनी
और इसी में 
हमारी छोटी सी
प्यारी सी फ़ुलवारी
ये हमारे दो गुसलखाने
एक देसी, एक यूरोपियन
और खुली- फ़ैली छत भी
सच ऎसा है मेरा घर
मैंने भी पहली बार देखा है
अपना ये पूरा घर
आपको जो दिखाना था
छत बची है
उस पर अगली बार ले जाऊंगा...नोट:- यह कविता नहीं है

अक्सर देखता हूं कि कुछ मित्र अपने खाने की टेबल दिखाते हैं कि उनके खाने के मीनू में क्या- क्या है इसी तरह ड्रिंक की टेबल भी..  उन्हें लाइक और उन पर कमेण्ट्स देख हैरत होती है। इसी तरह दो - तीन दिन पहले मित्र  विचारक- आलोचक आशुतोष कुमार ने किसी सीढियों का उखड़े हुए रंग प्लास्टर के साथ एक चित्र "पहचाना? बताइये यह किसकी छवि है ?" और हम बुध्दिजीवियों का कमाल देखिए उस पर उन्हें अब तक 67 लाइक्स और 104 कमेंट्स मिल चुके हैं..सिर्फ़ इसलिए वह पोस्ट फ़ेसबुक पर ज्वलंत मुद्दों को उठाने और सार्थक बहसें करनेवाले एक सक्रिय एक प्रोमिनेंट फ़िगर की है.. इसलिए उनकी यह फ़ालतू चीज भी कितने काम की है। और ऎसे हादसे आजकल आम हो चुके हैं। 
लगता है आनेवाले समय में लोग अपनी दैनिक नित्य क्रियाएं व अंतरंग निजी पलों को भी पब्लिकली साझा करने लगेंगे.... अपना खाना- पीना, पहनना- ओढना तो सबके साथ बांटना शुरु कर ही चुके हैं...यहां अपने इस फ़ेसबुकी प्लेटफ़ार्म की साफ़- सफ़ाई और शालीनता हमारे ही हाथ में है भिड़ू ! मैं झूठ बोलिया कोई ना.. 
इस बारे में मित्र स्वतंत्र मिश्र की यह पोस्ट ’सिमटते हुए समाज में फेसबुक का एक दर्दनाक पहलू यह भी है. यहाँ dislike का विकल्प नहीं है।’ और एक अन्य मित्र रविंद्र के दास का ’मेढकों को कब तक रखेंगे खुले तराजू में ?[इन-बॉक्स जिन्न]’  आपसदारी से मित्रता (?) का अलख भले जगे ..... कविता का अंडा नहीं से सकते.’ व  व्यंग्य "फेसबुक बारहवीं तक ब्वायेज स्कूल में पढ़े और फिर कालेज में को एड में आ गए लड़कों की क्लास जैसा होता है जहाँ सब पोलिटिकल करेक्ट होने की कोशिश में एक्टिंग उर्फ़ पोस्टिंग करते रहते हैं." मुझे बहुत महत्त्वपूर्ण लगती है। 
इसके विपरीत फ़ेसबुक पर सम समसामयिक जवलंत मुद्दों के साथ- साथ सामाजिक, राजनैतिक, साहित्यिक   और आचार- व्यवहार सम्बन्धी सार्थक बौध्दिक विचार- विमर्श और बहसें भी मित्रों के बीच होती रहती है जिनके परिणाम स्वरूप मित्रताएं भी खतरे में पड़ जाती है और कभी- कभी तो खतरे में भी पड़ जाती हैं पिछले वर्ष मेरे और दूलाराम सहारण, ओम थानवी- अशोक कुमार पाण्डे, मोहन श्रोत्रिय, गिरिराज किराड़ू आदि के बीच हुयी वैचारिक बहसों के हश्र क्या हुए थे, फ़ेसबुकी मित्रो को स्मरण होगा.. कुछ मित्र तो आज तक आपस में ब्लॉक हैं। 

"लोगों का क्या है, कुछ भी बोल देते हैं ! अब देखिए न, कल तक जो लोग इसी मंच पर मित्रों को वैचारिक असहमतियों के नाम पर ब्लॉक करते रहे हैं आज अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए गला फाड़ रहे हैं ।" - नील कमल

फ़ेसबुक साहित्यिक अखाड़े में बुध्दिजीवियों की वैचारिक बहसों, आरोपों -प्रत्यारोपों के कुछ ऎतिहासिक सोपान 

"नये रचनाकारों का शोषण अक्सर बड़े लोग करते है ये वे लोग है जिन्हें हम बड़ा बनाते है जिसमे सूरज प्रकाश,तेजेंद्र शर्मा,मधु अरोरा का नाम लिया जा सकता है जो मेल के जरिये इनबॉक्स के जरिये एक नई लेखिका को धमकाने में लगे है कि तुम लिखना बंद करो,तुम्हें लिखना नहीं आता .मुझे जब पता चला मित्रों मैं तो हैरान हो गया कि कुछ तथाकथितों की वजह से नई पीड़ी क्या लिखना बंद कर दें या जो जो वोह गाहे बगाहे सीख दे उस पर चले .हद्द हो गई शराफत की .इस से वे साबित क्या करना चाहते है की क्या वे प्रेमचंद हो गए .उफ़ जब कि फर्ज यह होना चाहिए कि आप आने वाले नए सृजनका स्वागत करे उसे शाबाशी दे ना कि उसे प्रताड़ित करे .बड़े बनते है ,काहे के .......लालित्य ललित

"मैं इस समय ट्रेन में हूँ। कुछ मित्रों ने बताया कि मेरे ही कुछ बेहद सगे मित्र फेसबुक पर मेरा चरित्र हनन कर रहे हैं। ज।न कर आश्चर्य नहीं हुआ। संयोग से जिनकी ओर से मुझ पर आरोप लगाया गया है उनके साथ हुई सारी चैट मेरे इनबाक्स में सुरक्षित है। मैं जग जाहिर करता हूँ और उम्मीद करता हूं कि सामने वाला या वाली भी अपने आरोपों के साथ मुझसे हुई तथा कथित चैट जगजाहिर करे या सार्वजनिक रूप से माफी मांगे। - सूरज प्रकाश
"मुझे कुछ कहना है। भारी मन से। पिछले चार बरसों में फेसबुक ने मुझे हज़ारों बेहतरीन मित्र, पाठक, कहानियों के प्रशंसक और कई कहानियों के यादगार पात्र दिये और मैं हर रोज फेसबुक से अपने लेखन के लिए असीम ऊर्जा पाता रहा। लेकिन कुछ दिन पहले मेरे भोले भंडारी दोस्‍त ललित लालित्‍य ने मुझ पर एक नवोदित लेखिका को लेखन से गुमराह करने और उसे लेखन के प्रति हतोत्‍साहित करने के गंभीर आरोप लगाये। मेरा कुसूर मात्र इतना था कि मैंने उस लेखिका की एक खराब कहानी को सचमुच खराब बता दिया था जब कि फेसबुक पर उसे कहानी पर अच्‍छी खासी टीआरपी मिल रही थी। इस और कुछ और तथाकथित शिकायतों का पुलिंदा बना कर लेखिका ने कुछ मित्रों को मेरा चरित्र हनन करते हुए एक मैसेज भेजा। मैंने लेखिका को मुझ पर लगाये गये आरोपों का साबित करने या माफी मांगने के लिए लिखा तो उसने खुदकुशी करने की धमकी दे डाली। भगवान न करें, कहीं उसने सचमुच खुदकुशी कर न ली हो। मेरे पास उस महिला मित्र से हुई सारी चैट सुरक्षित है। उसमें कहीं भी कुछ भी ऐसा नहीं है जो मुझे आरोपों के घेरे में खड़ा करता हो। यह चैट सिर्फ मुझ तक रहेगी। मैं अब भी कह रहा हूं कि वह लेखिका अब भी मुझ पर लगाये गये आरोप सिद्ध करे। मैं कोई भी ऐसा कदम नहीं उठाऊंगा जिससे एक उभरती हुई लेखिका के परिवार या कैरियर पर कोई आंच आये। मेरा जो होना था वो हो चुका। फेसबुक ने ये दिन भी दिखाना था। 
फिर भी मुझे विश्‍वास है कि मुझे आप सब मित्रों का आदर, स्‍नेह और अपनापन मिलता रहेगा। - सूरज प्रकाश

"हमारे द्वारा ब्लाकित और मेले में न पहचाने जाने से आहत एक युवतर कवि-उप टाइप के कुछ सम्पादक, कूड़ा गिरोह के प्रखर प्रवक्ता अपनी नाहत इर्ष्या में हमारी फोटूओं और हर आयोजन में भागीदारी से विदग्ध हैं। हमें एहसास है कि उन्हें विस्तार से हमारी भागीदारियों की ख़बर न मिली होगी। तो यहाँ सब लिखे देते हैं ताकि वह जलें तो भरपूर इर्ष्याग्नि में जलें। 
1- समन्वय के आयोजन 'साहित्य में आम आदमी' में प्रोफ़ेसर सविता सिंह, आशुतोष कुमार, रमाकांत राय, प्रभात रंजन और गिरिराज किराडू के साथ
2- समन्वय के एक अन्य आयोजन 'युवा जीवन की अजब ग़ज़ब दास्ताँ' में महुआ माजी, गंगा सहाय मीणा, मनीषा पाण्डेय और प्रभात रंजन के साथ
3- ज्ञानपीठ के 'केदार ग्रंथावली' तथा 'बड़ी किताबों पर बड़ी फिल्मों' के विमोचन कार्यक्रमों का संचालन।
4-ज्ञानपीठ की परिचर्चा 'युवा साहित्य का बदलता परिवेश' में अजय नावरिया, डा निरंजन श्रोत्रिय, प्रेमचंद गांधी, राजीव कुमार, उमाशंकर चौधरी और कुमार अनुपम के साथ भागीदारी।
5- दलित लेखक संघ के कविता पाठ में मुख्य आतिथ्य
6-शिल्पायन के एक आयोजन में उमेश चौहान जी की सद्य प्रकाशित पुस्तक के विमोचन कार्यक्रम का संचालन।
और दख़ल के 'कविता की शाम' तथा 'बीसवीं सदी में डा अम्बेडकर का सवाल' पुस्तक पर लेखक पाठक संवाद का सञ्चालन तो खैर करना ही था। 
"यह पोस्ट सिर्फ उन्हें इर्ष्याग्नि में जलने की प्रचुर सुविधा उत्पन्न कराने के लिए है। कुछ और लोग इसे आत्मप्रचार जैसा कुछ मानकर सुखी/दुखी/मैं न कहता था टाइप भाव पाल सकते हैं।" (अशोक कुमार पाण्डेय) 

"बहसों से भागे हुए लोग जब अपनी वाल पर खीझ भरी टिप्पणियाँ करते हैं, झूठ लिखते हैं, मिस्कोट करते हैं तो मान लेना चाहिए कि वे 'जन' के ऊपर अपनी 'सत्ता' न चला पाने की भयानक कुंठा में डूबे हैं. जिन्हें कुछ 'लौंडों' के सवालों से दिक्कत होती है वे मानकर चलते रहे अब तक कि 'लौंडे' सिर्फ यस सर कहने के लिए, दारू पहुँचाने के लिए, फोटो खींच कर 'अहो भाग्य' मुद्रा में आ जाने के लिए, उनकी दो कौड़ी की किताब की चार पेज की समीक्षा (?) लिखने के लिए और उनके सामने याचक मुद्रा में खड़े होने के लिए होते हैं. उनका भ्रम तोड़ने के लिए हम मुआफी मांगने वाले नहीं...हाँ उनके दुःख के प्रति हमारी 'व्यंग्यात्मक संवेदना ' ज़रूर है. जिन्हें अपने सामने सबको चुप रखने तथा अपने बड़ों के आगे चुप रहने की आदत है, उन्हें हमारा बोलना अगर 'वाचालता' लगता है तो वे सुन लें... हम चुप्पियों पर वाचालता को हमेशा वरीयता देंगे. उन्हें बुरा लगे तो हमारी बला से! " - दखल प्रकाशन

"हमारे बीच एक कथाकार हैं जो कभी किसी को धमकियाँ देते हैं और रंगे हाथ पकड़े जाने पर चट से माफ़ी भी मांग लेते हैं. कभी किसी खास प्रकाशन से जुड़े हुई या अघोषित तौर पर एजेंट भी लगते हैं. वे पहले भी बहुत बड़े साहित्यकार-पत्रकार नहीं रहे न ही आज जो कर्म कर रहे हैं, वहीँ बहुत ख़ास योगदान दीखता है.यही वजह कि वे अब कथा कम अकथा ज्यादा रच रहे हैं. वे पुरष्कार पाने के लिए बेताबी में रहते हैं. वे छुट्टा सांड की तरह बौरा गए लगते हैं उन्हें काँटों और फूलों का फर्क करना नहीं आता. उन्हें इतनी बैचेनी क्यों है भाई? दिमाग जरा दिखवा दो भाई इनका, अन्यथा ये तो अपने बनाये पुल से कूदकर जान दे देंगे किसी दिन..... फिर हमसे मत कहियेगा कि मैने नहीं चेताया था.।" - स्वतंत्र मिश्र 

"किसी दोस्त ने सूचना दी कि 'शुक्रवार' नामक दिल्ली से छपने वाली 'हिंदी' की व्यावसायिक-साहित्य की पत्रिका में कहीं से मेरा एक बहुत पुराना चित्र उड़ा कर छाप दिया है, जिसमें मैं भोपाल के 'हिंदी' कवि स्व. विनय दुबे और जीवित 'हिंदी' कवि श्री राजेश जोशी का कोई 'संस्मरण' प्रकाशित हुआ है । लेकिन न तो चित्र परिचय में न श्री जोशी जी के संस्मरण में कहीं भी मेरा कोई नाम है । 
शायद यह चित्र तब का है, जब मैं भोपाल में म.प्र. संस्कृति विभाग में विशेष कर्त्तव्य अधिकारी था और वहाँ की संस्कृति तथा साहित्य में पसरे कट्टर ब्राह्मणवादी भ्रष्टाचार से उकता कर इस्तीफ़ा दे कर वहाँ से लौट आया था । 
दिल्ली की पत्रिका 'शुक्रवार' के संपादक 'हिंदी' कवि श्री नागर और भोपाल के 'हिंदी' कवि श्री जोशी तथा उस 'कैप्शन-विहीन' फ़ोटो के बीच सुलगता हुआ सूत्र समान जाति के होने के साथ-साथ मध्य प्रदेश सरकार का 'हिंदी' साहित्य पुरस्कार 'शिखर-सम्मान' जुगाड़ने का तथ्य भी है । ये तीनों 'निर्विवाद' 'हिंदी' की 'जनवादी'कविता के 'िशखर' हैं । 
दोस्तो, आपको हँसी आयेगी कि भोपाल के सभी लेखक संगठन और समस्त साहित्यिक संस्थानों पर एक ही 'जाति' का कई दशकों से क़ब्ज़ा है । यहाँ तक कि संस्कृति-साहित्य से संबंधित सरकारी संस्थाओं को तो गिनना छोड़िये, आदिवासी और जन-जातीय कला-संस्कृति भी इसी एक जाति के क़ब्ज़े में है । 
(सावधान, इस सच को एक अपर्याप्त छोटे से पोस्ट के फ़ौरन बाद संस्कृति और साहित्य के परिदृश्य को भ्रष्ट जातिवादी वर्चस्व के कोण से देखने के विरुद्ध मेरे विरुद्ध कोई 'अभियान' उसी 'हिंदी' भाषा के कवियों-लेखकों द्वारा शुरू हो जाएगा, जिसमें लिखते हुए मैं अक्सर सोचता हूँ कि क्या यह मेरी भी 'भाषा' है ?
यह हमारी 'भाषा ' क़तई नहीं है दोस्तो । इसमें हमारे चित्रों में हमारा नाम न होना एक ग़नीमत है, आश्चर्य नहीं ।" (उदय प्रकाश) 

”फेसबुक पर लोग दिन में कितना-कितना ज्ञान बांटते फिरते हैं ! निस्संकोच। गुरु-गंभीर मुद्रा में। जो दिल में आए, लिख मारते हैं। जैसे दुनिया भर का वैचारिक बोझ उन्हीं पर हो ! मुझे लगता है ऐसे फेसबुक बाबाओं में ज्यादातर वे हैं जो विफल शिक्षक, विफल लेखक या विफल पत्रकार रहे हैं।” क्या आप भी ये सद्कर्म यहां नहीं करते? ”हालांकि मैं भी सफल लोगों में नहीं (वरना किसी चैनल पर कव्वे न लड़ा रहा होता!); पर जिन्हें ज्ञान का अजीर्ण है, अपने कहे पर जरा संशय नहीं, उनका क्या करें?”  (ओम थानवी)

"रोम जल रहा था नीरो बंशी बजा रहा था- यह मुहावरा पिछले दिनों अपने सबसे प्रिय अखबार के सबसे प्रिय संपादक की हरकतों से कुछ बेहतर समझ में आया. पिछले दिनों न्यायालय द्वारा सज्जन कुमार को ८४ के सिख विरोधी दंगों के आरोपों से मुक्त कर दिया गया. सरबजीत सिंह की पकिस्तान में एक तरह से हत्या कर दी गई. हमारे संपादक जी ने फेसबुक पर कोई स्टेटस इन घत्ब्नाओं को लेकर नहीं लिखा, जबकि पूरा देश उबल रहा था. वे क्या कर रहे रहे? एक संदिग्ध और साधारण कवि कमलेश शुक्ल को असंदिग्ध और असाधारण बताने के 'युद्ध' में जुटे हुए थे. संपादक जी की इस 'पक्षधरता' से मैं हतप्रभ हूँ. जिस संपादक से इतना सीखा उसके कृत्यों पर शर्म आ रही है.
"कवि कमलेश को मैं तब से जानता हूँ जब वे जॉर्ज फर्नांडीज के लिए काम करते थे. मैं दिल्ली में अपने स्थानीय अभिभावक हरिकिशोर सिंह(पूर्व विदेश मंत्री) के दरबार में उनको अक्सर देखा करता था. मुझे बहुत बाद में पता चला कि वे हिंदी के कवि भी हैं. कुछ लोगों की छवियाँ जरुरत से ज्यादा धवल बना दी जाती हैं. आदरणीय संपादक जी, आप जिस कवि कमलेश का चरित्र बचाना चाहते हैं पहले उसके चरित्र को तो जान लें."
"वाद विवाद किसी मुद्दे पर हो तो संवाद की सम्भावना बनी रहती है. श्री ओम थानवी ने जब कवि कमलेश शुक्ल के चरित्र को लेकर अति-उत्साह दिखाया तो मैंने उसका विरोध किया. लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि एक लेखक-संपादक के रूप में हम उनके अवदान को भूल जाएँ. ऐसे दौर में जब हिंदी पत्रकारिता के सारे स्तम्भ धराशायी हो रहे हैं ओम थानवी ऐसे अकेले संपादक हैं जो भाषा और साहित्य के लिए खड़े होते हैं. 'जनसत्ता' आज अगर अन्धकार में एक प्रकाश है तो उसके पीछे ओम जी ही हैं, इस बात को नहीं भूलना चाहिए. हाँ, जब भी वे कमलेश जैसे किसी 'जाली विद्वान' के चरित्र की चिंता करेंगे मैं उनका पुरजोर विरोध करूँगा. गलत को गलत कहना भी उनसे ही सीखा है, लेकिन सही को भी तो सही कहना होता है भाई लोगों!
मेरा उद्देश्य कभी भी ओम थानवी जी को अपमानित करना नहीं था. लेकिन अगर मेरी टिप्पणियों से से उनको ऐसा लगा कि मैं उनका अपमान कर रहा हूँ या उनका चरित्र हनन कर रहा हूँ तो मैं इसके लिए उनसे माफ़ी मांगता हूँ. उनकी यह बात सही है कि मुझे कवि कमलेश के बारे में सुनी-सुनाई बातों के आधार पर कुछ नहीं लिखना चाहिए था. मैं उसके लिए भी माफ़ी मांगता हूँ. लेकिन इतने बड़े अखबार के जिम्मेदार संपादक होने के बावजूद उन्होंने भी सुनी-सुनाई बातों के आधार पर मुझे 'कांग्रेस का सेवक' कह दिया, वह भी बिना प्रसंग के, क्या उनके लिए यह शोभा देता है? बहरहाल, इस सवाल के साथ मैं उन सबसे एक बार फिर माफ़ी मांगता हूँ जिनका मैंने दिल दुखाया, जिनके प्रतिकूल टिप्पणी की, विशेषकर ओम थानवी जी से, जिनके साथ 'जनसत्ता' में काम करना मेरे जीवन का यादगार अनुभव रहा है. - प्रभातरंजन

"एक बेबुनियाद आरोप इतवार को एक अखबार में लगाया गया था - प्रतिलिपि 'पत्रिका' की थोक खरीद के लिये आवेदन करने और अस्वीकार होने पर पर आवेदन अस्वीकार करने वालों के खिलाफ अभियान चलाने का। जब एक मित्र ने प्रमाण मांगा तो कहा गया कहने वाले की प्रतिष्ठा इतनी है कि उसका कहा ही प्रमाण है! फिर कहा गया 'पुस्तक' की जगह पत्रिका सुनने की 'भूल' हुई है। फिर कहा गया फेवर मांगने और न मिलने का मामला है। और यह कि प्रतिवाद क्यूं छापें जब उनका 'हमारी जनतांत्रिकता' में ही विश्वास नहीं। प्रतिवाद तो करेंगे, छापना न छापना उनका काम है। जिस संस्था का एक लाख सालाना हम मंच से अस्वीकार कर चुके उससे तो फेवर मांगने का आरोप सुनकर भी हंसी ही आती है। प्रतिलिपि बुक्स ने जनवरी 2011 में किताबें प्रकाशित करना शुरु किया और फरवरी 2011 में कविता समय के पहले आयोजन में एक लाख सालाना अस्वीकार कर दिया गया। 
"जानकीपुल पर अशोक वाजपेयी का जो ईमेल छपा है उसने यह तो सिद्ध कर दिया कि ओम थानवी ने 'थोक खरीद के लिये आवेदन करने' का जो आरोप लगाया था वह गलत था। अगर उनमें कोई नैतिकता हो तो उन्हें अपने अख़बार में भूल सुधार और खेद व्यक्त करना चाहिये। इस ईमेल में अशोक वाजपेयी ने जो कहा है कि 'वे अपने प्रकाशन से कुछ पुस्तकों के प्रकाशन के लिए फाउंडेशन से वित्तीय सहायता का आग्रह करने के लिए मुझसे मिले थे. हम उनके आग्रह को स्वीकार नहीं कर सके.' वह भी गलत है। प्रमाण मैं जारी करूंगा। इंतजार कीजिये क्यूंकि जनसत्ता के कारण यह मामला एक ऐसे पाठक समूह के भी सामने है जो सब यहाँ इंटरनेट पर नहीं है। जिन मित्रो ने मुझपे भरोसा जताया है वे बनाये रखें उन्हें निराश नहीं होना पड़ेगा।" - गिरिराज किराड़ू

"अपने ही बुने जाल में हँस-हँस कर फँसते हैं लोग। अपने एक फ़ेसबुकिया दोस्त की गति देख कर आज डा शंभुनाथ सिंह बहुत याद आ रहे हैं। उन की ही यह एक गीत पंक्ति है ; अपने ही बुने जाल में हँस-हँस कर फँसते हैं लोग। तो भैया फंस गए हैं। और अनाप-शनाप बक रहे हैं। छात्र राजनीति की लत अभी तक गई नहीं है। खैर, शंभुनाथ सिंह हैं तो देवरिया के मूल लेकिन काशी में रहते थे। विद्यापीठ में पढ़ाते थे। और एक से एक मधुर गीत लिखते थे। 'समय की शिला पर मधुर चित्र कितने/ किसी ने बनाए, किसी ने मिटाए/ किसी ने लिखी आंसुओं से कहानी/ किसी ने पढा़ किंतु दो बूंद पानी/ इसी में गए बीत दिन ज़िंदगी के/ गई धुल जवानी, गई मिट निशानी।' उन का ही मशहूर गीत है।"   दयानंद पाण्डे

कामरेड की जय हो !
हमारे एक मित्र थे क्या, हैं अभी भी। हां फ़ेसबुक पर अब नहीं हैं। यह उन की अपनी सुविधा और उन का अपना चयन है। लेकिन आज उन्हों ने साबित कर दिया कि वे फ़ासिस्ट थे, फ़ासिस्ट ही रहेंगे। लेकिन साथ ही यह भी बता दिया कि वह पलायनवादी भी हैं। सच से और तर्क से आंख छुपाने में भी खूब माहिर हैं। कामरेड की जय हो ! - दयानंद पाण्डे

"'कच्चा चिठ्ठा ' खोलने की धमकी के प्रकरण में जिस तरह प्रभात रंजन की संलिप्तता उजागर हुयी है ,वह सचमुच हिन्दी समाज के सार्वजानिक जीवन के लिए एक शर्मनाक और अफसोसनाक दृश्य है .विशेषकर तब और भी जब इसके लिए कोई प्रकट कारण न हो .उनके इस आपराधिक कृत्य की तात्कालिक प्रेरणा के मूल में 'कथादेश' (जुलाई १३) में प्रकाशित "सी आई ए के प्रति ऋण बनाम 'अज्ञान का अँधेरा' "शीर्षक मेरा वह लेख था जो अर्चना वर्मा के लेख के प्रत्युत्तर में लिखा गया था . लेकिन इस लेख में निशाने पर प्रभात रंजन  कहीं नहीं थे .स्वाभाविक ही था कि निशाने पर वे लोग थे  जो 'सी आई ए के प्रति समूची मानवता ' के ऋणी होने का आह्वान और समर्थन कर रहे थे और वाम विचार को कलंकित करने का अभियान चला रहे थे .अस्वाभाविक नहीं है कि  उनके निशाने पर मैं हूँ .ओम थानवी ने उदय प्रकाश प्रकरण में मेरे बारे में अपनी 'इज्जत 'भरी टिप्पणी से इसका खुलासा भी कर दिया .लेकिन यह सब खुली और प्रकट बातें हैं ,इनका क्या गिला ! कमर के नीचे के वार को सहने के लिए भी तैयार रहना ही चाहिए .दरअसल यह सब असहमति के विचार की भ्रूण हत्या की कोशिशें है जो हर दौर में होती रही हैं .- वीरेंन्द्र यादव 

"जीवन में किसी ईमानदार आदमी को यह कहते हुए नहीं पाया कि वह घोषित रूप से ईमानदार है । किसी घोषित पराक्रमी, घोषित विद्वान, घोषित क्रांतिकारी को भी नहीं देखा । लेकिन यह साहित्य की दुनिया है, बड़ी उछल-कूद है यहाँ तो । ज़रा हट के, ज़रा बच के, ये है हिन्दी मेरी जान !" - नील कमल
उक्त उदाहरणों को देखते हुए ऎसे मामलों  में मुझे लगता है..हमें वैचारिक सोच की दृष्टि से और अधिक परिपक्व  और अधिक सहनशील हो संयम रखने की जरूरत है। मुझे विश्व पुस्तक मेले के दौरान लिखी  मित्र अशोक कुमार पाण्डे की बहुत प्रभावित किया "मेले में कई ऐसे लोग मिले जिनसे फेसबुक के चलते लगभग दुश्मनी वाले हालात थे. कुछ खुद आगे बढ़के मिले. कुछ से हम आगे बढ़के मिले." व विमलेश त्रिपाठी की हरे प्रकाश उपाध्याय को ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार घोषणा पर लिखी "मतभेद होना और मनभेद होना अलग है और साहित्य वह बिरादरी है जहां अक्सर विवाद होते है पर महानता वही है जब हम पञ्च परमेश्वर की तर्ज पर सब भूलकर सही काम करें और सही निर्णय लें. " लिखी पोस्ट का यह अंश बहुत व्यवहारिक लगता है। ऎसा ही होना चाहिए।

इसी फ़ेसबुक पर कुछ  मित्र  लिखने - पढने की दुनिया के बहुत चेहरों के पीछे की साहित्यिक धांधलियों, नैतिकताओं की अनैतिक क्षुद्र मानसिक विकृतियां और विद्रूपताएं उजागर करते रहते हैं जिन्हें जान हम सिर्फ़ अफ़सोस कर सकते हैं.. इस बारे में युवा कवि पत्रकार- आलोचक - गद्यकार अविनाश मिश्र को क्षुब्ध हो कहना पड़ता है ”"आज सार्वजानिक रूप से कहना चाहता हूं। कभी-कभी लगता है कि अज्ञान भी आकर्षित करता है। वह भयमुक्त और सुरक्षित भी बनाता है। संभवत: इसलिए ही मेरे वरिष्ठ और प्रिय कवि अपने साक्षात्कारों, वक्तव्यों और सामान्य वार्तालापों में कुछ मूर्ख कवियों को एक भाषा की युवा कविता का प्रतिनिधि स्वर बताते आए हैं। वे उन्हें पुरस्कृत भी करते आए हैं।"  "पति-पत्नी अगर लेखक-लेखिका भी हों और एक ही जैसी साहित्य-विधाओं में एक ही जैसा लिखते भी हों, तब दाम्पत्य सहज हो जाता है और सृजन उत्पादन। पत्रिकाएं और प्रकाशन मांगते ही जाते हैं रचनाएं और पांडुलिपियां, और दाम्पत्य देता ही जाता है, आखिर वह सहज जो है। लेकिन मुझे सहजता पसंद नहीं। मैं न सहज होना चाहता हूं, न करना। ऐसी परिस्थितियों से मैं खुद को विनम्रतापूर्वक अलग करता हूं।" [ बदनाम डायरी ] , "तुम्हारे समय में खराब कविता क्या थी यह बताने के लिए तुम्हें अपनी अच्छी कविताएं प्रकाशित करवानी पड़ीं। कविताएं-- वे जो सालहा-साल बराबर लिखीं, दुनिया की नजरों से बचाकर लिखीं। वे प्रकाशित हों, यह तुम्हारे अशुभ दिनों के शुभचिंतकों की सलाह थी। तुम अपनी आत्ममुग्धता और अहंकार में सलाहें नजरअंदाज करते आए। लेकिन 'समीक्षा' ने भी तुम्हारा साथ तुम्हारी प्रेमिका की तरह ही दिया, लिहाजा तुम्हारे समय में खराब कविता क्या थी यह बताने के लिए तुम्हें अपनी अच्छी कविताएं प्रकाशित करवानी पड़ीं।" [ नए बाणभट्ट की आत्मकथा ]  
यही क्षुब्धता और तल्खी युवा कवि रवींद्र के दास के शब्दों में,"कविता छपे बड़े दिन हो गए .. मेरी हैसियत हो आपके ब्लॉग या पत्रिकाओं के लायक तो मंगा लीजिये मुझसे।", "मुझे शर्म आ रही है कि चूके हुए वक़्त में किन चूके हुए कविता पाठकों के साथ रह रहा हूँ मैं जिन्हें इस बात से उत्तेजना तक न हुई कि प्रकाशक को पैसे देकर कविता किताब छपाना नियति है.. नीचे की पोस्ट में मुझे बधाईयाँ देने वाले लोग मुझे नहीं पढ़ें अब।" 
"वे जो कहते हैं कि फेसबुक पर कविता लिखने का कोई मतलब नहीं है तो ...उनसे पूछिए कि कहाँ कविता लिखने का 'कोई मतलब' है .... हम कविता वहीं लिखेंगे ... लेकिन लिखेंगे ज़रूर" "हे पिता, ये कमबख्‍़त जानते हैं कि कवि नहीं है, फिर भी लिखते-छपते हैं। इन्‍हें कभी क्षमा नहीं करना। (यीशू के प्रति आभार)"
"प्रगति मैदान में मेला लगा. वहां बड़े सारे ... समझो कि पूरे देश के कविगण अपना अपना थैला उठाकर आए. हम भी गए रहे. उस दिन किसी योग से आदरणीय प्रभात पाण्डेय जी भी आये थे [वे मुझे मेरा चेहरा देखकर ही पहचान लेते हैं]. मैं उनके साथ अपने मित्र के हॉल नं. ५ के सामने खड़े थे कि एक कलकत्ते के कवि आए. स्थान सँकरा था. वे प्रभात जी से बात भी की. मैं कवि जी की ओर देखा [देखा मतलब कि एक-डेढ़ फुट की दूरी से देखा] ... कुछ देर और देखा कि भाई देखेंगे, और अभिज्ञान-दृष्टि से देखेंगे. पर नहीं देखा. शायद उनके अन्दर स्टार-तत्त्व आ तो गया था पर स्टार बनना सीखना अभी शेष था. हो सकता हो, सोच रहे होंगे कि मैं या मेरे जैसे लोग गुहार मनुहार करेंगे. " और कवि शायक आलोक  "कुछ लोग हैं .. वे वरिष्ठ हैं .. साहित्य की लम्बी सेवा की है .. फेसबुक पर हैं .. मेरी फ्रेंड लिस्ट में हैं और एक्टिव भी हैं .. पर क्या कहने जो कभी एक शब्द मेरे लिए जाया किया हो कि बाबू अच्छा लिख रहे हो खूब लिखो .. कभी नहीं .. प्रोत्साहन या सुझाव का एक शब्द नहीं .. [ यह बात ज्यादा महसूस इसलिए हुई कि ज्यादातर वरिष्ठों ने बहुत स्नेह और सम्मान दिया है मुझे जबकि मेरी लेखकीय उपलब्धियां ज्यादा नहीं हैं ]"

सवाल है कि  वे कौन से कारण हैं जिनके कारण मित्र केशव तिवारी को, "कुछ लोग फेसबुक पर अलग दिखना और अलग कुछ करके दिखाते रहना चाहते हैं। सम्‍भवत: उनका जीवन भी ऐसा ही होगा। कभी ये अलगपन खिझाने लगता है, लगता है कुछ परग्रही बसे हुए हैं हमारे बीच, जिन्‍हें हमारे जीवन, समाज, राजनीति आदि में कोई दिलचस्‍पी नहीं। वे बस अपनी कहते जाते हैं एक अटूट स्‍वर में, ख़ुद को दिखाते जाते हैं- न किसी को सुनते हैं न देखते हैं। वे लोग पता नहीं किस उद्देश्‍य से यहां हैं पर वे हैं और कुछेक काफ़ी सफल भी हैं.... जैसी पोस्ट लिखनी पड़ती है।
"लोग पूछते हैं कि फलां मामले पर आपका पक्ष क्या है । भाई, पक्ष जो भी है, पक्षधरता जो भी है यदि वह जीवन व्यवहार में और उसके बाद लेखन में कहीं नहीं दिख रही है तो उसे साबित करने के लिए मैं अपनी छाती चीर कर नहीं दिखा सकता । दो लाइन का स्टेटस फेसबुक पर लिख देने से जो पक्षधरता साबित हुआ करती है वह मेरे किसी काम की नहीं ।" - नील कमल

मुझे लगता है.... फ़तवे- और उपेक्षा के शिकार बेबस हाशियों के पास ऎसे प्रलापों  के अलावा क्या रह जाता है। इस में समानधर्मी प्रलापी- उपेक्षित जुड़ने लगते हैं और यह भी एक प्रति पक्ष के रूप में खड़ा दिखायी देता है। इस तरह समान धाराएं अचानक समानांतर और विरोधी धारा के रूप में बहती दिखायी देती है और समय समय पर अपनी कमीज़े सफ़ेद बताते हुए एक दूसरे की कमीज़े उतारने तक उतारु हो जाती है। 
ऎसी दुरभिसंधियों और मतभेदों से अधिक मनभेदी त्रासदियों में मुझे कवि- आलोचक शिरीष कुमार की इस पोस्ट में बहुत उम्मीदें दिखायी देती है-
"आने दीजिए, नयों को आने दीजिए.....साहित्‍य में उनका स्‍वागत कीजिए। जैसे नये साल साल का स्‍वागत करते हैं वैसे नये लेखक का स्‍वागत करिए..... नुक्‍स साल ख़त्‍म होने पर निकाल लीजिएगा। अभी से आने वालों के नाम चेतावनी के पैग़ाम अच्‍छे नहीं। हम ही हम नहीं होंगे धरा पर। और भी बाक़ी सब कुछ इतना है कि हम बाद में नज़र भी आ जाएं तो शुक्र मनाइएगा। सबकी अपनी चाल है, अपने हाल हैं - उन्‍हें बयां करने का अधिकार भी उनका हैं। कच्‍चा-पक्‍का कुछ रचने तो दीजिए। जो सोच रहा है मनुष्‍यता के बारे में, विचार के बारे में, अन्‍याय के बारे में और रच रहा है - हमारा है। कुछ बरस पहले हम भी ऐसे ही थे। उनकी अभी तरुणाई है और हम अपने-अपने हिसाब से पकने लगे हैं, कुछ समय बाद शायद पिलपिले हो जाएं जैसे हमारे आगे वाले कुछ हो गए। सावधान होने का समय नए आने वाले के लिए नहीं , हमारे लिए है। सचेत रहना ज़रूरी है- उन्‍हें नहीं, हमें।" 
सहमति रखते हुए  मित्र रविंद्र के दास के इन आत्मसम्मान भरे विचारों को जोड़ना चाहूंगा, " जहाँ मुझे लोग नापसंद आएँगे ... मुझे वहां से उठके आ जाने में ही सुहूलियत जान पड़ती है. सांस रोक के सांसत में रहने से अकेला होना बेहतर लगता है. ’दो 'अन्य' लोगों के रिश्ते को करेक्ट करने की कोशिश करेंगे तो आप कोई न कोई गलती ज़रूर करेंगे. दूसरों को आज़ादी देनी चाहिए. आप अकेले सारी दुनिया का सही गलत नहीं जानते. किसने किसको क्या और किस तरह का नुकसान पहुंचाया, यह आपको नहीं पता, पर आपको किसी एक को गलत कहना ज़रूरी लगता है ... क्यों ? यह सिर्फ़ आपकी अहम्मन्यता है, पर आप मानेंगे थोड़े ! पूरी निष्ठा और ईमानदारी से अपनी बातें रखो.... ऐसे में यदि किसी संबंध की दीवार दरकती है तो दरकने दो. मान लो कि वे संबंध विश्वसनीय नहीं थे’ 
’कौन है जो फेसबुकिया लेखन से पीड़ित और त्रस्त है ? मशहूर और अर्थ-गर्भित शब्द है यह फेसबुकिया लेखक. मान लीजिए कि दोयम दर्ज़े के होते हैं. उनसे भूल हुई जो वे लिखते रहते हैं. लिखते क्या, बकवास करते हैं. और आप का तेल क्यों निकल रहा है ? आप क्यों इसी फेसबुक पर आकर उसकी निंदा करना चाहते हैं? वे लोग जो फेसबुक पर भी नहीं चल पाते हैं .... वे सियार की मुँह ऊपर कर " फेसबुकिया .... फेसबुकिया.... " भूकने लगते हैं. ’ रवीन्द्र के दास

"सात रंग होते हैं रौशनी में । आप जानते ही हैं कि इन्हीं सात रंगों से इंद्रधनुष बनता है । बैगनी, नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी और लाल ये सात रंग जब आपस में घुल-मिल जाते हैं तो सफ़ेद रंग बनता है । सफ़ेद की खासियत यह नहीं है कि उसमें कोई रंग नहीं होता । वह तो अपने भीतर सातों रंग छुपाए रहता है । जो कुछ सफ़ेद है उससे परावर्तित होकर ये सातों रंग लौट जाते हैं। जो सफ़ेद है वह अपने पास कोई रंग नहीं रखता । जो सारे रंगों को अपने पास रख लेता है वह काला दिखता है ।
रंग मनुष्य को भरमाते हैं । पिछले कुछ दशकों में कुछ खास रंगों का मतलब कुछ खास राजनैतिक दलों और विचारों के साथ भी जुड़ता चला गया है । लाल इनका है तो हरा उनका, नीला किसी तीसरे का, केसरिया किसी चौथे का । जब रंगों के अर्थ बदल जाते हैं तो जीवन में उनके संदर्भ भी आखिर क्यों न बदलें । लोग अपने-अपने रंगों के झंडे लिए दौड़ रहे हैं । इधर मनुष्य के जीवन से ही रंग गायब होने लगे हैं । अब तो खास रंगों को खास नामों के साथ भी पहचाना जाने लगा है । चरित्र का काला आदमी रंगीन झंडों के साथ अच्छा नहीं लगता । एक चीनी लोककथा में एक नन्हा सा बच्चा राजा को कहता है कि राजा तुम नंगे हो जबकि उस दौर के युवा ही नहीं बड़े बुजुर्ग भी राजा के पीछे उसका जयगान करते जुलूस में चल रहे थे । पता नहीं उस कहानी में उस बच्चे का क्या हुआ । उस बच्चे के साहस की ज़रूरत आज सबसे बढ़ कर है ।" - नील कमल 

कैसा समय है कि हर तरफ काला ही काला छाया हुआ है । कमाल यह कि हर वह जो काला है ख़ुद को रंगीन साबित करने के लिए मचल रहा है । रंगों का यह तमाशा तब तक चलता रहेगा जब तक हम और आप काले को काला और सफ़ेद को सफ़ेद कहने का साहस नहीं जुटायेंगे । काले को देखकर वह भी हँस रहा है जो ख़ुद भी काला है । काला काले की पीठ ठोंक रहा है । इस काले दौर में आज कुछ खूबसूरत रंगों की ज़रूरत सबसे ज़्यादा है । यह आईना दिखाने के साथ-साथ आईना देखने का भी मुनासिब वक़्त है । आईने की तरफ पीठ न करें, दोस्त !
अंत में अपनी कहूं तो मुझे सोशल मीडिया के रूप में फ़ेसबुक अपनी अभिव्यक्ति के वरदान लगता है, जहां किसी का एकाधिकार नहीं, ठेकेदारी न होकर एक सम्पूर्ण स्वतंत्र लोकतांत्रिक प्रणाली है, फ़ेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइटों ने कुछ अपवादों (मनीषा पाण्डे, कट्टर पंथियों  व उन जैसे अपने पूर्वाग्रहों से पीड़ितों को छोड़) सभी को, सभी से संवाद का एक बहुत बड़ा मंच दिया है जिसकी वजह सामाजिक, सांस्कृतिक, कला क्षेत्र में काम करनेवाली नामी-गिरामी हस्तियों से लेकर गुमनाम नामों तक, के बीच संवाद कायम करते हुए, बीच की खाई तो पाटी ही है, साथ ही बहुतेरे उजले-काले अध्यायों को भी सामने रखा है और जिन पर गंभीर चर्चाएं, समीक्षाएं हुयी है। भले ही लोग फ़ेसबुक को आभासी दुनिया का आत्म- प्रलाप कह कर मुंह बिचकाते हों और इस पर होने वाली बहसों, विवादों और उपलब्धियों को बहुत सतही और हलके में लेते हो लेकिन यह भी सच है कि इसी फ़ेसबुक और इस जैसे सोशल मीडिया माध्यमों से संवादों- साक्षात्कारों और मुलाकातों के नए अवसर मिले हैं, इस बारे में फ़ेसबुक पर ही मौजुद अग्रज शिक्षाविद- आलोचक, कवि महेश पुनेठा के हाल की पोस्ट को यहां उद्द्त करना समीचीन होगा जो कहते हैं,’फेसबुक भले ही आभासी दुनिया कही जाती हो पर यहाँ वास्तविक दुनिया के अनेक चेहरे बे-नकाब होते हैं .ऐसे अनेक चहरे हैं यदि फेसबुक नहीं होता तो उनसे अनजान ही रहते.... 
समस्या सिर्फ़ यही है कि कुछ लोगों ने इसे आमोद- प्रमोद का जरिया बना लिया है, अपने खाने-पीने- हंगने तक का सार्वजनिक प्रदर्शन  करने लगे हैं और सामान्य की कोई बात नहीं, उन से अपना क्या लेना-देना लेकिन इस सद्कर्म- दौड़ में बड़े- बड़े बुध्दिजीवी- महापुरुषों को भी शामिल देख बड़ी कोफ़्त होती है। आप अपनी प्रतिभा, सार्वजनिक जीवन में हासिल उपलब्धियां साझा करें तो बात समझ आती है लेकिन अपने खाने-पीने- हंगने तक के सार्वजनिक प्रदर्शन से किसी को क्या मतलब, समझने और विचार- चिंतन की आवश्यकता है।   

अब समझ-मान भी लीजिए जनाब! सिर्फ़ कुछ लोगों के कह- नकार देने से संवाद का यह अनूठा जीवंत माध्यम विश्वमंच आभासी फ़ालतू नहीं हो जाएगा...सच तो यह है कि इसी एक माध्यम से न जाने कितने चेहरों से एक के बाद एक मुखौटे उतरे हैं छिपी हुयी क्षुद्र मानसिकताओं का भंडाफ़ोड़ हुआ है, इसके साथ ही वैचारिक संवाद- शास्त्रार्थ शुरु हुआ है वह अतुलनीय है..रही बात आनेवाले समय की तो.. किस को मालूम है.. क्या होगा..इस क्रांति के बारे में भी इसके आने से पूर्व किसे मालूम था....  

नवनीत पाण्डे

Wednesday 22 January 2014

पासे उल्टे भी पड़ जाते है

फोटो साभार नेट 
       
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फोटो साभार नेट 
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फोटो साभार नेट 
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नवनीत पाण्डे

Tuesday 22 October 2013

करवा का व्रत - स्व. यशपाल

मित्रो!  करवा चौथ का व्रत आज स्त्री विमर्श व बहस का बहुत बड़ा मुद्दा बना हुआ है, आज बीच - बहस में प्रस्तुत है, प्रख्यात प्रगतिशील कथाकार स्व.यशपाल की इसी मुद्दे पर लिखी चर्चित सर्वकालिक सम सामयिक कहानी

करवा का व्रत - स्व. यशपाल


कन्हैयालाल अपने दफ्तर के हमजोलियों और मित्रों से दो तीन बरस बड़ा ही था, परन्तु ब्याह उसका उन लोगों के बाद हुआ। उसके बहुत अनुरोध करने पर भी साहब ने उसे ब्याह के लिए सप्ताह-भर से अधिक छुट्टी न दी थी। लौटा तो उसके अंतरंग मित्रों ने भी उससे वही प्रश्न पूछे जो प्रायः ऐसे अवसर पर दूसरों से पूछे जाते हैं और फिर वही परामर्श उसे दिये गये जो अनुभवी लोग नवविवाहितों को दिया करते हैं।

हेमराज को कन्हैयालाल समझदार मानता था। हेमराज ने समझाया-बहू को प्यार तो करना ही चाहिए, पर प्यार से उसे बिगाड़ देना या सिर चढ़ा लेना भी ठीक नहीं। औरत सरकश हो जाती है, तो आदमी को उम्रभर जोरू का गुलाम ही बना रहना पड़ता है। उसकी ज़रूरतें पूरी करो, पर रखो अपने काबू में। मार-पीट बुरी बात है, पर यह भी नहीं कि औरत को मर्द का डर ही न रहे। डर उसे ज़रूर रहना चाहिए... मारे नहीं तो कम-से-कम गुर्रा तो ज़रूर दे। तीन बात उसकी मानो तो एक में ना भी कर दो। यह न समझ ले कि जो चाहे कर या करा सकती है। उसे तुम्हारी खुशी-नाराजगी की परवाह रहे। हमारे साहब जैसा हाल न हो जाये। ...मैं तो देखकर हैरान हो गया। एम्पोरियम से कुछ चीज़ें लेने के लिये जा रहे थे तो घरवाली को पुकारकर पैसे लिये। बीवी ने कह दिया- ''कालीन इस महीने रहने दो। अगले महीने सही'', तो भीगी बिल्ली की तरह बोले, ''अच्छा!'' मर्द को रुपया-पैसा तो अपने पास में रखना चाहिए। मालिक तो मर्द है।
कन्हैया के विवाह के समय नक्षत्रों का योग ऐसा था कि ससुराल वाले लड़की की विदाई कराने के लिए किसी तरह तैयार नहीं हुए। अधिक छुट्टी नहीं थी इसलिए गौने की बात ' फिर' पर ही टल गई थी। एक तरह से अच्छा ही हुआ। हेमराज ने कन्हैया को लिखा-पढ़ा दिया कि पहले तुम ऐसा मत करना कि वह समझे कि तुम उसके बिना रह नहीं सकते, या बहुत खुशामद करने लगो।...अपनी मर्जी रखना, समझे। औरत और बिल्ली की जात एक। पहले दिन के व्यवहार का असर उस पर सदा रहता है। तभी तो कहते हैं कि ' गुर्बारा वररोजे अव्वल कुश्तन'- बिल्ली के आते ही पहले दिन हाथ लगा दे तो फिर रास्ता नहीं पकड़ती। ...तुम कहते हो, पढ़ी-लिखी है, तो तुम्हें और भी चौकस रहना चाहिए। पढ़ी-लिखी यों भी मिजाज दिखाती है।
निस्वार्थ-भाव से हेमराज की दी हुई सीख कन्हैया ने पल्ले बाँध ली थी। सोचा- मुझे बाजार-होटल में खाना पड़े या खुद चौका-बर्तन करना पड़े, तो शादी का लाभ क्या? इसलिए वह लाजो को दिल्ली ले आया था। दिल्ली में सबसे बड़ी दिक्कत मकान की होती है। रेलवे में काम करने वाले, कन्हैया के ज़िले के बाबू ने उसे अपने क्वार्टर का एक कमरा और रसोई की जगह सस्ते किराए पर दे दी थी। सो सवा साल से मजे में चल रहा था।
लाजवंती अलीगढ़ में आठवीं जमात तक पढ़ी थी। बहुत-सी चीजों के शौक थे। कई ऐसी चीजों के भी जिन्हें दूसरे घरों की लड़कियों को या नई ब्याही बहुओं को करते देख मन मारकर रह जाना पड़ता था। उसके पिता और बड़े भाई पुराने ख्याल के थे। सोचती थी, ब्याह के बाद सही। उन चीजों के लिए कन्हैया से कहती। लाजो के कहने का ढंग कुछ ऐसा था कि कन्हैया का दिल इनकार करने को न करता, पर इस ख्याल से कि वह बहुत सरकश न हो जाए, दो बात मानकर तीसरी पर इनकार भी कर देता। लाजो मुँह फुला लेती। लाजो मुँह फुलाती तो सोचती कि मनायेंगे तो मान जाऊँगी, आखिर तो मनायेंगे ही। पर कन्हैया मनाने की अपेक्षा डाँट ही देता। एक-आध बार उसने थप्पड़ भी चला दिया। मनौती की प्रतीक्षा में जब थप्पड़ पड़ जाता तो दिल कटकर रह जाता और लाजो अकेले में फूट-फूटकर रोती। फिर उसने सोच लिया- ' चलो, किस्मत में यही है तो क्या हो सकता है?' वह हार मानकर खुद ही बोल पड़ती।
कन्हैया का हाथ पहली दो बार तो क्रोध की बेबसी में ही चला था, जब चल गया तो उसे अपने अधिकार और शक्ति का अनुभव होने लगा। अपनी शक्ति अनुभव करने के नशे से बड़ा नशा दूसरा कौन होगा ? इस नशे में राजा देश-पर-देश समेटते जाते थे, जमींदार गाँव-पर-गाँव और सेठ मिल और बैंक खरीदते चले जाते हैं। इस नशे की सीमा नहीं। यह चस्का पड़ा तो कन्हैया के हाथ उतना क्रोध आने की प्रतीक्षा किए बिना भी चल जाते।
मार से लाजो को शारीरिक पीड़ा तो होती ही थी, पर उससे अधिक होती थी अपमान की पीड़ा। ऐसा होने पर वह कई दिनों के लिए उदास हो जाती। घर का सब काम करती। बुलाने पर उत्तर भी दे देती। इच्छा न होने पर भी कन्हैया की इच्छा का विरोध न करती, पर मन-ही-मन सोचती रहती, इससे तो अच्छा है मर जाऊँ। और फिर समय पीड़ा को कम कर देता। जीवन था तो हँसने और खुश होने की इच्छा भी फूट ही पड़ती और लाजो हँसने लगती। सोच यह लिया था, ' मेरा पति है, जैसा भी है मेरे लिए तो यही सब कुछ है। जैसे यह चाहता है, वैसे ही मैं चलूँ।' लाजो के सब तरह अधीन हो जाने पर भी कन्हैया की तेजी बढ़ती ही जा रही थी। वह जितनी अधिक बेपरवाही और स्वच्छंदता लाजो के प्रति दिखा सकता, अपने मन में उसे उतना ही अधिक अपनी समझने और प्यार का संतोष पाता।
क्वार के अन्त में पड़ोस की स्त्रियाँ करवा चौथ के व्रत की बात करने लगीं। एक-दूसरे को बता रही थीं कि उनके मायके से करवे में क्या आया। पहले बरस लाजो का भाई आकर करवा दे गया था। इस बरस भी वह प्रतीक्षा में थी। जिनके मायके शहर से दूर थे, उनके यहाँ मायके से रुपए आ गए थे। कन्हैया अपनी चिट्ठी-पत्री दफ्तर के पते से ही मँगाता था। दफ्तर से आकर उसने बताया, ' तुम्हारे भाई ने करवे के दो रुपए भेजे हैं।'
करवे के रुपए आ जाने से ही लाजो को संतोष हो गया। सोचा, भैया इतनी दूर कैसे आते? कन्हैया दफ्तर जा रहा था तो उसने अभिमान से गर्दन कन्धे पर टेढ़ी कर और लाड़ के स्वर में याद दिलाया- ' हमारे लिए सरघी में क्या-क्या लाओगे...?'
और लाजो ने ऐसे अवसर पर लाई जाने वाली चीज़ें याद दिला दीं। लाजो पड़ोस में कह आई कि उसने भी सरघी का सामान मँगाया है। करवा चौथ का व्रत भला कौन हिन्दू स्त्री नहीं करती? जनम-जनम यही पति मिले, इसलिए दूसरे व्रतों की परवाह न करने वाली पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ भी इस व्रत की उपेक्षा नहीं कर सकतीं।
अवसर की बात, उस दिन कन्हैया लंच की छुट्टी में साथियों के साथ कुछ ऐसे काबू में आ गया कि सवा तीन रुपए खर्च हो गए। वह लाजो का बताया सरगी का सामान घर नहीं ला सका। कन्हैया खाली हाथ घर लौटा तो लाजो का मन बुझ गया। उसने गम खाना सीखकर रूठना छोड़ दिया था, परन्तु उस साँझ मुँह लटक ही गया। आँसू पोंछ लिए और बिना बोले चौके-बर्तन के काम में लग गयी। रात के भोजन के समय कन्हैया ने देखा कि लाजो मुँह सुजाए है, बोल नहीं रही है, तो अपनी भूल कबूल कर उसे मनाने या कोई और प्रबंध करने का आश्वासन देने के बजाय उसने उसे डाँट दिया।
लाजो का मन और भी बिंध गया। कुछ ऐसा खयाल आने लगा-इन्ही के लिए तो व्रत कर रही हूँ और यही ऐसी रुखाई दिखा रहे हैं। ... मैं व्रत कर रही हूँ कि अगले जनम में भी 'इन' से ही ब्याह हो और मैं सुहा ही नहीं रही हूँ...। अपनी उपेक्षा और निरादर से भी रोना आ गया। कुछ खाते न बना। ऐसे ही सो गयी।
तड़के पड़ोस में रोज की अपेक्षा जल्दी ही बर्तन भांडे खटकने की आवाज आने लगी। लाजो को याद आने लगा-शान्ति बता रही थी कि उसके बाबू सरगी के लिए फेनियाँ लाए हैं, तार वाले बाबू की घरवाली ने बताया था कि खोए की मिठाई लाए हैं। लाजो ने सोचा, उन मर्दों को खयाल है न कि हमारी बहू हमारे लिए व्रत कर रही है; इन्हें जरा भी खयाल नहीं।
लाजो का मन इतना खिन्न हो गया कि सरगी में उसने कुछ भी न खाया। न खाने पर भी पति के नाम का व्रत कैसे न रखती। सुबह-सुबह पड़ोस की स्त्रियों के साथ उसने भी करवे का व्रत करने वाली रानी और करवे का व्रत करने वाली राजा की प्रेयसी दासी की कथा सुनने और व्रत के दूसरे उपचार निबाहे। खाना बनाकर कन्हैयालाल को दफ्तर जाने के समय खिला दिया। कन्हैया ने दफ्तर जाते समय देखा कि लाजो मुँह सुजाए है। उसने फिर डांटा- ' मालूम होता है कि दो-चार खाए बिना तुम सीधी नहीं होगी।'
लाजो को और भी रुलाई आ गयी। कन्हैया दफ्तर चला गया तो वह अकेली बैठी कुछ देर रोती रही। क्या जुल्म है। इन्हीं के लिए व्रत कर रही हूँ और इन्हें गुस्सा ही आ रहा है। ...जनम-जनम ये ही मिलें इसीलिये मैं भूखी मर रही हूँ। ...बड़ा सुख मिल रहा है न!...अगले जनम में और बड़ा सुख देंगे!...ये ही जनम निबाहना मुश्किल हे रहा है। ...इस जनम में तो इस मुसीबत से मर जाना अच्छा लगता है, दूसरे जनम के लिए वही मुसीबत पक्की कर रही हूँ...।
लाजो पिछली रात भूखी थी, बल्कि पिछली दोपहर के पहले का ही खाया हुआ था। भूख के मारे कुड़मुड़ा रही थी और उस पर पति का निर्दयी व्यवहार। जनम-जनम, कितने जनम तक उसे ऐसा ही व्यवहार सहना पड़ेगा! सोचकर लाजो का मन डूबने लगा। सिर में दर्द होने लगा तो वह धोती के आँचल सिर बाँधकर खाट पर लेटने लगी तो झिझक गई-करवे के दिन बान पर नहीं लेटा या बैठा जाता। वह दीवार के साथ फ़र्श पर ही लेट रही।
लाजो को पड़ोसिनों की पुकार सुनाई दी। वे उसे बुलाने आई थीं। करवा-चौथ का व्रत होने के कारण सभी स्त्रियाँ उपवास करके भी प्रसन्न थीं। आज करवे के कारण नित्य की तरह दोपहर के समय सीने-पिरोने, काढ़ने-बुनने का काम किया नहीं जा सकता था; करवे के दिन सुई, सलाई, और चरख़ा छुआ नहीं जाता। काज से छुट्टी थी और विनोद के लिए ताश या जुए की बैठक जमाने का उपक्रम हो रहा था। वे लाजो को भी उसी के लिए बुलाने आयी थीं। सिर-दर्द और मन के दुःख के करण लाजो जा नहीं सकी। सिर-दर्द और बदन टूटने की बात कहकर वह टाल गयी और फिर सोचने लगी-ये सब तो सुबह सरगी खाए हुए हैं। जान तो मेरी ही निकल रही है।...फिर अपने दुःखी जीवन के कारण मर जाने का खयाल आया और कल्पना करने लगी कि करवा-चौथ के दिन उपवास किए-किए मर जाए, तो इस पुण्य से जरूर ही यही पति अगले जन्म में मिले...।
लाजो की कल्पना बावली हो उठी। वह सोचने लगी-मैं मर जाऊँ तो इनका क्या है, और ब्याह कर लेंगे। जो आएगी वह भी करवा चौथ का व्रत करेगी। अगले जनम में दोनों का इन्हीं से ब्याह होगा, हम सौतें बनेंगी। सौत का खयाल उसे और भी बुरा लगा। फिर अपने-आप समाधान हो गया-नहीं, पहले मुझसे ब्याह होगा, मैं मर जाऊँगी तो दूसरी से होगा। अपने उपवास के इतने भयंकर परिणाम की चिंता से मन अधीर हो उठा। भूख अलग व्याकुल किए थी। उसने सोचा-क्यों मैं अपना अगला जनम भी बरबाद करूँ? भूख के कारण शरीर निढाल होने पर भी खाने को मन नहीं हो रहा था, परन्तु उपवास के परिणाम की कल्पना से मन मन क्रोध से जल उठा; वह उठ खड़ी हुई।
कन्हैयालाल के लिए उसने सुबह जो खाना बनाया था उसमें से बची दो रोटियाँ कटोरदान में पड़ी थीं। लाजो उठी और उपवास के फल से बचने के लिए उसने मन को वश में कर एक रोटी रूखी ही खा ली और एक गिलास पानी पीकर फिर लेट गई। मन बहुत खिन्न था। कभी सोचती-ठीक ही तो किया, अपना अगला जनम क्यों बरबाद करूँ? ऐसे पड़े-पड़े झपकी आ गई।
कमरे के किवाड़ पर धम-धम सुनकर लाजो ने देखा, रोशनदान से प्रकाश की जगह अंधकार भीतर आ रहा था। समझ गई, दफ्तर से लौटे हैं। उसने किवाड़ खोले और चुपचाप एक ओर हट गई।कन्हैयालाल ने क्रोध से उसकी तरफ देखा-' अभी तक पारा नहीं उतरा! मालूम होता है झाड़े बिना नहीं उतरेगा !'
लाजो के दुखते हुए दिल पर और चोट पड़ी और पीड़ा क्रोध में बदल गई। कुछ उत्तर न दे वह घूमकर फिर दीवार के सहारे फ़र्श पर बैठ गई।
कन्हैयालाल का गुस्सा भी उबल पड़ा- ' यह अकड़ है! ...आज तुझे ठीक कर ही दूँ।' उसने कहा और लाजो को बाँह से पकड़, खींचकर गिराते हुए दो थप्पड़ पूरे हाथ के जोर से ताबड़तोड़ जड़ दिए और हाँफते हुए लात उठाकर कहा, ' और मिजाज दिखा?... खड़ी हो सीधी।'
लाजो का क्रोध भी सीमा पार कर चुका था। खींची जाने पर भी फ़र्श से उठी नहीं। और मार खाने के लिए तैयार हो उसने चिल्लाकर कहा,' मार ले, मार ले! जान से मार डाल! पीछा छूटे! आज ही तो मारेगा! मैंने कौन व्रत रखा है तेरे लिए जो जनम-जनम मार खाऊँगी। मार, मार डाल...!'
कन्हैयालाल का लात मारने के लिए उठा पाँव अधर में ही रुक गया। लाजो का हाथ उसके हाथ से छूट गया। वह स्तब्ध रह गया। मुँह में आई गाली भी मुँह में ही रह गई। ऐसे जान पड़ा कि अँधेरे में कुत्ते के धोखे जिस जानवर को मार बैठा था उसकी गुर्राहट से जाना कि वह शेर था; या लाजो को डाँट और मार सकने का अधिकार एक भ्रम ही था। कुछ क्षण वह हाँफता हुआ खड़ा सोचता रहा और फिर खाट पर बैठकर चिन्ता में डूब गया। लाजो फ़र्श पर पड़ी रो रही थी। उस ओर देखने का साहस कन्हैयालाल को न हो रहा था। वह उठा और बाहर चला गया।
लाजो फ़र्श पर पड़ी फूट-फूटकर रोती रही। जब घंटे-भर रो चुकी तो उठी। चूल्हा जलाकर कम-से-कम कन्हैया के लिए खाना तो बनाना ही था। बड़े बेमन उसने खाना बनाया। बना चुकी तब भी कन्हैयालाल लौटा नहीं था। लाजो ने खाना ढँक दिया और कमरे के किवाड़ उढ़काकर फिर फ़र्श पर लेट गई। यही सोच रही थी, क्या मुसीबत है जिन्दगी। यही झेलना था तो पैदा ही क्यों हुई थी?...मैंने क्या किया था जो मारने लगे।
किवाड़ों के खुलने का शब्द सुनाई दिया। वह उठने के लिए आँसुओं से भीगे चेहरे को आँचल से पोछने लगी। कन्हैयालाल ने आते ही एक नजर उसकी ओर डाली। उसे पुकारे बिना ही वह दीवार के साथ बिछी चटाई पर चुपचाप बैट गया। कन्हैयालाल का ऐसे चुप बैठ जाना नई बात थी, पर लाजो गुस्से में कुछ न बोल रसोई में चली गई। आसन डाल थाली-कटोरी रख खाना परोस दिया और लोटे में पानी लेकर हाथ धुलाने के लिए खड़ी थी। जब पाँच मिनट हो गए और कन्हैयालाल नहीं आया तो उसे पुकारना ही पड़ा, ' खाना परस दिया है।'
कन्हैयालाल आया तो हाथ नल से धोकर झाड़ते हुए भीतर आया। अबतक हाथ धुलाने के लिए लाजो ही उठकर पानी देती थी। कन्हैयालाल दो ही रोटी खाकर उठ गया। लाजो और देने लगी तो उसने कह दिया ' और नहीं चाहिए।' कन्हैयालाल खाकर उठा तो रोज की तरह हाथ धुलाने के लिए न कहकर नल की ओर चला गया। लाजो मन मारकर स्वयं खाने बैठी तो देखा कि कद्दू की तरकारी बिलकुल कड़वी हो रही थी। मन की अवस्था ठीक न होने से हल्दी-नमक दो बार पड़ गया था। बड़ी लज्जा अनुभव हुई, ' हाय, इन्होंने कुछ कहा भी नहीं। यह तो जरा कम-ज्यादा हो जाने पर डाँट देते थे।'
लाजो से दुःख में खाया नहीं गया। यों ही कुल्ला कर, हाथ धोकर इधर आई कि बिस्तर ठीक कर दे, चौका फिर समेट देगी। देखा तो कन्हैयालाल स्वयं ही बिस्तर झाड़कर बिछा रहा था। लाजो जिस दिन से इस घर में आई थी ऐसा कभी नहीं हुआ था। लाजो ने शरमाकर कहा, ' मैं आ गई, रहने दो। किए देती हूँ।' और पति के हाथ से दरी चादर पकड़ ली। लाजो बिस्तर ठीक करने लगी तो कन्हैयालाल दूसरी ओर से मदद करता रहा। फिर लाजो को संबोधित किया, ' तुमने कुछ खाया नहीं। कद्दू में नमक ज्यादा हो गया है। सुबह और पिछली रात भी तुमने कुछ नहीं खाया था। ठहरो, मैं तुम्हारे लिए दूध ले आता हूँ।'
लाजो के प्रति इतनी चिन्ता कन्हैयालाल ने कभी नहीं दिखाई थी। जरूरत भी नहीं समझी थी। लाजो को उसने 'चीज' समझा था। आज वह ऐसे बात कर रहा था जैसे लाजो भी इनसान हो; उसका भी खयाल किया जाना चाहिए। लाजो को शर्म तो आ ही रही थी पर अच्छा भी लग रहा था। उसी रात से कन्हैयालाल के व्यवहार में एक नरमी-सी आ गई। कड़े बोल की तो बात क्या, बल्कि एक झिझक-सी हर बात में; जैसे लाजो के किसी बात के बुरा मान जाने की या नाराज हो जाने की आशंका हो। कोई काम अधूरा देखता तो स्वयं करने लगता। लाजो को मलेरिया बुखार आ गया तो उसने उसे चौके के समीप नहीं जाने दिया। बर्तन भी खुद साफ कर लिए। कई दिन तो लाजो को बड़ी उलझन और शर्म महसूस हुई, पर फिर पति पर और अधिक प्यार आने लगा। जहाँ तक बन पड़ता घर का काम उसे नहीं करने देती, 'यह काम करते मर्द अच्छे नहीं लगते...।'
उन लोगों का जीवन कुछ दूसरी ही तरह का हो गया। लाजो खाने के लिए पुकारती तो कन्हैया जिद करता, ' तुम सब बना लो, फिर एक साथ बैठकर खाएँगे।' कन्हैया पहले कोई पत्रिका या पुस्तक लाता था तो अकेला मन-ही-मन पढ़ा करता था। अब लाजो को सुनाकर पढ़ता या खुद सुन लेता। यह भी पूछ लेता, ' तुम्हें नींद तो नहीं आ रही ? '  साल बीतते मालूम न हुआ। फिर करवा चौथ का व्रत आ गया। जाने क्यों लाजो के भाई का मनीऑर्डर करवे के लिए न पहुँचा था। करवा चौथ के पहले दिन कन्हैयालाल दफ्तर जा रहा था। लाजो ने खिन्नता और लज्जा से कहा, ' भैया करवा भेजना शायद भूल गए।'
कन्हैयालाल ने सांत्वना के स्वर में कहा,' तो क्या हुआ? उन्होंने जरूर भेजा होगा। डाकख़ाने वालों का हाल आजकल बुरा है। शायद आज आ जाए या और दो दिन बाद आए। डाकख़ाने वाले आजकल मनीआर्डर के पन्द्रह-पन्द्रह दिन लगा देते हैं। तुम व्रत-उपवास के झगड़े में मत पड़ना। तबीयत खराब हो जाती है। यों कुछ मंगाना ही है तो बता दो, लेते आएँगे, पर व्रत-उपवास से होता क्या है ? ' सब ढकोसले हैं।'
'वाह, यह कैसे हो सकता है! हम तो जरूर रखेंगे व्रत। भैया ने करवा नहीं भेजा न सही। बात तो व्रत की है, करवे की थोड़े ही।' लाजो ने बेपरवाही से कहा। संध्या-समय कन्हैयालाल आया तो रूमाल में बँधी छोटी गाँठ लाजो को थमाकर बोला, ' लो, फेनी तो मैं ले आया हूँ, पर व्रत-व्रत के झगड़े में नहीं पड़ना।' लाजो ने मुसकुराकर रूमाल लेकर अलमारी में रख दिया। अगले दिन लाजो ने समय पर खाना तैयार कर कन्हैया को रसोई से पुकारा, ' आओ, खाना परस दिया है।' कन्हैया ने जाकर देखा, खाना एक ही आदमी के लिए परोसा था- ' और तुम?' उसने लाजो की ओर देखा।
' वाह, मेरा तो व्रत है! सुबह सरगी भी खा ली। तुम अभी सो ही रहे थे।' लाजो ने मुस्काकर प्यार से बताया। ' यह बात...! तो हमारा भी व्रत रहा।' आसन से उठते हुए कन्हैयालाल ने कहा। लाजो ने पति का हाथ पकड़कर रोकते हुए समझाया, ' क्या पागल हो, कहीं मर्द भी करवा चौथ का व्रत रखते हैं!...तुमने सरगी कहाँ खाई?' 

'नहीं, नहीं, यह कैसे हो सकता है ।' कन्हैया नहीं माना,' तुम्हें अगले जनम में मेरी जरूरत है तो क्या मुझे तुम्हारी नहीं है? या तुम भी व्रत न रखो आज!' लाजो पति की ओर कातर आँखों से देखती हार मान गई। पति के उपासे दफ्तर जाने पर उसका हृदय गर्व से फूला नहीं समा रहा था।

स्व. यशपाल