Saturday 28 September 2013

थोड़ा- बहुत तो ईमानदार होना ही होगा। (पुरस्कार-विवाद) - नवनीत पाण्डे



थोड़ा- बहुत तो ईमानदार होना ही होगा। (पुरस्कार-विवाद) - नवनीत पाण्डे

(सर्वप्रथम कृतज्ञता सूचना का अधिकार (आरटीआई) प्रस्ताव लानेवालों और उसे कानून बनवानेवालों का जिसकी वजह से अकादमियों से प्राप्त सूचनाओं से पुरस्कारों बाबत वहां हो रही कारगुजारियों के बारे में कही, सुनी जा रही कहानियों के रोचक सच जान हतप्रभ हुआ, यह लम्बा आलेख उसी से उपजे आक्रोश का एक सांकेतिक दस्तावेज भर है जबकि असल और भी कटु और सह्र्दय सच्चे लेखक को हताश करने वाले है इस विषय अगर कोई लिखना चाहे तो इतना मसाला हैं कि पूरी किताब तैयार की सकती है। यह तो तब है जब मेरे पास केवल जब 2006 से 2012 तक के सिर्फ़ राजस्थानी भाषा से सम्बन्धित आंकड़े हैं। )

मित्रो! पुरस्कारों और विवादों का अब तो गहरा नाता-सा हो गया है। विवाद न हो, वो पुरस्कार ही क्या? पिछले सालों से साहितियक पुरस्कारों के होते जा रहे नित नए खुलासे को देख मुझे राजनेताओं, मंत्रियों, ब्यूरोक्रेटस और सरकारी कर्मचारियों द्वारा किए गए घोटालों के समाचार याद आते हैं और लगने लगा है कि अब तक इन सब चीजों से निरापद मानी-जानी जानेवाली शब्दकारों की दुनिया में भी ये विषाणु बुरी तरह फैलने और अपनी दुर्गंध फैलाने लगे हैं जो कि अच्छे संकेत नहीं है, वैसे तो इस बारे में अपने-अपने ब्लाग पर प्रखर आलोचक- कवि गणेश पाण्डेय, अशोक कुमार पाण्डेय, दयानंद पाण्डेय ने बहुत बार अपनी चिंताओं से व्यतिथ हो लिखा है और लिख रहे हैं। उन्हीं चिंताओं व व्यथाओं को अपनी जानकारी और सीमाओं के अनुसार मैंने भी अपने इस आलेख में समेटने का प्रयास किया है।
सबसे पहले विचारणीय प्रश्न जो इस मामले में मुझे जो लगता है, वह यह कि क्यों हर पुरस्कार के पीछे हमें कोई न कोई महाभारत दिखायी देने लगा है और यह तक कहा जाने लगा है कि पुरस्कार बंद ही कर दिए जाने चाहिए या निर्णायक ये होंगे तो निर्णय भी ऐसे ही होंगे। कमाल की बात ये कि पुरस्कारों पर उठने वाले विवादों के बाद उनके निर्णायक रहे विद्वजनों के अपने निर्णय के औचित्य बाबत विचार अपवाद स्वरूप ही देखने को मिलते हैं। रही बात पुरस्कारों को बंद करने की तो मेरे विचार से यह समस्या का हल नहीं है, पुरस्कार में क्या खराबी है, पुरस्कार तो आपके अच्छे, उत्तम, श्रेष्ठ कार्य का परिणाम है जो आपके भविष्य के कार्यों को परिष्कृत करता है, आपको प्रेरणा देता है जिससे आपको लगे कि आप जो भी कुछ कर रहे हैं, वह इस समय,  समाज के समाजिक, साहितियक और सांस्कृतिक क्षेत्र में उल्लेखनीय, सराहनीय और महत्त्वपूर्ण है जो केवल आपकी ही नहीं आपके समाज, देश की प्रतिष्ठा में भी अभिवृद्धि करता है।
घर में एक बच्चा भी जब ऐसा कोई असंभव, अनपेक्षित अच्छा कार्य करता है तो हम उसकी पीठ ठोंकते हैं, शाबासी देते हैं। उस पीठ ठुकने, और शाबासी मिलने के बाद कभी उसके चेहरे को देखें, उसके चेहरे पर एक दीप्ति, आलौकिक आत्मसंतुष्टि भरी मोहक गर्वोन्मुक्त मुस्कान दिखायी देगी। कुछ वैसे ही जैसे अकादमिक, प्रतियोगी परीक्षाओं में आनेवाली मैरिट और चयन एक होनहार, प्रतिभावाले विधार्थी के भविष्य के कई आयाम खोल देती है। इसीलिए पुरस्कार जरूरी है, बेहद जरूरी है। खराबी पुरस्कारों और सम्मानों में नहीं उन प्रकि्रयाओं में हैं जिनके तहत पुरस्कार-सम्मान दिए-लिए जाते हैं और जिनकी वजह से नौबत ये आ जाए कि किसी को कहना पड़े या ऐसी धारणा बनें कि पुरस्कार बंद ही कर दिए जाने चाहिए।
इधर जिस तरह से प्रतिभा की बजाय इतर राजनैतिक, खेमेबाजी, वादों- विवादों, तिकड़मों आदि कारणों से चाहे वह साहित्य, कला के क्षेत्र में हों कि अन्य खेल आदि क्षेत्र में पुरस्कार दिए- लिए जाने लगे हैं, न केवल पुरस्कारों की गरिमा घटी है, वास्तविक प्रतिभाओं का मोहभंग व उन में पुरस्कारों के प्रति नैराश्य भाव पैदा हुआ है। साथ ही पुरस्कार देने-लेने वालों की मनसा, वाचा व कर्मणा पर भी प्रश्नचिन्ह लगे हैं जिन्हें अनदेखा करके टालना इस समस्या को और बढावा देना ही होगा। मेरे विचार से हर जिम्मेदार बुद्धिजीवी को इस में पूरी सक्रियता से हस्तक्षेप करना चाहिए और इस में अपनी क्षमतानुसार जहां, जो कुछ सुझाव व उपाय सुझाए जा सके, सुझाने चाहिए। कहा भी गया है कि कर्इ बार गंदगी को साफ करने के लिए गंदगी में उतर खुद भी गंदा होना पड़ता है। यहां कहीं पढ कर नोट किया किसी का यह नोट 'प्रत्येक विवाद की परिणति अवांछित शोर या अर्थहीन कानाफूसियों में बदल जाना नहीं है। विवाद उतने नकारात्मक भी नहीं होते, जैसाकि इन्हें समझ लिया जाता है और न ही विवादों का मकसद हमेशा सिर्फ हंगामा खड़ा करना होता, बलिक उनके जरिए सूरत बदलने की राहें तलाशने की सकरात्मक कोशिशें भी की गई हैं। लेकिन वाद-विवाद-संवाद की पूरी प्रक्रिया को समझे बगैर ऐसा कर पाना संभव नहीं है।’ बहुत ही प्रासंगिक लगता है।

मैं यहां अपनी बात केंद्रीय साहित्य अकादमी द्वारा दिए जानेवाले पुरस्कार विवादों को केंद्र में रख करना चाहूंगा। इसके लिए सबसे पहले हालांकि लेखन से जुड़े अधिकतर विद्वजन इससे अनभिज्ञ नहीं होंगे फिर भी यहां सरसरी दृष्टि से अकादमी की पुरस्कार चयन- प्रकि्रया पर दृष्टिपात करना उचित लग रहा है।
 केंद्रीय साहित्य अकादमी के नियमों मुताबिक सबसे पहले (1) सर्व प्रथम मान्यता प्राप्त प्रदत्त भाषा की विचारणीय पुस्तकों की एक आधार सूची बनेंगी जिसका निर्माण उस भाषा के एक विशेषज्ञ अथवा अकादमी अध्यक्ष के विवेक पर दो विशेषज्ञों द्वारा कराया जाता है।  (2) परामर्श मण्डल का हर सदस्य अधिक से अधिक पांच नामों का पैनल भेजेगा और अकादमी अध्यक्ष प्राप्त पैनलों में से विशेषज्ञ या विशेषज्ञों का चयन करेंगे। (परामर्श मण्डल के हर सदस्य एक- दूसरे के टच में रहते हैं अत: सांठ- गांठ और अपने हितों से बाहर कुछ करेंगे, संभावना कम ही हैं) (3) विशेषज्ञों द्वारा तैयार आधार सूची संबद्ध भाषा परामर्श मण्डल(संयोजक सहित) को दो पुस्तकों के अनुमोदन हेतु भेजी जाती हैं जिस में वह सूची से बाहर अपनी पसंद की दो पुस्तकों के नाम भी दे सकते हैं।
इसके बाद प्रारंभिक पैनल में दस निर्णायक जिनका चयन परामर्श मण्डल के सुझावों पर विचार कर होता है और परामर्श मण्डल के सदस्यों से प्राप्त संस्तुतियों को संकलित कर उन्हीं के द्वारा सुझाए निर्णायकों को भेजा जाता है। ( है न मजे की बात) निर्णायक प्राप्त संस्तुतियों में से दो पुस्तकें अनुमोदित करेगा। इस में भी वह अपने विवेक से सूची से बाहर की भी पुस्तकें भेज सकता है। (तय है कि ऐसा अनुमोदन रिजेक्ट होना है)
प्रारंभिक पैनल के निर्णायकों की संस्तुतियों पर एक त्रि-सदस्यीय जूरी विचार करेगी और जूरी के सदस्यों का चयन भी संबद्ध भाषा के परामर्श मण्डल संयोजक व सदस्यों की संस्तुतियों पर विचार कर होगा और प्रारंभिक पैनल के निर्णायकों द्वारा संस्तुत पुस्तकें खरीद अकादमी जूरी के सदस्यों और संयोजक को भेजेगी। संयोजक, जूरी और अकादमी के बीच संपर्क सूत्र का काम करेगा और वही सुनिश्चित करेगा कि जूरी की बैठक उचित और संतोषजनक हो, वही जूरी रिपोर्ट पर अपने हस्ताक्षर करेगा। जूरी सर्वसम्मति या बहुमत से पुरस्कार हेतु एक पुस्तक की अथवा अपने विवेक से यह भी अनुशंसा कर सकती है कि इस वर्ष एक भी कृति योग्य नहीं है।

ज्ञानपीठ या केंद्रीय साहित्य अकादमी अथवा अन्य, आज की तारीख कोई भी  पुरस्कार निष्कलंक नहीं रहा। केंद्रीय साहित्य अकादमी के पुरस्कारों पर समय-समय पर उठे विवादों के कारण जानने की गरज से मैंने अकादमी के पुरस्कार नियम- चयन प्रक्रिया के आधार पर विवादों के कारणों को जानने-समझने का प्रयास किया। इस संदर्भ में अकादमी के विभिन्न भाषा परामर्श मण्डल के कुछ सदस्यों से व्यकितश: बात भी की, उन से मिली जानकारी के आधार पर कहूं तो साफ लगता है सारे नियम- प्रक्रिया और उनकी तथाकथित पारदर्शिता-ईमानदारी सिर्फ देखने- दिखाने, छलावे और लीपापोती वाले हैं, यहां भी हाल हमारे लोकसभा के सांसदों के स्वहित से जुड़े मामलों में ध्वनि-मत से एक राय हो मुंडी हिला प्रस्ताव पास करने जैसा ही है। हर कदम संयोजक और परामर्श सदस्यों की संस्तुति- अनुशंसा अनिवार्य है। ये राजी तो रब राजी। चूंकि हर निर्णय की पुष्टि सामान्य सभा से करानी होती है इसलिए हर भाषा परामर्श मण्डल की दूसरी भाषा मण्डल संयोजकों-सदस्यों से फुल टयूनिंग और सैटिंग की हुयी होती है...मतलब कि आप हमारे लिए-किए निर्णयों पर सहमति दे मुहर लगाएं। हम आपके लिए- किए पर...बिल्कुल अंधे बांटे सीरणी वाली कहावत अक्षरक्ष: प्रत्यक्ष सिद्ध होती दिखायी देती है। इस में कई बार दूसरी भाषा के लेखकों को भी विशेषज्ञ, निर्णायक बना उपकृत करने के मामले सामने आए हैं यथा राजस्थानी भाषा के पुरस्कार का निर्णायकों में उर्दू, हिन्दी भाषा के लेखकों के शामिल होने के उदाहरण तो जगजाहिर है। इस तरह ये आपसदारियां लगातार निभायी जाती रहती है। सरकारी विभागों में जैसे स्थानांतरित हो हर जानेवाला भ्रष्ट अफसर- आनेवाले अफसर-कर्मचारी को चार्ज देते समय सारे गुर सिखा जाता है कुछ वैसे ही खेल यहां भी धड़ल्ले से चलते हैं। जरूरत होती है वोटींग- बहुमत आदि की कागजी तकनीकी औपचारिकताएं पूरी करने की, जो हो ही जाती हैं और यह सिर्फ पुरस्कार तक ही सीमित नहीं है, अकादमी की अन्य सभी अकादमिक योजनाओं में भी ऐसा ही तमाशा होता है।
संयोजक-परामर्श मंडल व उनके सदस्यों की अनुशंसा जिसे मिलीभगत या संयोजक के दिशा-निर्देश कहा जाना ज्यादा उचित होगा...द्वारा अपने-अपने क्षेत्र से अपनी-अपनी पसंद के निर्णायकों की सूची मांगी जाती है और वह सूची चार वर्ष के परामर्श मण्डल के पूरे कार्यकाल में एक पैनल का काम करती है, पुरस्कार प्रस्ताव हेतु बनी आधार सूची(ग्राउंड लिस्ट) में अंतिम दौर में पहुंची (मजे की बात यह आधार सूची (ग्राउंड लिस्ट) भी संयोजक परामर्श मण्डल, सदस्यों व अकादमी में मान्यता प्राप्त संस्थाओं की अनुशंसा पर बनायी जाती है और उन्हीं के अनुसार मनमर्जी किताबों की सूची में से किताबें अंदर-बाहर कर दी जाती है) किताबें उस निर्णायक पैनल के निर्णायकों को अकादमी द्वारा भेजा जाता है। चालाकी देखिए पुस्तकों का चयन और संस्तुति संयोजक, परामर्श मण्डल के सदस्यों और अकादमी में मान्यता प्राप्त संस्थाओं द्वारा तैयार सूची में से पुरस्कार हेतु पुस्तकों की आधार सूची (ग्राउंड लिस्ट) तैयार की जाती है। यानि अगर आपकी किताब संयोजक, परामर्श मण्डल, और संस्था की जानकारी में नहीं है तो आप की किताब उस आधार सूची (ग्राउंड लिस्ट) में ही नहीं होगी, अगर आधार सूची (ग्राउंड लिस्ट) में ही नहीं है तो पुरस्कृत होने योग्य के बावजूद, वह लिस्ट में नहीं होगी, लिस्ट में नही तो पुरस्कार में कहां से होगी। इस में भी कई बार जब भूले से गलत आकलन की वजह से कोर्इ विरोधी पक्ष या अपवादी लेखक निर्णायक या मण्डल में आ जाता है तो उसके विरोध की वजह से आधार सूची (ग्राउंड लिस्ट) से बाहर की  किताब भी  शामिल हो जाती है और बावजूद असहमति पुरस्कार भी पा जाती है लेकिन ऐसे चमत्कारी अवसर बहुत ही कम आते हैं, बहुदा तो वही होता है जो परामर्श मण्डल का संयोजक चाहता है।
इसलिए केंद्रीय साहित्य साहित्य अकादमी के पुरस्कार के लिए उस भाषा के परामर्श मण्डल का संयोजक एक अहम कड़ी होता है, अपने सोचे निर्णय को क्रियान्वित कराने के लिए उसकी अन्य भाषा के संयोजकों से सैटिंग और मीटिंग चलती रहती है। यही कारण है कि अकादमी के विभिन्न परामर्श मण्डलों में आपको घूम-फिर वही चेहरे- नाम दिखायी देते हैं, संयोजक के पास एक और अभेद्य हथियार है कि परामर्श मण्डल के कार्यकाल की समापित पूर्व अंतिम बैठक में वही आनेवाले परामर्श मण्डल के संयोजक (प्रदेशों से आए नामों में से) अपने मनचाहे नाम का प्रस्ताव कर उसे संयोजक बना जाता है अर्थात उत्तराधिकार जैसा ही कुछ। अत: यह स्वाभाविक ही है आनेवाला संयोजक भी भावनात्मक रूप से  उसका कर्जदार होगा और उसकी सलाहें भी लेगा और इतिहास बताता है और देखा भी गया है कि उन सलाहों पर अमल भी किया जाता है। चूंकि एक व्यकित दो बार ही संयोजक बन सकता है तो यह पद एक अप्रत्यक्ष सौदे के तहत भी आपसदारी से लिया- दिया जाता रहा है। 
इन सब तामझामों और प्रक्रियाओं के बीच इतने लंबे समय तक अकादमी में रहने की वजह से संयोजकों और परामर्श मण्डल के सदस्यों की अकादमी के कार्यालय स्टाफ से सम्पर्क साधने और कई प्रक्रियाओं में अपनी दखल दे देना कौन मुश्किल बात है। कार्यालयों की कार्यविधियों- कार्यकलापों से कोई अनजान नहीं। यही वजह है कि कई बार औपचारिक निर्णय तो बाद में आते हैं लेकिन अनौपचारिक रूप से वे निर्णय पहले ही मालूम हो जाया करते हैं।
कई उस्ताद तो अपने वांछित लेखकों की किताबें अपने वांछित निर्णायकों तक पहुंचाने की भी घुसपैठ रखते हैं। इसके अलावा जब पैनल के निर्णायक के पास अनुशंसा के लिए कोई किताब आती है तो वह उत्साह में  अपने परामर्श मण्डल के संयोजक या सदस्य से संपर्क कर सूचना दे देता है और उसे आगे के दिशा-निर्देश दे दिए जाते हैं उन्हें किसकी अनुशंसा और कैसे करनी है चूंकि अपने को निर्णायक बनाए जाने से वह मुदित होता है वह वही करता है जो कहा जाता है। आखिर अहसानमंद जो होता है। कई बार तो ऐसे भी मौके आए बताए जाते हैं कि अकादमी द्वारा बुलायी बैठक में ही आमने- सामने बैठक कर हाथों- हाथ तय कर लिया जाता है जैसा कि पिछले दिनों समाचारों में युवा पुरस्कार की बैठक का आंखों देखा हाल सुनने में आया ही था। सो, अकादमी की गोपनीयता, निर्णय पारदर्शिता वाला ध्येय, सोच को धत्ता बताते हुए वह सब कर लिया, दिया जाता है जिसके करने का मंतव्य होता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण केंद्रीय साहित्य अकादमी द्वारा दिए जानेवाले राजस्थानी के युवा पुरस्कार के चयन में साफ दिखायी दिया था, अब तक घोषित तीन युवा पुरस्कारों में से दो इक्कतीस जिलों वाले राजस्थान के एक ही शहर के दो युवाओं को दिया जाना कम से कम मुझे तो घोर आश्चर्य के साथ अकादमी की चयन प्रक्रिया में साफ-साफ सेंधमारी और अकादमी की चयन-प्रक्रिया पर सवालिया निशान लगती है।
एक बंदर-बांट चलती रही है और चल रही है जिसे एक जिम्मेदार शब्दकर्मी द्वारा अनदेखा कर पल्ला झाड़ लेना अनुचित तो है ही, अपराध भी क्योंकि जिस तरह राजस्थानी अकादमी किसी की बपौती नहीं, केंद्रीय अकादमी भी किसी की बपौती नहीं है( जो कि हकीकत में समझ लिया गया है) जहां जो जी चाहे जैसे करें।  वह भी हम सब भारतीयों की है क्योंकि उसकी स्थापना का मूल भाव और उददेश्य ही नितांत गैर राजनैतिक और राजनैतिक दखल से मुक्त रखने की नीयत था, यही कारण है कि आज तक अकादमी के किसी भी कार्य-आयोजन में खुले रूप से राजनैतिक, सरकारी दखलंदाजी नहीं है जब कि कर्इ बार ऐसे प्रस्ताव लाने की कोशिशें की गई हैं और अभी भी जारी हैं। 
इसी प्रकार राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी द्वारा घोषित पुरस्कारों पर भी पिछले दिनों स्थानीय पत्रकारिता दबाव व अश्लीलता का आरोप लगा कुछ मित्रों द्वारा आरटीआई लगा अंगुली उठायी गयी और मनीषा कुलश्रेष्ठ की तरह एक महिला रचनाकार को अपमानित किया गया। खबर है वह महिला लेखिका एक निर्णायक और अन्य पर अखबार में अपनी कृति के बारे में प्रकाशित भददी टिप्पणी को आधार बना मानहानि का दावा ठोंक रही है।  सवाल यह है कि यह सब क्या है? क्यों है? हमारे लिए क्या महत्वपूर्ण है हमारा लिखना या हमारी महत्त्वाकांक्षाएं? अपना लिखा पढनेवाले पाठक महत्त्वपूर्ण है या लिखे पर पुरस्कार का प्रमाण-पत्र? हम हमारे लेखन से श्रेष्ठ बनना चाहते हैं कि हमारे द्वारा हासिल पुरस्कारों की संख्याओं से? बहुत ही गंभीर और विचारणीय प्रश्न है मित्रो! और इसी प्रश्न का सही उत्तर हमारी सोच को दिशा देता है, मेरा ऐसा मानना है। यहां अपने लेखन प्रतिभा के बूते देश के नामचीन हस्ताक्षर बनें उन अग्रज उदाहरणीय लेखकों और लेखकों की पैरवी करनेवाले से भी एक सवाल पूछने का मन हो रहा है कि वे कौन से कारण और दबाव हैं जो किसी भी पुरस्कार से ऊपर हस्ती गोपाल दास 'नीरज को भारत- भारती सम्मान के लिए अड़ जाने और पदमश्री, राजस्थान रत्न विजयदान देथा को प्रदेश की अकादमी के एक तुच्छ से पुरस्कार हेतु लाबिंग कराने पर मजबूर करती है।  

 पुरस्कारों, सम्मानों का सच मुझे तो उसी दिन पता चल गया था जब मैं पंद्रह-सोलह वर्ष का था, हिन्दी दिवस पर स्कूल में आयोजित बाल सभा में स्व:रचित हिन्दी कविता-पाठ प्रतियोगिता में मेरी स्व:रचित कविता की जगह हैड मास्टर साहब के बेटे की सुनायी सुभद्रा कुमारी चौहान लिखित 'झांसी की रानी को प्रथम घोषित कर दिया था क्योंकि प्रस्तुति अच्छी थी, उसने गा कर सुनाया था।
साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित होने के बाद हिन्दी के प्रसिèद कवि चंद्रकांत देवताले ने कहा कि साहित्य में राजनीति की तरह फ़ैसले बहुमत से नहीं लिए जाते हैं और यही कारण है कि कर्इ बार गलत लोगों को भी पुरस्कार मिल जाते हैं। उन्होंने कहा कि आज से करीब दो दशक पहले जब प्रख्यात कथाकार भीष्म साहनी अकादेमी के हिन्दी परामर्श समिति के संयोजक थे तब धर्मयुग के संपादक और अंधायुग जैसी कालजयी —ति के लेखक डा. धर्मवीर भारती को अकादेमी पुरस्कार इसलिए नहीं दिया जा सका क्योंकि बहुमत उनके पक्ष में नहीं था जबकि जूरी के सदस्य के रूप में मैंने उनका ही नाम प्रस्तावित किया था। इस बात का दुख मुझे आज तक है। (वाणी प्रकाशन समाचार- मार्च 2013)
अब एक दृष्टि सामान्यत: पुरस्कार देने की प्रकि्रया पर कुछ आकलन अर्थात जो भी पुरस्कार दिए जाने हैं उनके लिए नामित की अहर्ताएं और चयन के मानदण्ड। इसके बाद जो सबसे महत्त्वपूर्ण और विशेष काम है अहर्ता और मानदण्डों को परखने वाले योग्यतम विशेषज्ञ निर्णायकों का चयन। किसी भी पुरस्कार की गरिमा में निर्णायको की ही प्रमुख भूमिका होती है। निर्णायक एकानेक हो सकते है। निष्पक्षता की दृष्टि से अधिकतर यह संख्या तीन रखी जाती है ...तीन सुनते ही सबसे पहले मेरे जेहन में ताश का तीन पत्ती खेल आता है क्योंकि तीन की वजह से आज जो छिछालेदरी बीन बजते सुनायी दे रहे हैं, यह संख्या संदेहों के घेरे में आ गयी है। मतलब तीन की विश्वसनीयता खतरे में है? चाहे वे अकादमिक पुरस्कार हों या कार्पोरेटेड घरानों, संस्थाओं द्वारा बांटे जानेवाले पुरस्कार! अधिकतर में बंदरबांट, हित साधनेवाले प्रकरण या बाजार में नाम भुनाने की निम्न स्तर की कोशिशें साफ दिखायी देती हैं। और यही वजह है कि पुरस्कारों के साथ- साथ उसे देनेवालों- प्राप्तकर्ताओं की सिथति बहुत दयनीय और हास्यास्पद हो गयी है और इसका खामियाजा दोनों को भुगतना पड़ रहा है। दोनों ही अपमानित होते हैं।
गलत निर्णयों पर आम राय और भावना को अनदेखा कर और भविष्य के लिए उससे कोई सीख लेने की बजाय पुन: पुन: ऐसे ही निर्णय लिया जाना बहुत ही खेदजनक होने के साथ-साथ अकादमियों संस्थानों के कामकाज के तौर-तरीको और विश्वसनीयता को कठघरे में खड़ा तो करता ही है, साथ ही ये सवाल भी उठाता है कि आखिर ऐसा किन दबावों और कारणों से होता या किया जाता है?
 तिस पर यह कहा जाना कि ये निर्णय तीन निर्णायकों द्वारा लिया बहुमत निर्णय है, कह कर उस पर निष्पक्ष होने की मुहर लगा निर्णय को जायज ठहराना तो और भी दुखद है जो कि अब एक परिपाटी सी बनती जा रही है। यहां मुझे हाल ही में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने की दशा में अकादमी के पूर्व अध्यक्ष यू आर अनंतमूर्ति के बयान को तोड़-मरोड़ प्रस्तुत करने पर उसकी प्रतिक्रिया में दिए उनके बयान का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण अंश स्मरण हो आया है जिस में वे कहते हैं,'बहुमत भी हमेशा सही हो यह जरूरी नहीं।
सूचना अधिकार के अंतर्गत केंद्रीय साहित्य अकादमी से सन 2006 से 2012 तक के निर्णयों बाबत मांगे गए दस्तावेजों के अध्ययन से जो कुछ समझ आया उसका सार ये कि सन 2006 से 2012 तक के सभी एकल चयन परिणाम पत्रकों में अधिकतर में सिर्फ पुरस्कार हेतु चयनित पुस्तक की ही संयोजक द्वारा संस्तुति, समीक्षा लिख (सरकारी भाषा में कहें तो नोटिंग) त्रि-सदस्यीय निर्णायकों के हस्ताक्षर करा नीचे संयोजक ने हस्ताक्षर कर दिए हैं। इस में भी किसी परिणाम पत्रक में एक, किसी में दो तो किसी में तीनों निर्णायकों के हस्ताक्षर हैं और अधिकतर चयन पत्रको के साथ तीनों में से सिर्फ एक या दो निर्णायक की लिखित संस्तुतियां है, वह भी अधिकतर उनकी की जो चयन बैठक में अनुपसिथत रहे हैं और अधिकतर संस्तुतियां भी चयनित पुस्तक के विपक्ष में..... इसके अर्थ क्या हैं, जरा सी समझ रखनेवाला भी आसानी से समझ सकता है। हिसाब से देखा जाए तो पुरस्कार दौड़ में अंतिम आधार सूची में शामिल सभी कृतियों के बारें में निर्णायक क्या सोचते हैं और उन्होंने किन आधारों पर अमूक पुस्तक को श्रेष्ठ और अमूक को उससे कम श्रेष्ठ पाया...के बारे में अपना अभिमत स्पष्ट लिखना चाहिए लेकिन यहां तों केवल मात्र उसी कृति की संस्तुतियां हैं जिसे पुरस्कृत करना है, उसके साथ प्रतियोगी रही कृति या कृतियों के बारे में किसी भी निर्णायक या संयोजक महोदय की कलम से एक शब्द तक नहीं लिखा गया। मतलब बैठक में जो बैठे हैं वे मौखिक रूप से ही सारे विमर्श कर संयोजक महोदय एक कृति की रिपोर्ट बना (उस रिपोर्ट में भी साथ की प्रतियोगी कृति के जिक्र बिना) निर्णायकों से घुग्गी ठुकवा अपनी घुग्गी ठोंक देते हैं। दौड़ में शामिल अन्य किसी भी कृति पर किसी की कलम से एक शब्द भी नहीं। ये किस तरह के निर्णय हैं जनाब। जितनी भी प्रतियोगिताएं होती हैं... पहले के साथ .दूसरा या तीसरा स्थान पानेवाले वाले के कुछ तो अंक या विचार निर्णायक लिखते- बताते ही हैं लेकिन यहां तो एक से ही कथा शुरु एक पर ही खतम...दूसरे के दूसरे रहने का कारणों का जिक्र तक नहीं। एक और घोर आश्चर्य कि राजस्थानी के लेखकों, पुरस्कारों का मूल्यांकन राजस्थानी के विद्वानों के स्थान पर इतर भाषा के निर्णायक कर रहे हैं। यह सच सिर्फ मुख्य पुरस्कार का ही नहीं, अन्य पुरस्कारों का भी है। पहले युवा पुरस्कार (2011) के चयन में एक निर्णायक रहे राजस्थानी साहित्य में नामवर सिंह माने- जानेवाले आलोचक डा. कुंदन माली ने पुरस्कृत कृति को प्राथमिक स्तर पर ही खारिज करते हुए उसके पुरस्कार में शामिल किए जाने पर ही सवाल उठा दिए थे कि अकादमी के परामर्श मण्डल का सदस्य कैसे इस में शामिल हो सकता है और उन्होंने इस के लिए डा. मदनगोपाल लढा और ओम नागर की कृतियों की खूबियां गिनाते हुऐ उन में से एक को पुरस्कृत करने की संस्तुति की थी ( पूरे दस्तावेजों में यही एक मात्र संस्तुति है जिस में किसी निर्णायक ने पुरस्कृत कृति के अलावा अन्य कृतियों की विस्तार से व्याख्या सहित संस्तुति की है) लेकिन परिणाम पत्रक पर संयोजक की टिप्पणी हैं...दूरभाष पर मि. माली से बात कर उन्हें राजी कर लिया है। ... सन 2006 के राजस्थानी भाषा मुख्य पुरस्कार परिणाम पत्रक पर केवल एक निर्णायक के हस्ताक्षर है, इस में भी संयोजक टिप्पणी करते हैं कि बाकी दो निर्णायकों ने अपने अभिमत भेज दिए थे लेकिन अकादमी द्वारा प्रेषित दस्तावेजों में वे अभिमत संलग्न नहीं है।  इसी तरह 2009 के पुरस्कार जिस में जनकवि हरीश भादानी की कृति भी दौड़ में थी, परिणाम पत्रक पर संयोजक के मेजर जांगिड़ समर्थित नोट पर  प्रो. के. के. शर्मा (राजस्थानी में जितना कुछ आज पढ पाया हूं, कभी ये नाम मेरे पढने में नहीं आया, हो सकता है मेरी ये मेरी पाठकीय सीमा हो) व कुंदन माली के सिर्फ हस्ताक्षर है। तीसरे निर्णायक जो शायद अनुपसिथत थे, ने परिणाम पत्रक पर भादानी जी की कृति की संस्तुति की है। ये सब क्या है और क्यूं? क्यूं हम किसी लेखक का वाजिब हक मार अपनी क्षुद्र मानसिकताओं से किसी अन्य को तमगे दे देते हैं सिर्फ इसलिए कि वे अन्य आपके लिए तरह- तरह के आयोजन -प्रायोजन, अपनी कृतियों का आपके पवित्र हाथों लोकार्पण करा अपने मंचों पर आसीन कर आपको मालाओं से लाद साफे बंधवाते हैं, आपका सम्मान कर तालियां बजवाते हैं। सच में, इतिहास बताता है कि कई पुरस्कार तो मिले ही उनको हैं जिन्होंने संयोजक, परामर्श मण्डल की खातरी की है, अर्थात जिसने बजार्इ हाजिरी, अधिकतर उनकी हुर्इ खातरी। अकादमी से प्राप्त अगर ये दस्तावेज पूर्ण है तो इन में लोचा ही लोचा और घोर अनियमितताएं हैं।
यहां राजस्थानी परामर्श मण्डल के सदस्य रहे एक सदस्य की उपलबिधयों की बानगी देखें... चार वर्ष के कार्यकाल में दो अनुवाद प्रोजेक्ट खुद के और दो अपनी पत्नि (राजस्थानी भाषा के नए अनुवादक अवतार) के नाम स्वीकृत, साथ एक पुरस्कार की उपलब्धि..इसके अलावा वर्तमान परामर्श मण्डल के कुछ निर्णयों में भी सेंधमारी।
ये सच तो सन 2006 से 2012 तक के आंकड़ों के हैं, इससे पूर्व क्या और कैसे- कैसे मैनेज किया और कराया गया होगा प्रबु द्ध पाठक आसानी से समझ सकते हैं। कुल मिलाकर भैंस पानी में ही बैठी दिखायी दे दिखायी दे रही है। 
 कथाकार उदय प्रकाश ने परसाई जी को कोट करते हुए ठीक ही कहा है, 'साहित्य में यह विकलांग श्रèदा का दौर है, घोर नैतिक-मूल्यों के अवमूल्यन का दौर। जहां सिफऱ् विकलांग राज- व्यवस्था में बैठे अपने आकाओं की मिलीभगत से वे लोग साहित्य के स्वयंभू मसीहा बन बैठे हैं जिनका न साहित्य से सरोकार है न साहित्यकारों से। सिफऱ् अपना और अपनों का सिट्टा सेंकने में लगे हैं और विवाद होने पर वक्तव्यों के लिए अपने चेलों की जमात को आगे कर देते हैं 
'आज —कृति छपने से पहले ही चर्चित हो जाती है, पढे जाने से पहले ही उसे सनद बख्श दी जाती है कि यह हिन्दी की पहली और आखिरी रचना है। उसी हिसाब से एक — कृति पर कई कई पुरस्कार दिए जाते हैं। मेरी चिंता केवल पुरस्कार तक सीमित नहीं है बलिक उस अन्याय और अपमान के प्रति है जो हर दिन, हर पल एक रचनाकार को सहना पड़ता है। नासिरा शर्मा (संचेतना)
      'क्या वजह है कि जगदीश गुप्त को भारत-भारती सम्मान इस उम्र में आकर मिला? गिरिजा कुमार माथुर को अकादमी पुरस्कार इतनी देर से मिला, व्यास सम्मान तो स्वयं प्राप्त ही नहीं कर पाए। विष्णु प्रभाकर, देवेन्द्र सत्यार्थी, शैलेश मटियानी, रामदरश मिश्र, महीप सिंह, देवेंन्द्र इस्सर आदि को तो अभी भी याद नहीं किया गया है जबकि जगूड़ी को मिल गया है।....प्रताप सहगल(संचेतना)
      'अरुण कमल को 1998 का साहित्य अकादमी सम्मान मिलने पर अशोक वाजपेयी ने जनसत्ता में अपने डिस्पेच असमंजस में लिखा था अव्वल तो पुरस्कार नेमिचंद जैन, विनोद कुमार शुक्ल, विष्णु खरे और चंद्रकांत देवताले की पुस्तकों के रहते इस पुस्तक को मिले यह रुचि या मानदण्ड की विभिन्नता का मामला नहीं हो सकता, तब जब जूरी में भीष्म साहनी, केदारनाथ सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी हों। यह खुले तौर पर प्रगतिशील निर्णय है।... पर क्या यह सही है कि उसी पीढी के मंगलेश डबराल का काम अरुण कमल से बेहतर और अधिक रहा है? श्री कमल से पिछली पीढी के रमेशचंद्र शाह, —कृष्ण बलदेव बैद, राजेंद्र यादव, और कमलेश्वर को वह नहीं मिला। कुल मिलाकर यह कि इस बार का पुरस्कार गैर साहित्यिक कारणों से किसी सुनिश्चित योजना के अंतर्गत दिया लगता है। यह दूसरी अधिक समर्थ —कृतियों को नज़र अंदाज करके दिया गया है।... अगर हमारे जिम्मेदार और वरिष्ठ लेखक-निर्णायक ऐसा निर्णय लेते हैं तो हमें यह जानने का हक है कि उसका ठोस आधार क्या है, कितनी देर, किन —कृतियों पर बहस हुयी?
      'अब चूंकि ज्यादातर पुरस्कार पद, पहुंच और संभवतरू पार्टी (दारु आदि की भी, राजनीति की भी) और अन्य कारणों से अंजाम पाते हैं, मात्र उत्—श्रेष्ठ लेखन से नहीं। सो गांव, देहात, छोटे कस्बे और शहरों के लेखक या बिना पहुंच के लेखक उस सूची में आ ही नहीं पाते। दूसरी ओर ढेरों पुरस्कारों के घूरे पर बैठे महालेखकों का लेखन आज कहां है, पता भी नहीं चलता। -संजीव(समकालीन साहित्य समाचार- जन.98)
साल 2009 के लिए अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल को संयुक्त रुप से ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने की घोषणा और पुरस्कार राशि को सात लाख के बजाय पांच-पांच लाख किए जाने का निर्णय पहली नजर में भारतीय ज्ञानपीठ की यह उदारता प्रभावित करती है। लेकिन तीन लाख का नुकसान सहते हुए भी ऐसा किया जाना न केवल नैतिक रुप से गलत है बल्कि राशि के आधी या कम किए जाने का प्रावधान अगर पहले से घोषित नहीं है तो फिर संवैधानिक रुप से नियमों का उल्लंघन भी है। साल 1999 में निर्मल वर्मा और गुरदयाल सिंह के बीच भी आधी- आधी राशि बांटी गयी थी,तब भी इस पर विवाद हुआ था और इसे अनैतिक करार दिया गया था।
हिंदी की जानी मानी लेखिका —कृष्णा सोबती आज भी ज्ञान पीठ पुरस्कार से दूर हैं . दिल्ली के साहित्यिक गलियारे की बात मानें तो उन्हें पिछले साल ही ज्ञानपीठ सम्मान मिल जाता लेकिन ज्ञानपीठ के निदेशक और नया ज्ञानोदय के सम्पादक रवींæ कालिया से नाराजगी के चलते उनका पत्ता काट दिया गया. तब निर्णायक समिति में शामिल ' तदभव ' के सम्पादक एवं लेखक अखिलेश ने अन्य सदस्यों को लेखक श्रीलाल शुक्ल के पक्ष में प्रभावित किया और उन्हें ऐसा करने में सफलता भी मिली.
'विजय राय ने लमही के माèयम से अब तक प्रेमचंद के सम्मान की रक्षा की है। इस बार का पुरस्कार मनीषा कुलश्रेष्ठ को कैसे दिया गया, यह बात मेरी समझ में नहीं आई। एक तरफ़ आप शिवमूर्ति को सम्मानित करते हैं और दूसरी तरफ़ मनीषा कुलश्रेष्ठ को। पुरस्कार में एजग्रुप भी तो मायने रखता है। मैं कहूंगा कि यह जल्दबाज़ी में लिया गया है फ़ैसला है। वरिष्ठ और कनिष्ठ का अंतर समझना चाहिए। हिंदी साहित्य में चरम अराजकता फैली हुई है। मनीषा को स्टार बना कर उन की हत्या की जा रही है। सृजन का नाश कर दिया गया। लेखकों के लिए ज्यादा प्रशंसा ठीक नहीं है। ऐसा न हो कि स्टार लेखिका बता कर पंकज सुबीर मनीषा की हत्या करा दें और इस का भागी लमही बन जाए। - संजीव, वरिष्ठ कथाकार (फ़ेबु 170913वाया जय प्रकाश मानस स्टेटस)
(ऊपर के सारे वक्तव्य विभिन्न पत्रिकाओं और फेसबुक से साभार)
संजीव के इस बयान के पक्ष और विपक्ष में बहुत सी टिप्पणियां सोशल मीडिया फेसबुक पर पढने पर अन्य कारणों में न जाते हुए मैं उनके पर मनीषा कुलश्रेष्ठ-प्रकरण के इतर ' वरिष्ठ और कनिष्ठ का अंतर समझना चाहिए। कथन पर ही अपनी बात रखना चाहूंगा। इस कथन पर बहुत से मित्रो ने आपत्ति दर्ज कराते हुए कहा है कि प्रतिभा कोर्इ वरिष्ठ- कनिष्ठ नहीं होती, अकादमियों द्वारा दिए जानेवाले जिस में केंद्रीय साहित्य अकादमी के भी बहुत से प्रकरणों के बाद हुए वाद-विवादों के मददेनजर बहुत हद तक मैं संजीव जी की बात से सहमत होते मैं कहना चाहूंगा कि सही है प्रतिभा कोर्इ वरिष्ठ- कनिष्ठ नहीं होती लेकिन प्रतिभा के प्रतिभा दर्शानेवाले कार्यों को रेखांकित करनेवाले उदरण तो हों जो कहीं रेखांकित किए गए हों, सोने को आभूषण रूप में आने से पूर्व किन- किन तापों को सहना, प्रकि्रयाओं से गुजरना होता है, सब जानते हैं। अनुभूति को समय के चाक पर भाषा, षिल्प और शैली मिश्र माटी से रचयिता अपनी रचना को आकार ही नहीं देता उसे आलोचकों-पाठकों की भटटी में पकने के लिए छोड़ता भी है। वे ही तय करते हैं कि क्या और कैसा रचा गया है। या सिर्फ पुरस्कारों के लिए सबमिट छपी कृति को ही अप्रतिम घोषित कर उसे पुरस्कृत कर एक नए नाम को टपका कर हलचल मचा नाम कमा लिए जाएंगे? केवल एक रचना या कृति जो निर्णायकों के अलावा कभी किसी पाठक के बीच न आई हो, सीधे नामित, पुरस्कृत हो जाए यह तो अति ही कहा जाएगा, लेखकीय प्रतिभा कोई विज्ञान का आविष्कार तो है नहीं कि अचानक प्रस्फुटित हों और चारों ओर अपना चमत्कार दिखाने लगे। एक बार मान भी लिया जाए कि ऎसा है तो भी उनका सच भी यही है कि वे भी न जाने कितने- कितने प्रयोगों के असफल होने के बाद सफलता का मूंह देख पाते हैं। 
मेरे दृष्टिकोण को पुष्ट करनेवाले उपरोक्त सभी संदर्भ बताते हैं कि अकादमी चूंकि हम सब की है, पूरे देश के साहित्य का दर्पण मानी जाती है और जवाबदेह है, अकादमी अध्यक्ष को इस में होनेवाली गतिविधियों, निर्णयों की गरिमा और समग्र शब्द समाज में विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए पुरस्कार, संयोजन चयन प्रकि्रया पर उठने वाले विवादों, सवालों के मददेनजर गंभीरता से मंथन करते हुए कदम उठा वे सभी उपाय करने चाहिए जिससे शब्द से सरोकार रखनेवाले सच्चे शब्द साधकों में अकादमी के प्रति डगमगाते विश्वास में दृढता लौटे।
इस संदर्भ में सुझाव (1) तो यह हो सकता है कि किताबों की आधार सूची ( ग्राउंड लिस्ट) संयोजकों, सदस्यों, मान्यताप्राप्त सदस्यों की बजाय राजा राममोहन राय ट्रस्ट की तरह पूरे देष के प्रकाषकों से सीधे विभिन्न भाषाओं-विधाओं की पुस्तक सूची मांग अपने पास उपलब्ध लेखक परिचय कोश(who's where)   की सहायता से देश भर के लेखकों या प्रदेशों की अकादमियों के पास उपलब्ध उनकी लेखक सूचियों, परिचय कोश से निर्णायक पैनल बना सीधे उन्हीं से अनुशंसा मांगी जा सकती है, और  यह सब गोपनीय हो और इसकी जरा भी भनक संयोजकों, मण्डल-सदस्यों को न लगे। इसके अलावा जिस प्रकार अकादमी पुरस्कारों के लिए हर वर्ष प्रेस-विज्ञपित जारी करती है, उसी प्रकार उस वर्ष प्रकाशित उन विधाओं जिन में जिस भाषा में पुरस्कार दिए जाने है, हेतु भी सीधे प्रकाशकों, लेखकों से सीधे कृतियां आमंत्रित कर सकती है जैसा अभी नवसृजित पुरस्कारों युवा लेखन- बाल साहित्य के लिए यही प्रकि्रया अपनायी जा रही है। (2) संयोजक की चयन प्रक्रिया भी बड़ी बेतुकी और गलत है कि जानेवाला संयोजक, आनेवाले संयोजक का चयन करेगा...ये कोई विरासत नहीं है जिसका कि  जिसकी वसीयत कर उत्तराधिकारी घोषित किया जाए, यह गलत प्रक्रिया तुरंत प्रभाव से बदली जानी चाहिए। (3) मान्यता प्राप्त संस्थाओं की समीक्षा की जानी चाहिए, पड़ताल हों कि उन संस्थाओं की वास्तविकताएं क्या हैं, उसे चलानेवाले कौन हैं, उनकी कहां- क्या सक्रियता है... आरोप हैं कि अकादमी में मान्यता प्राप्त अधिकतर संस्थाएं जेबी हैं और ये सिर्फ संयोजक, पुरस्कार चयन में  वोट- बहुमत दिलाने की भूमिका निभाती हैं। मान्यता के मानदंडों पर पुन: विचार कर, सुधार कर नयी- नयी संस्थाओं को अधिक से अधिक संबद्ध किया जाना चाहिए जिससे राज्य सभा की तरह अकादमी में खेले जानेवाले वोटिंग के कुत्सित खेल से बचा जा सके। (4) पुरस्कार हेतु चयनित कृति के साथ कृतिकार के पूरे साहित्य के क्षेत्र में अवदान को भी दृष्टिगत रखा जाना चाहिए, अगर न  हो तो उसी सिथति में कृति- कृतिकार को पुरस्कार हेतु चयनित किया जाना चाहिए जिसमें आधार बहुमत नहीं, निर्णायकों की सौ प्रतिशत सहमति हो कि वाकई यह अप्रतिम और विरल कृति- कृतिकार है, अगर इसे पुरस्कृत नहीं किया गया तो पूरे साहित्य जगत का नुकसान होगा और हम सब ही इस भूल के खलनायक होंगे। (5) यह भी किया जा सकता है कि अकादमी-अध्यक्ष वर्तमान पुरस्कार चयन प्रक्रिया में कमियों और उनके कारण उठने वाले समय-समय विवादों के मददेनजर चयन प्रक्रिया, नियमों के समीक्षार्थ व उस में अधिक से अधिक पारदर्शिता हेतु बदलाव- सुझावों हेतु जैसे अकादमी साहित्यिक गतिविधियों हेतु सेमिनार- कार्यशालाएं आयोजित करती है, इस हेतु भी एक सेमिनार या बैठक आयोजित कर अकादमी से मान्यता प्राप्त विभिन्न भाषाओं के विद्वानों को आमंत्रित कर इस विषय पर विशद चर्चा कर उस में प्राप्त सुझावों के आधार पर नए नियम और मानदण्ड निर्धारित करे और उन्हें भी लागू करने से पहले साहित्य समाज के समक्ष अवलोकनार्थ रखें जिससे उन में रह गयी कोई कमी और आपत्ति अगर हो तो उसका निस्तारण हो सके। (6) एक तुरंत उपाय यह भी हो सकता है कि जिस भाषा के पुरस्कार या उससे संबद्ध अन्य योजनाओं पर अंगुली उठे या विवाद हो, निर्णयों की त्वरित गति से जांच कर तथ्यों का पता लगाकर यदि हो रही अनियमितताओं सम्बन्धी शिकायतें सही पायी जाएं तो अध्यक्ष अपनी संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग कर उस भाषा के परामर्श मण्डल को संयोजक सहित भंग कर नए मण्डल का गठन कर सकते हैं।  अगर ऐसा एक- दो बार होगा तो इसके बहुत ही सार्थक और स्वस्थ परिणाम आ सकते हैं और काफी दाग धुल सकते हैं भविष्य के लिए भी एक स्वस्थ राह बन सकती है.. एक संदेश हासिल होगा... मेरी ऐसी सोच है। (7) निर्णायकों के पैनेल में आए नामों को सीधे ही चयन करने की बजाय उनके बायोडेटा मंगा उस भाषा में उनके अवदान और सिद्धस्ता की जांच की जानी चाहिए क्योंकि पुरस्कार चयन में निर्णायक की भूमिका ही सबसे महत्त्वपूर्ण और अहं होती है वे ही समस्त विवादों के सूत्रधार होते हैं ( ज्वलंत उदाहरण 'लमही सम्मान) और वे ही गौरनिवत करनेवाले। (8) परामर्श मण्डल के चयन में भी सावधानी बरतते हुए उनके साहित्यिक अवदान को ध्यान में रखते हुए सदस्य चयन होना चाहिए वर्ना तो आगे भी वही होगा जो अब तक होता आया है और आज हो रहा है।   
अकादमियों में व्याप्त उक्त विडंबनाओं और विवादों को देखते हुए अकादमी-अध्यक्षों को चाहिए कि तुरंत विद्वजनों का एक पैनल गठित कर प्रस्तावित सुझावों के मददेनजर या इन से भी बेहतर कोई प्रस्ताव, नियम- प्रक्रिया निर्धारित करने की पहल करें जिससे अकादमी पुरस्कारों और अन्य काम-काजों के तौर- तरीकों पर उठने विवादों के कलंक से निजात पायी जा सके। इस संचार क्रांति युग में जहां कुछ भी छुपाना संभव नहीं रह गया है, आज गोपनीयता के नाम पर अपनी मनमर्जी करना असंभव नहीं तो दुरुह जरूर हो गया है। हर क्षेत्र में पारदर्शिता लाने की वकालत की जा रही है, समय आ गया है कि अकादमियां भी अपने ढंग- ढर्रे में सुधार करें और जिससे अकादमी के परामर्श मण्डल के माननीय सदस्य दूलाराम सहारण जी अकादमी की किसी योजना के अंतर्गत किसी लेखक द्वारा भेजे गए प्रस्ताव की स्वीकृति या अकादमी द्वारा पुरस्कृत किए जाने के बाद तानशाही अंदाज में अहसान जताते हुए जैसे कि अकादमी का अर्थ वे और उनके आका ही हैं,किसी नवनीत पाण्डे को 'आपको अनुवाद कार्य किस की कृपा से मिला था (भले ही 1999 के प्रस्ताव पर 2006 में प्रकाषन को भी वे अपना अहसान बता अपने आपको गौरानिवत महसूस करते हैं) जता कर हड़का सके।
मित्रो! समय आ गया है देष की विभिन्न अकादमियों में जमे इन साहित्य माफियाओं, ठेकेदारों के चुंगल से साहित्य को मुक्त कराने का पूरा लेखक समाज अपने निजी और छोटे-मोटे हितों से ऊपर उठ अपनी क्षमताओं के अनुरूप एकजुट हो सक्रिय और प्रभावी प्रयास करें। अगर ईमानदारी की चाह है, तो खुद को भी, पूरा नहीं तो थोड़ा- बहुत ईमानदार तो होना ही होगा।

नवनीत पाण्डे
'प्रतीक्षा2 - डी -2, पटेल नगर,
 बीकानेर -334003 (राज.) 

2 comments:

  1. नवनीतजी, मेहनत से तैयार किया गया अच्छा आलेख। कुछ तथ्यों से असहमति हो सकती है परंतु ऐसी बाते उठनी चाहिए। इससे अकादमियों के मुखिया सजग रहते हैं। कुछ करने से पहले सोचते हैं।
    हां, सत्य और भी कई बिखरे पड़े हैं। उन्हें बटोरिए। अपने शहर में भी बहुत हैं, मेरे शहर में भी कई हैं। अगर सामने आ जाएंगे तो कई स्वनामधन्य हस्तियों के हौंसले उड़ जाएंगे।

    मेरा यहां जिक्र आया अतएव कहना लाजिमी—
    तीन निर्णायकों में से एक की असहमति। मतलब बहुमत से फैसला। सर्वसम्मति फोन से। मालूम हुआ।
    एक ही शहर में युवा। कोई गलत नहीं। हमारे शहर में कई और युवा भी अभी शेष हैं। कुछ और जुड़ जाएं तो ठीक रहेगा।
    अनुवाद अवतार— उनकी पहली पुस्तक आपके शहर की अकादमी के सहयोग से। फिर साहित्य अकादेमी से। मैंने पहले भी लिखा था कि आप उन्हें किसी सेमीनार में बुलाइए। मुझे मत बुलाइए। मेरी अनुपस्थिति में उनको सुनिए। योग्यता पर प्रश्नचिन्ह फिर लगाइएगा। इसी ढंग से किसी अनुवाद कार्यशाला में मेरी अनुपस्थिति में उन्हें बुलाइएगा। अनुवाद करवाइएगा। योग्यता—अयोग्यता फिर आंकिएगा।
    उपलब्धि— चार नहीं, पांच साल। पांच साल पूरे होने पर मैंने सार्वजनिक रूप से भी उल्लेख किया था, कि मैंने क्या कुछ किया। कितने अनुवाद प्रस्ताव स्वीकृत करवाए। लिंक दे रहा हूं देख लेवें, जिससे या तो आपकी पीड़ा कम होगी, या फिर बढेगी।

    खैर.... इस ढंग के आलेखों का मैं समर्थन करता हूं। आग्रह—दुराग्रह अपने हों तो भी कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। सूरत बदलनी चाहिए। राज्य अकादमी की भी और आपकी जानिब साहित्य अकादेमी की भी।

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  2. https://www.facebook.com/dularam.saharan/media_set?set=a.486168461421873.103206.100000861695154&type=3

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