Tuesday 9 April 2013

आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास केवल वादों से जाना-पहचाना जाता है- रामदरश मिश्र

रामदरश मिश्र


मित्रो!  हिन्दी अकादमी के श्लाका सम्मान व  के के बिड़ला फ़ांउडेशन द्वारा  ’व्यास सम्मान’  से सम्मानित सफल कवि, आलोचक तथा कथाकार  कवि,कथाकार रामदरश मिश्र पिछले सात दशक से हिन्दी साहित्य के सक्रिय व चर्चित हस्ताक्षर हैं। मिश्र जी  की साहित्य प्रतिभा बहु आयामी है। उन्होंने कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना और निबंध जैसी प्रमुख विधाओं में तो लिखा ही है, आत्मकथा, यात्रावृत्त तथा संस्मरण भी लिखे हैं। उनका रचना संसार आम आदमी का रचना संसार है। उनकी रचनाएं पाठक को बांधे रखने की अद्भुत क्षमता रखती हैं। किसी झंडे या वाद से अलग उनका रचनाकार हमेशा अपने समय और समाज की वास्तविकताओं से मुठभेड़ करते हुए उसका यथार्थ कागज़ पर उकेरता रहा है जिसका नुकसान भी कई बार उनके रचनाकार को उठाना पड़ा है। आलोचना ने उनके रचनाकर्म का आज तक सही मूल्यांकन नहीं किया है। उन्हें श्लाका सम्मान मिलने के बाद उनके रचनाकर्म और साहित्य-यात्रा के साथ- साथ आधुनिक हिन्दी साहित्य की यात्रा के बारे में कई ज्वलंत और गंभीर मुद्दों पर विस्तार से हुयी यह लंबी आत्मीय बातचीत आज बीच बहस पाठकों के साथ साझा कर रहा हूं....


   १५ अगस्त, १९२४ को गोरखपुर जिले के कछार अंचल के गाँव डुमरी में जन्मे रामदरश मिश्र जी की प्रमुख प्रकाशित कृतियां कविता संग्रह- पथ के गीत, बैरंग-बेनाम चिट्ठियाँ, पक गई है धूप, कंधे पर सूरज, दिन एक नदी बन गया, जुलूस कहां जा रहा है, रामदरश मिश्र की प्रतिनिधि कविताएँ, आग कुछ नहीं बोलती, शब्द सेतु, बारिश में भीगते बच्चे, ऐसे में जब कभी, आम पत्ते। गज़ल संग्रह- हँसी ओठ पर आँखे नम हैं, बाजार को निकले हैं लोग, तू ही बता ऐ जिन्दगी। संस्मरण- स्मृतियों के छंद, अपने अपने रास्ते, एक दुनिया अपनी और चुनी हुई रचनाएँ-बूँद-बूँद नदी, दर्द की हँसी, नदी बहती है, कच्चे रास्तों का सफ़र। उपन्यास- पानी के प्राचीर, जल टूटता हुआ, बीच का समय, सूखता हुआ तालाब, अपने लोग, रात का सफर, आकाश की छत, आदिम राग, बिना दरवाजे का मकान, दूसरा घर, थकी हुई सुबह, बीस बरस, परिवार। कहानी संग्रह- खाली घर, एक वह, दिनचर्या, सर्पदंश, वसंत का एक दिन, इकसठ कहानियाँ, अपने लिए, मेरी प्रिय कहानियाँ, चर्चित कहानियाँ, श्रेष्ठ आंचलिक कहानियाँ, आज का दिन भी, फिर कब आएँगे ?, एक कहानी लगातार, विदूषक (कहानी संग्रह), दिन के साथ, १० प्रतिनिधि कहानियाँ, मेरी तेरह कहानियाँ, विरासत। ललित निबंध संग्रह- कितने बजे हैं, बबूल और कैक्टस, घर-परिवेश, छोटे-छोटे सुख आत्मकथा- सहचर है समय, फुरसत के दिन।



आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास केवल वादों से जाना-पहचाना  जाता है- रामदरश मिश्र
 
नवनीत पाण्डे-  मिश्र जी एक कवि के रूप में अपनी साहित्यिक यात्रा षुरू करने के आपका झुकाव कहानी की ओर स्वतः ही हुआ था या फिर कोई अन्य कारण था?
रामदरश मिश्र- (मुस्कराते हुए) नहीं  भाई ऐसी कोई बात नहीं, यह सच है कि मेरी यात्रा कविता के साथ ही शुरू हुई थी लेकिन वह कविता के साथ खतम नहीं हुई। मेरी साहित्यिक यात्रा में आज भी कविता उसी तरह साथ है जैसे पहले थी। मुख्य विधा आज भी मैं कविता को ही मानता हूं । अचानक मैंने ऐसा कभी कुछ नहीं किया।(कुछ क्षण विचार की मुद्रा) मेरा विचार है कि पहले हर लेखक अपने लेखन की शुरुआत कविता से ही करता है। मन में कुछ भावनाएं आती हैं...कुछ तरंगें आती हैं....और वही भावनाएं और तरंगें बचपन और युवा मन में उमड़-घुमड़ कर कविता का आकार ग्रहण कर लेती हैं। कुछ लोग कविता के ही साथ चलते रहते हैं, कविता के माध्यम से ही सब कुछ कहना चाहते हैं जबकि कुछ लोग आगे चलकर गद्य की  विधाओं की ताकत को पहचाते हुए यह महसूस करते हैं कि अमुक बात इस तरह और बेहतर ढंग से कही जा सकती है और वे अपनी उस बात को उस विधा के माध्यम से हमारे सामने रखते हैं। जैसे कहानी कुछ अलग ढंग से जीवन की बात करती है और उपन्यास समग्र रूप से जीवन के एक बहुत बड़े फलक को हमारे सामने रखता है। कविता के क्षेत्र में प्रबंध- काव्यों से जो जीवन की व्याप्ति को पकड़ने की कोषिष होती थी वह कोशिश गौण पड़ गयी है। अब प्रबंधकाव्यों और महाकाव्यों के स्थान पर उपन्यास आ गया है इसीलिए आजकल उपन्यास को गद्य का महाकाव्य भी कहा जाता है।
    
नवनीत पाण्डे- आपकी रचनाओं में अक्सर कछार की भावभूमि और वातावरण दिखाई देता है जबकि एक अरसे से आपका जीवन महानगरीय वातावरण में है, इसका कारण?
रामदरश मिश्र- (कुछ क्षण का मौन)......दरअसल मेरा जो प्रारंभिक जीवन रहा है वह गांव में, देहात में अधिक बीता है और देहात से लेकर शहर-महानगर की इस यात्रा ने मुझे जीवन में बड़े व्यापक और जटिल अनुभवों से साक्षात् कराया है, एक बहुत बड़े फलक को देखने का सौभाग्य मुझे मिला है। उन्हीं अनुभवों को मैंने अपनी कविताओं-कहानियों में व्यक्त कर उन्हें पुनः देखने की एक कोशिश की है और ऐसा हर लेखक करता है। कविता मेरे पास शुरु से ही थी जबकि कहानी में मैं बहुत बाद में धीरे-धीरे आया.......

 नवनीत पाण्डे- सन् 60 के करीब ?
रामदरश मिश्र- (याद करते हुए) हां, लेकिन यूं तो मैं पचास के बाद ही आ गया था इस विचार से कि चलो एक दो कहानी लिखते हैं, देखें कैसी बन पाती है? लेकिन साठ के बाद प्रमुख रूप से कहानी में आ गया और मैंने उस समय बहुत सी कहानियां लिखीं और कहानियों का एक दौर सा शुरू हो चला..  

नवनीत पाण्डे- ‘मनोज जी’,‘भइया’ शायद उसी दौर की कहानियां हैं?
रामदरश मिश्र- ये मेरी शुरु की छिटपुट कहानियांे में से हैं जो साठ से पहले ही ‘कहानी’ में छप चुकी थीं लेकिन उस समय साल, दो-साल, तीन साल में कहानी आ पाती थी लेकिन साठ के बाद जो कहानियों का दौर  षुरु हुआ, उस में एक निरंतरता आई। उसी समय उपन्यास की भी शुरुआत ‘मैला आंचल’ की प्रेरणा से हो गई.....गांव मेरे भीतर अटा हुआ था, उस समय कहानियां भी गांव की ही आ रही थी। ‘मैला आंचल’ पढकर मुझे लगा कि मैं भी अपने गांव को ऐसे ही समग्रता से कह सकता हूं। 

नवनीत पाण्डे- क्या ‘पानी के प्राचीर’ उसी प्रेरणा का परिणाम था?
रामदरश मिश्र- (मुस्कराते हुए) हां, बिल्कुल! ‘मैला आंचल’ ने एक रास्ता जो दे दिया था। इसके अलावा मैं ‘मैला आंचल’ की संरचना से भी प्रभावित था यहां तक कि ‘पानी के प्राचीर’ में भी मैंने ध्वनियांे का प्रयोग किया जैसा कि ‘मैला आंचल’ में है लेकिन बाद में मैंने इसे छोड़ दिया क्यूंकि मुझे लगा कि यह रास्ता मेरा नहीं है । यह रास्ता ‘रेणु’ का ही है। लेकिन रेणु ने एक संरचना उपन्यास की हमारे सामने रखी थी कि कथा सीधी नहीं चलती है, कथा एक प्रवाह से नहीं चलती है, कभी यहां से उठती है, कभी वहां से, कभी एक दृष्य है तो कभी दूसरा, इस तरह सभी मिलकर एक कथा बनाते हैं। वह कथा होती है एक गांव की, एक परिवेष की, मात्र किसी नायक अथवा नायिका की नहीं। ‘पानी के प्राचीर’ लिखने के बाद मुझे लगा कि मुझे उपन्यास भी लिखना चाहिए। ‘पानी के प्राचीर’ के बाद तो उपन्यास ने जैसे मुझे पकड़ ही लिया। उपन्यास के क्षेत्र में मुझे अपनी क्षमताओं का भी अहसास हुआ। मेरे पास अनुभवों की कोई कमी नहीं थी, गांव से लेकर....गुजरात तक मेरा अनुभव संसार फैला था। ‘जल टूटता हुआ’ लिखने के बाद एक छोटा उपन्यास ‘बीच का समय’ आया जो कि गुजरात की पृष्ठभूमि पर एक प्रेमकथा है।

नवनीत पाण्डे- ‘सूखता हुआ तालाब’ भी शायद उसी कड़ी का है क्यों कि उस में भी ग्रामीण परिवेश का कथानक है?
रामदरश मिश्र- हां, मैंने अनुभव किया कि गांव में जो सामाजिकता है वह खंडित हो रही है, सम्बन्धों में एक अलग प्रकार का विघटन उपस्थित हो रहा है। मुझे लगातार लग रहा था...गांव बदल रहे हैं...उनकी दिषा बिल्कुल अप्रीतिकर हो रही है। इसी दशा-दिशा को मैंने ‘सूखता तालाब’ में बांधने का प्रयास किया। इस में यौन नैतिकता का संदर्भ भी उठाया गया था। इस के बाद के उपन्यास ‘आकाश  की छत’ में मैंने दिल्ली की बाढ को अपने गांव की बाढ के अनुभव देखने का प्रयास किया (अतीत में जाते हुए)...यानी दोनों बाढों में जीवन की क्या लय है...क्या समानता-असमानता है? ‘दूसरा घर’ में मैंने गुजरात को लिया क्यों कि वहां मैं बहुत समय तक रहा हॅंू। वहां मैंने देखा कि उत्तर भारत से अनेक लोग, अनेक पेषों के लोग यहां पहुंचे हुए हैं, खासतौर से वे, जो मिलों में काम कर रहे हैं और दो घरों के बीच फंसे हुए हैं। जो पढा-लिखा तबका है, वह यहां आता है और बस जाता है लेकिन ये लोग तो वहां भी है और यहां भी, वहां होते हैं तो यहां होते हैं और यहां होते हैं तो वहां। तो दो घरों के बीच उनकी जिंदगी कैसे बीतती है, यही सवाल मुझे सालता था और गुजरात से लौटने के काफी दिनों बाद इसकी परिणति ‘दूसरा घर’ के रूप में हुई।

नवनीत पाण्डे- उपन्यास की संरचना  में अभी जो प्रयोग हो रहे हैं उन्हें  आप किस रूप में देखते हैं? अपने नवीनतम उपन्यास ‘बीस बरस’ के बारे में कुछ बताएंगे?
रामदरश मिश्र- (मुस्कराते हुए) ‘बीस बरस’ में मैंने आज के गांव को ही देखने-समझने का प्रयास किया है यानी कि आज का गांव क्या है? कहां जा रहा है? मेरे उपन्यासों की संरचना में बदलाव आता रहा है। हर उपन्यास अपनी अलग संरचना लेकर आता है। मैंने जानबूझ कर ऐसी कोई कोषिष नहीं की। हर उपन्यास स्वयं ही अपनी संरचना बना लेता है, यह सब अनायास लेकिन चेतना के साथ होता है। कई बार जब लोग तय करके, ढांचा बनाकर कुछ नया लिखने की ही चाह में एक सर्वथा अलग संरचना थोपने की, फिट करने की कोषिष करते हैं तो वह कृत्रिम लगती है। जिस नई वस्तु को आप सामने ला रहे हैं, उस वस्तु का रूप क्या है और उसे कैसे, किस अंदाज से रूपायित करना है, यही चिंता सर्वोपरि होनी चाहिए। उस वस्तु के साथ-साथ उसकी संरचना बदलती रहती है। 

नवनीत पाण्डे- आज जब साहित्य में निबंध हाशिए पर होता जा रहा है।आप निबन्ध भी लिख रहे हैं।निबंध के प्रति इस लगाव का कारण? 
रामदरश मिश्र- (एक विचार मुद्रा में आते हुए) हां, कभी-कभार ललित निबंध लिखता रहता हूं। निबंध का अपना महत्त्व है,अपना बल है। निबंध मेरा स्वभाव व क्षेत्र नहीं रहा है लेकिन मैं मानता हॅंू कि वह भी एक समर्थ विधा है। कुछ ऐसी बातें होती हैं जो केवल निबंध में ही कही जा सकती है। एक कवि-उपन्यासकार-कथाकार के साथ-साथ एक आलोचक भी मेरे भीतर रहा है। मेरे भीतर भी कुछ  ऐसी बातें हैं जो मैं सीधे-सीधे केवल निबंध में ही कह सकता हूं। कुछ ऐसे ही भाव से मैंने अपनी आत्मकथा लिखी है।

नवनीत पाण्डे- आत्मकथा लिखने के कारणों का खुलासा करेंगे क्योंकि आत्मकथा के बारे में यह कहा जाता है कि हर लेखक आत्मकथा में स्वयं को महात्मा सिद्ध करता है और दूसरे को शैतान?
रामदरश मिश्र- (हंसते हुए) आप की बात सही है लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। आत्मकथा लिखने का मेरा कोई संकल्प नहीं था..पाठकों के पत्र आते रहते थे..मुख्यतः षोध छात्रों के..आप का जीवनवृत्त क्या है, कहां पैदा हुए आदि-आदि। इतने पत्र आते कि परेशान हो गया था। इसके लिए एक बड़ा निबंध लिखा ‘जहां मैं खड़ा हूं’ जिसमें बचपन की यादें थी। सोचा इससे काम चल जाएगा। लोगों ने उसे पसंद किया, मित्रों का भी आग्रह था इसे आगे बढाऊं।  प्रकाशकों की भी इच्छा थी। पहले मेरे मन में यह दुविधा थी,‘मैं क्यों आत्मकथा लिखूं, मैं कौन बड़ा आदमी हॅूं, न तो मेरे जीवन में ऐसा कोई एडवेंचर है, न मैं गांधी-नेहरु हॅंू, न निराला, प्रसाद हूॅं, मुझे कौन पढेगा? कुछ ऐसा ही संकोच मन को घेरे रहता था, लगता था कि यह एक अहंकार है कि मैं खुद लोगों को बताऊं कि मैं क्या हॅूं? लेकिन मैं इस संकट से उबर गया जब मन में एक सोच कौंधा कि यह कथा सिर्फ तुम्हारी नहीं है, तुम्हारे माध्यम से तुम्हारे परिवेश की है, और परिवेश किसी का भी महत्त्वहीन नहीं होता।’ इस सोच ने मुझे बड़ा बल दिया और मेरे पास इतने सारे अनुभव-प्रसंग थे कि सिलसिला बनता गया और काम हो गया। मैंने  अपनी आत्मकथा में अपने माध्यम से कछार, बनारस, गुजरात,दिल्ली के सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक परिवेश की कथा कही है। इस नाते इस आत्मकथा की संरचना कुछ अलग ही हो गयी। लोगों ने इसे पसंद किया और आलोचकों (जो गुटबाज़ नहीं है) ने इसे फोकस करते हुए रेखांकित किया। (एक हंसी)  महात्मा और शैतान वाली आपकी बात सही है, इस बारे में मेरी धारणा है कि आत्मकथा प्रवंचना के साथ तो नहीं लिखी जा सकती, उस में आप औरों को भले ही न खोलें, पर अपने को खोलना बहुत जरूरी होता है। अगर आप में यह साहस नहीं है तो आत्मकथा  मत लिखिए। यह सही है कि कुछ आत्मकथा-लेखकों ने अपने घर के रोमांस को तो गोपित रखा है लेकिन दूसरों के साथ किए गए रोमांस पर, दूसरों की बहू-बेटियों के साथ उनके क्या सम्बन्ध रहे हैं, उन पर, नाम उजागर करते हुए बहुत खुल कर लिखा है- बिना यह विचार और चिंता किए कि वे सारी लड़कियां आज किसी की मां, दादी, नानी बन चुकी होंगी, उनका समाज में एक सम्मानित स्थान हो सकता है। अपने को बचाते हुए औरों को खोलने का यह प्रयास अष्लील होने के साथ-साथ अक्षम्य भी है। शैतान वाली बात वहीं होती है जहां लेखक अपनी कमज़ोरियों को छिपाते हुए दूसरों की कमज़ोरियों कोे खोलता है। यदि आप महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं तो आपके हर प्रशंसक-पाठक को यह  जानने की उत्कंठा होगी ही कि आपने यह उपलब्धि कैसे प्र्राप्त की? आपके समय के समस्त कार्य-व्यापार-परिवेश-परंपराएं वह जानना चाहेगा। गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में अपनी कमज़ोरियों को भी खोला है, वह तो महत्त्वपूर्ण है ही, लेकिन उससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि उन्होंने अपने समय से कैसे मुकाबला किया, किस तरह एक मामूली आदमी से उठकर उन्होंने अपनेे लक्ष्य हासिल किए? आत्मकथा में विश्वसनीयता होना बहुत जरूरी है। राजेंद्र यादव ने मज़ाक में मुझ से कहा,‘यार तुम कुछ छुपा रहे हो। वे रोमांस छिपा रहे हो जो तुमने गुजरात में किए हैं।’ चंूकि वे स्वयं रोमांस करते रहते हैं, इसलिए सोचते हैं, हर आदमी कुछ ऐसा ही करता होगा। मैंने हंस कर बस यही कहा,‘नहीं ऐसा कुछ नहीं है यार।’ अगर हो भी तो ये सार्वजनिक किए जानेवाले मुद्दे नहीं है। महत्त्वपूर्ण यह है कि आत्मकथा अपने समय के समाज और परिवेश से मुठभेड़ करते हुए अपने जीवन के उन संदर्भों को ही सामने रखे जिन से पाठक कुछ ग्रहण कर सकता हों। किसी स्त्री से अपने रोमानी सम्बन्ध को बिना उसकी अनुमति के सार्वजनिक करना सद्कर्म नहीं, अश्लील कर्म है क्योंकि  सम्बन्ध में केवल आप अकेले पक्षकार नहीं हैं। 

 नवनीत पाण्डे- राजेंद्र यादव जी ने तो अपने साक्षात्कार में कुछ ऐसी ही बातें और मन्नू जी के बारे में भी  कुछ असंयमित टिप्पणियां पिछले दिनों की है?
रामदरश मिश्र- वह फूहड़पन है। वे ऐसा करते रहते हैं। अकेले वे ही नहीं कई और भी हैं।

नवनीत पाण्डे- सन् 1951 से अब तक हिन्दी साहित्य में हुए लगभग सभी प्रमुख आंदोलनों के आप साक्षी रहे हैं? इन सभी दौरों में आपकी भूमिका तटस्थ दिखायी देती है चाहे वह नई कहानी का दौर हो या सचेतन कहानी का दौर, आप भीड़ से अलग खडे़ हैं। ऐसा स्वतः ही था या़......
रामदरश मिश्र- (मुस्कराते हुए) देखिए! आपकी बात सही है। मैं कभी किसी आंदोलन के झण्डे तले नहीं आया। इसका प्र्रमुख कारण यह है कि मुझे हमेषा यही लगा कि आंदोलन सही ढंग से चलाए नहीं जा रहे हैं। कुछ लोग होते हैं जो अपने को केंद्र में स्थापित करके अपने पीछे कुछ लोगों को अपना झण्डा पकड़ा देते हैं। नई कहानी के समय बहुत से लोग  कहानियां लिख रहे थे लेकिन केंद्र में आए कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव और मोहन राकेश क्यों? क्योंकि तीनों साथ रहते थे, साथ योजनाएं बनाते थे, और तीनों स्वयं को ही केंद्र रखकर अपना माहौल बनाते थे जबकि उसी ..........................

नवनीत पाण्डे- अमरकांत.............
रामदरश मिश्र- अमरकांत, भीष्म साहनी, रेणु थे और भी बहुत से लोग थे, हम जैसे लोग तो बहुत बाद में आए। हम लोग इन आंदोलनों के प्रत्यक्षदर्षी रहे हैं। मेरी कभी इच्छा नहीं हुई इन से जुड़ने की। सन् 1960 के बाद, जब मैं दिल्ली में ही था मैंने देखा किस तरह अकविता वाले, अकहानी वाले मिलकर योजनाएं बना रहे हैं, तय कर रहे हैं, कैसे-क्या  करना है? कौन सी पत्रिका निकालनी है? किसे ऊपर उठाना है, किसे  डाऊन करना है? कौन- कौन आगे रहेगा आदि-आदि। मेरा मन कभी भी इस तरह के कृत्रिम आंदोलनों से नहीं जुड़ा। इसके  कारण मुझे  भारी  नुकसान भी उठाना पड़ा क्योंकि आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास इन्हीं सही-गलत  आंदोलनों के इतिहास के रूप में जाना जाता है। कहानी-कविता को अब प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई  कहानी-कविता, यथार्थवाद या अन्य किसी वाद के आधार पर परखा जाएगा। उस में उस झंडे के नीचे चलनेवाले लोग आ जाएंगे। आप देखिए, आप इस के माध्यम से पचास-साठ के दशक  कविताओ, कहानियों की बात नहीं कर रहे हैं। इस बीच लिखी गई विशिष्ट कविताओं, कहानियों की बात भी नहीं कर रहे हैं। आप बात कर रहे हैं नई कहानी की, अकहानी की, उस के गढे जानेवाले फार्मूलों की, उस में उछलने वाले नामों की। इस उठा -पटक में हम जैसे लोग जो इन सब से अलग हमेशा अपने समय के साथ मुठभेड़ करते रहे हैं

नवनीत पाण्डे- भुला दिए जाते हैं............
रामदरश मिश्र- बिल्कुल सही कहा आपने! इस तरह उन लोगों के नाम तो लाइट में आ जाते हैं और हमारे जैसे लोग उन लोगों के जैसे ही जागरूक और सक्रिय होने के बावजूद सामने नहीं आ पाते क्योंकि हम लोग किसी वाद से नहीं बंधे, किसी झण्डे के नीचे नहीं खड़े हुए। वादों से परे होकर भी हम अपने समय की अनुभूति, चेतना, बोध, परिवेश से गहरे जुड़े रहेे।(कुछ क्षण का मौन) मैं यह नहीं कह रहा कि सभी आंदोलन गलत थे, सही आंदोलनों के पीछे अपने समय का पूरा दवाब था। कहने का मतलब यही है कि हम भी कभी तटस्थ नहीं रहे अपने समय की आहट हमारी रचनाओं में भी वैसी ही है जैसी उन चर्चित नामों की रचनाओं में। आधुनिक कि हिन्दी साहित्य का जो इतिहास हमारे सामने है, उसकी विकृति यही है कि जो लोग वादों, आंदोलनों से परे ईमानदारी से केवल अपने रचनाकर्म को समर्पित रहे, उस में अपना स्थान नहीं बना पाए।

नवनीत पाण्डे- अभी शताब्दी विशेषांक विभिन्न पत्रिकाओं ने निकाले हैं उन में भी आप अनुपस्थित हैं, क्या इसकी पृष्ठभूमि में भी ये ही सब कारण हैं?
रामदरश मिश्र- (हंसते हुए) इन वादों के साथ-साथ हमारे यहां एक और बड़ा कारण इसका रहा है,गुटबाजी। एक गुट अशोक वाजपेयी का है, एक नामवर जी का है, एक राजेन्द्र यादव का है, इन से बाहर कुछ होने का सोचा भी नहीं जा सकता। सब कुछ इनके और इन्हीं इशारे पर चलनेवाले लोगों के ही हाथों में हैं। अधिकांश पत्रिकाएं, संस्थाएं इन लोगों के ही हाथों में हैं। सरकारी, अर्द्ध-सरकारी, विदेशी- प्रवासी समस्त आयोजन-प्रायोजन इन के इशारों पर होते हैं, उन में इन्हीं के लोग होते हैं। इसलिए जब कोई विशेषांक निकलेगा तो उस में वही सब होगा जो इन्हें पसंद होगा, इनके आचार- विचार का होगा। जो इन के नहीं हैं उन्हें अनदेखा या आउट करने में इन्हें मज़ा आताहै। हम जैसे लोग इन सब की परवाह नहीं करते क्योंकि  हमारा मूल मंतव्य ईमानदारी से केवल लिखना- पढ़ना होता है। (व्यंग्य भरी हल्की मुस्कराहट) यह नहीं कि सुबह उठे और अपनी दौड़ शुरु कर दी- घर से लेकर साहित्य अकादमी, एनसीआरटी या अन्य किसी लाभदायक जगह तक। यह दौड़ होती ही रहती है। योजनाएं बनती हैं और तय किया जाता है किस को कहां- क्या करना है? जो इन के प्रिय नहीं हैं, कहीं बेमेल हैं, उन्हें कैसे रास्ते से किनारे किया जाए या हटाया जाए, इस पर गहन चिंतन-मनन किया जाता है। बावजूद इसके, इन सब के बीच इन से अलग जो बचे हुए हैं, वे केवल  और केवल अपने लेखन की ऊर्जा- ऊष्मा और अपने पाठकों की बदौलत हैं। ये इनकी परवाह क्यों करें -‘देगें क्या खुद ही भिखारी की बिछी चादर हैं आप।’

नवनीत पाण्डे- ऐसे लोगों की रचनाकर्म  पर आलोचना की दृष्टि?
रामदरश मिश्र- अरे भाई! आलोचना कोई इन से बाहर है क्या? उसके केंद्र भी तो ये ही सब हैं। उस  में भी इन्हीं सब बातों पर विचार करके लिखा- पढा जाता है .............

नवनीत पाण्डे- ‘लिखा तो मैंने भी पर झमेला ना हुआ, दर्द मेरा कोई नुमाईशी मेला नहीं हुआ’ रचना कहीं इसी स्थिति की पीड़ा का प्रकटीकरण तो नहीं है?
रामदरश मिश्र- (हंसते हुए) ऐसी स्थिति नहीं है क्या, आप बताइए! एक तरह से अच्छा ही है जो मैं इन सब से दूर रहा। मेरा स्वभाव ही नहीं है ऐसा, चाहे घाटा हो या लाभ मैंने कभी किसी  समीकरण को महत्त्व नहीं दिया और न ही कभी किसी समीकरण में रहा।

नवनीत पाण्डे- यह जानते हुए भी कि आज समस्त उपलब्धियों के मानदण्ड केवल मात्र समीकरण ही हो गए हैं। इस समीकरणबाजी ने पुरस्कारों के मामले में विष्णु प्रभाकर, आप जैसे वरिष्ठ रचनाकारों के साथ जो कुछ किया है, क्या उसे गरिमामय कहा जा सकता है?
रामदरश मिश्र- आपकी बात सच है लेकिन आपको आश्चर्य होगा कि मुझे जब भी कोई पुरस्कार मिला मुझे स्वयं विश्वास नहीं हुआ कि यह मुझे मिलेगा? जितने भी मिले पहली सूचना पर मेरी पहली प्रतिक्रिया आश्चर्य ही की थी- अरे! यह मेरे पास कैसे आ गया? ‘दयावती मोदी’ शिखर सम्मान के लिए विद्यानिवास मिश्र जी ने मुझे फोन किया और बधाई दी तो मेरे धन्यवादकी प्रतिक्रिया में बोले, ‘‘धन्यवाद किस बात का भाई! यह तो आपको बहुत पहले मिल जाना चाहिए था वैगरह- वैगरह.......

नवनीत पाण्डे- अभी हाल ही में हिन्दी अकादमी का ‘शलाका सम्मान ........
रामदरश मिश्र- वही तो मैं बता रहा था....। जीवन में कुछ चीजें न मिले तो फर्क नहीं पड़ता पर मिले तो स्वतः मिले तभी गौरव का बोध होता है। मुझे जितना मिला, ढंग से, आत्मसम्मान से मिला। अच्छा लगता है पर यही सब नाक रगड़ने पर मिले तो उसका क्या अर्थ है? मुझे नहीं मालूम था,पुरस्कारों के लिए लोग क्या- क्या करते हैं? लेकिन जब अरुण कमल को पुरस्कार मिला और उस प्रकरण में इन लोगों ने जब एक दूसरे की बखिया उधेड़नी शुरू की तब पहली बार पता चला कि ये लोग क्या- क्या करते है..। अब तो पुरस्कार पूर्वघोषित हो रहे हैं। पहले मैं भी यही सोचता था कि जो योग्य उसे मिल जाता है पर यहां आकर देखा तो अजीब ही परिदृश्य सामने था। सच मानिए इन सब बातों से पुरस्कारों की गरिमा के साथ- साथ उनकी विश्वसनीयता को भी नुकसान हुआ है।

नवनीत पाण्डे- इलेक्द्रोनिक मांइड के इस युग में मीडिया के समकक्ष आप साहित्य की भूमिका को किस रूप में देखते हैं?
रामदरश मिश्र- ( मुस्कराते हुए ) देखिए! यह एक अलग तरह की बात है। मीडिया अपना काम करता है साहित्य अपना। साहित्य की भूमिका तो वही रहेगी जो अब तक रही है। मीडिया की साहित्य के प्रचार- प्रसार में बहुत अहम भूमिका होती है।

नवनीत पाण्डे- क्या मीडिया अपनी यह भूमिका ईमानदारी से निभा रहा है?
रामदरश मिश्र- मैं मानता हूं कि आज वह पूरा ईमानदार नहीं है फिर भी आप ने देखा होगा कि भीष्म साहनी के ‘तमस’,शरत्चंद्र के ‘श्रीकांत’,‘विराज बहू’ श्रीलाल शुक्ल के ‘राग दरबारी’ को दूरदर्शन के माध्यम से ही अधिक लोकप्रियता मिली है। कहने का तात्पर्य यह है कि मीडिया ने हमारे साहित्य को बहुत अधिक लोगों तक पहुंचाया है। यह एक बहुत बड़ा काम है मीडिया का। उसने हमारे उच्चस्तरीय साहित्य को घर, आंगन, चूल्हे-चक्की तक पहुंचाया है। एक समय तक बहुत ही सही ढंग से सच्चे अर्थों में मीडिया साहित्य के साथ था परंतु जैसे ही उपभोक्तावादी संस्कृति ने हमारे समाज, जीवन में घुसपैठ की  सब कुछ बदल गया क्योंकि इस संस्कृति का मुख्य उद्देश्य ही केवल और केवल मनोरंजन और पैसा बटोरना है। इस तरह मीडिया का जो प्रस्तोता वर्ग है वह पैसा इकठ्ठा करने में लगा है और दर्शक मनोरंजन। प्रस्तोता को यह चिंता नहीं है कि हम वह दर्शकों- पाठकों को अपने समय का श्रेष्ठ साहित्य दे। उसका ध्येय केवल मात्र इतना ही रह गया है कि कैसे कम से कम समय में अधिक से अधिक धन अर्जित किया जाए। आप देख ही रहे हैं आज के इन धारावाहिकों में कहीं कोई सर्जनात्मक इकाई नहीं है। कहां- कहां की कैसी- कैसी कथाओं  का जोड़ होता है, आप समस्या का समाधान स्पष्ट देख रहे हैं लेकिन एकाएक उसे मोड़ दिया जाता है क्योंकि वह दर्शक रेटिंग में अच्छा चल रहा है और उसे और आगे चलाना है। इस तरह खुल्लेआम दर्शकों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ हो रहा है, सब जानते हैं। इस फांसमफांस में समस्या का समाधान सामने होते हुए भी दर्शकों को उलझा कर प्रस्तोता तो पैसे बटोर रहा है परंतु दर्शक को उसके समाधान की समझ प्राप्त नहीं होती, वह केवल मनोरंजन की लपेट में बंधा चला जाता है।

नवनीत पाण्डे- क्या इसी वजह से आज साहित्य हाशिए पर चला गया है?
रामदरश मिश्र- नहीं ऐसी बात नहीं है लेकिन एक बहुत बड़ी और गंभीर चुनौती साहित्य के सामने अचानक आ गई है। इस प्रक्रिया में चुनौती स्वीकारते हुए साहित्य अपना रूप नहीं बिगाड़ सकता, साहित्य तो साहित्य तभी है जब वह एक सर्जनात्मक ईकाई के रूप में हमारे सामने रहे। जहां वह गुदड़ी बन जाएगा, जोड़तोड़ बन जाएगा वहां साहित्य नहीं रहेगा। उसकी आवश्यकता ही क्या रहेगी? साहित्य की अपनी महत्ता सदैव बनी रहेगी भले ही किसी को यह लगे कि आज साहित्य हाशिए पर चला गया है...........वास्तविकता में ऐसा कुछ भी नहीं है! इस हल्ला-गुल्ला, प्रवाह के बीच अपनी छोटी सी इयत्ता के  बावजूद सुरक्षित रहेगा।(कुछ पल का मौन) हां, आज के संदर्भ में मुझे लगता है कि हम साहित्यकारों को चाहिए कि हम स्वतः ही या किसी चुनौती के नाते अपने लेखन को संप्रेषणीय बनाएं। वह सहज लगे। किसी असंप्रेषणीय, उलझी हुयी रचना के बारे में यह तर्क उचित नहीं है कि यह रचना विशिष्ट है, महान है, इसे अलग ढंग से लिखा है, इसी वजह से सामान्य पाठक इसे समझ नहीं पा रहा है। यह सही नहीं है, अगर तुलसीदास, प्रेमचंद अपनी बात को पाठक तक पहुंचा सकते हैं तो अज्ञेय क्यों नहीं? अच्छा साहित्य वही होता है जो गहन तो हो- जीवन की तमाम गहनता को अपने में समेटे हुए, लेकिन साथ ही संप्रेषणीय भी हो, कहीं कम कहीं अधिक पाठक की ग्रहण करने की पात्रता के अनुसार अपने को खोलता हो। लेकिन कुछ रचनाएं अपने को इस तरह बंद किए रखती हैं कि पाठक के बार-बार कोशिश करने के बावजूद उनका तिलिस्म टूटता ही नहीं है। समझने के प्रयास में पाठक उलझता चला जाता है। कहने का अभिप्राय यही है कि साहित्य को संप्रेषणीय होना चाहिए, हलके होकर नहीं, अपनी पूरी गहनता के साथ। मीडिया की आज की चुनौती को देखते हुए यह और भी अधिक जरूरी और अनिवार्य हो जाता है। हमें सचेत होने की आवश्यकता है, हम ऐसा लिखें जो अधिक से अधिक पढे़-लिखे पाठकों तक पहुंचे। यहां मैं उन पाठकों की बात नहीं कर रहा हूं जो पढते नहीं हैं, या अपढ हैं। जो लोग साहित्य को पढ़ना चाहते हैं, केवल आप का लिखा न समझ पाने की वजह से साहित्य से विमुख हो रहे हैं। उन तक पहुंचिए आप!

नवनीत पाण्डे- इस दृष्टि से आज की हिन्दी कहानी को आप कहां देखते हैं?
रामदरश मिश्र- आज की कहानी की बात हो या कल की कहानी-कविता की बात। यह अलग-अलग  मिज़ाज पर निर्भर करता है। कुछ रचनाकार हमेशा सहज लिखते हैं, कुछ बिल्कुल इसके विपरीत असहज लिखते हैं। आज के कहानीकारों में भी कई हैं जो बहुत प्रयोग-धर्मी होना चाहते हैं। खुद की फैंटेसी की लपेट में पाठक को भी लपेटना चाहते हैं। उनके सिर कुछ आलोचकों का हाथ होने के कारण उनकी वे रचनाएं चर्चा में आ जाती हैं, उन पर प्रायोजित बहसें करायी जाती है। इसके विपरीत दूसरी ओर कुछ ऐसे रचनाकार भी हैं जिनकी रचनाएं पूर्ण सादगी, सरलता और सहजता से अपने परिवेश की बात करती हैं। जहां बात परिवेश की होगी, पूरी गहनता के साथ सादगी से होगी, वहां चीजें पहुंचेगी पाठकों तक।( दृढ़ता से) मैं तो कहूंगा- ‘वही चीजें देर तक टिकती है पाठकों के अंतर्मन में।’ जहां कथ्य ही उलझा हुआ है, कथ्य न होने के बावजूद कथ्य निर्मित किया जा रहा है, मन की परतों को इकठ्ठा कर एक जाल बुना जा रहा है और फिर उस जाल के लिए एक नया शिल्प-जाल और होता है। वहां पाठक बेचारा क्या करेगा?  

नवनीत पाण्डे- जिन रचनाओं-रचनाकारों और आलोचकों की ओर आपका इशारा है, उन पर लगनेवाले आरोप-प्रत्यारोप-चर्चाएं भी क्या इसी तरह चर्चा में बने रहने के लिए प्रायोजित होती हैं, जैसा कि अभी पिछले दिनों उदयप्रकाश की कहानियों के बारे में पढने को मिला? उन पर कहानियां चुराने का आरोप लगाया गया है। एक और बात, क्या एक रचनाकार की गरिमा को शोभा देता है कि वह अपने  अपने प्रतिद्वंदी रचनाकार को अपनी रचना का पात्र बनाकर प्रस्तुत करते हुए स्वयं को नायक और उसे खलनायक के रूप में स्थापित करने का प्रयास करे, जैसा कि किया जा रहा है?
रामदरश मिश्र- (मुस्कराते हुए) आप शायद ‘वारेनहेस्टिंग का सांड’ के बारे में कह रहे हैं।

नवनीत पाण्डे- हां, उसके अलावा अभी ओमेंद्रकुमार सिंह की एक कहानी ‘झूठ की मूठ’ के बारे में भी ऐसा ही कुछ कहा जा रहा है।
रामदरश मिश्र- आपने सही कहा, कमलेश्वर ने भी यह बात उठायी है, चर्चा में तो है ही। दूधनाथ सिंह ने भी एक लंबी कहानी ‘अंधकाराय नमो नमः’ लिखी थी। समकालीन कहानी में ये कहानियां भी हैं, लेकिन ये ही नहीं है, ‘अगर कहीं मैं तोता होता, तोता होता तो क्या होता’ इसी तरह की अन्य पंक्तियों को कोट करते हुए अध्यापक छात्रों को बताते थे कि यही नई कविता है।  अज्ञेय ने लिखा, ‘अल्ला रे अल्ला,..........होता करम कल्ला।’ इसे अगर अज्ञेय की कविता मानकर कोट कर दीजिए तो कैसा लगेगा? ये सब रंग हैं एक खेल के। ये खेल अपने-अपने समय में अपने-अपने ढंग से प्रायःसभी रचनाकारों ने किए हैं। अज्ञेय ने भी ये खेल किए हैं।  कहानियां ऐसी भी लिखीं जा रही हैं जो बड़ी सादी हैं, उन्हें बड़ी संजींदगी से अपने समय की पड़ताल करके लिखा गया है लेकिन  चिंता की बात ये है कि जिन कहानियांे की बात आपने की है, उनकी चर्चा ही की जा रही है। उनकी ही महत्ता की स्थापना की जा रही है। कुछ आलोचक हैं जो ऐसे रचनाकारों के सिर पर छाया किए बैठे रहते हैं जैसे ही कुछ ऐसा होता है,वे सक्रिय हो उठते हैं, यही चिंता की बात है। यही बात कविताओं के संदर्भ में भी है।  
नवनीत पाण्डे- हां, पिछले दिनों एक कविता ‘प्रेम करती हुयी मां’ अचानक ही चर्चा में आ गयी थी?
रामदरश मिश्र- ऐसा पहले भी होता रहा है लेकिन लोगों को नंगा करने की कोशिश आज की कहानियों में दिखायी दे रही है। बदला लेने की इस प्रवृत्ति को सृजन नहीं कहा जा सकता। आप चाहे उसे कितने ही कौशल से प्रस्तुत करें, वह अपनी पोल खोल देगी, खोलती ही है। पोल खुल रही है और जब पोल खुलती है तो ‘उघरे अंत न होहु निबाहू’ वही होता है। जैसा मैंने कहा, ऐसे खेल पहले भी होते रहे हैं। ‘अश्क’ ने ‘अज्ञेय’ पर कहानी लिखी थी पर आज तो ज्यादा ही हो गया हैं ......भड़ास निकालने का यह ढंग  पाठक के साथ भी अन्याय कर रहा है। आप अपनी भड़ास निकालिए लेकिन रचना में क्यों? पाठक ने क्या जुर्म किया है जो आप यह सब उस पर लादे जा रहे हैं। यदि कोई इन बातों की आलोचना करता है तो आप गुस्सा हो जाते हैं। पाठक को अधिकार है अपनी बात कहने का। आप लेखक हैं, आपने लिखा है। आप सुनिए, सहिए पाठक की टिप्पणी को, उसे अन्यथा क्यों लेते हैं। अगर कोई बात असत्य है तो प्रमाणित कीजिए।

नवनीत पाण्डे- साहित्य से इतर एक प्रश्न, कछार गांव से आए बरसों पहले के युवक रामदरश और आज की दिल्ली के रामदरश मिश्र में आप क्या परिवर्तन महसूस करते हैं?
रामदरश मिश्र- (हंसते हुए) यह तो आप महसूस कीजिए!

नवनीत पाण्डे- मेरा मंतव्य है कि उस युवा और इस प्रौढ़ ने अपने जीवन में अब तक ऐसा क्या खोया-पाया है जिसे रेखांकित किया जाना चाहिए?
रामदरश मिश्र- (उसी मुस्कराहट के साथ)मेरी एक गज़ल की एक पंक्ति से शायद आपको अपने इस प्रश्न का उत्तर मिल जाए, ‘ज़मी खेत की साथ लेकर चला था, उगा उस में कोई शहर धीरे-धीरे।(एक अट्टहास)

नवनीत पाण्डे- आपकी अधिकतर कहानियों में जैसे काव्यात्मक भाषा के साथ-साथ ग्रामीण परिवेश  पूरी गहनता के साथ नजदीक से देखने को मिलता है, ठीक वैसे ही आपकी कविताएं भी इससे अछूती नहीं है। संग्रह  पढने का अवसर तो मुझे नहीं मिला लेकिन पत्रिकाओं में प्रकाशित आपकी कविताओं में इस समय मुझे स्मरण आ रही कुछ कविताएं- विरासत, कहां है मंजिल, हंसो मेरे साथ, मेज़ आदि। बरसों से दिल्ली प्रवास के बावजूद इनमें परिवेश कछारवाला ही दिखायी देता है। कहने का तात्पर्य यह कि महानगरीय जीवन जीते कविमन की कविताओं में अभी भी ग्रामीण  जीवन की अनुभूतियां रची-बसी है?
रामदरश मिश्र- इस प्रश्न के उत्तर में मुझे आपके इससे पहले वाले प्रश्न को भी जोड़ना पड़ेगा। जो कछार के रामदरश थे वे कहीं न कहीं आज के रामदरश मिश्र में बहुत गहनता के साथ बने हुए हैं। बचपन की जो जमीन होती है, बड़ी पुख्ता होती है। मैं सोचता हूं जिसकी अपनी कोई ज़मीन नहीं होती, वह बड़ा अभागा होता है। आज तो शहरों में बच्चे पैदा होते हैं, शहरों में मोहल्ले होते हैं, आस-पास के बच्चे होते हैं, सहपाठी होते हैं। फिर कुछ साल बाद पिता का तबादला हो गया तो वहां से चले गए। फिर एक नई  ज़मीन बनती है उनकी, नए मित्र बनते हैं। ऐसी स्थिति में अपनी ज़मीन को पहचान पाना मुश्किल हो जाता है। इस तरह के आवागमन में किसी भी ज़मीन की गहरी स्मृतियां बन नहीं पातीं मानस में। लेकिन जो गांव का आदमी है, खासकर एक संवेदनशील मनवाला गांव का आदमी। उसके मन के भीतर अपना गांव बड़ी शिद्दत के साथ गहरे बसा होता है। कारण यह है कि जीवन की पहचान आप वहीं से शुरू करते हैं, वहीं आपकी आंखें खुलती हैं, वहीं आप पहचानते हैं दूसरी चीजों को, आंगन से बाहर निकलते हैं, खेत की ओर निकलते हैं, स्कूल की ओर निकलते हैं, मेले-हटियों की ओर निकलते हैं, अपने अनुभव का विस्तार करते हैं। धीरे-धीरे क्रमशः जीवन में बनी सम्बन्धों की, चरित्रों की, सुख-दुःखों की ये पहचानें आपके चेतन का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन जाती हैं। बीस-पच्चीस वर्ष की अवस्था तक पहुंचते-पहुंचते अपने भीतर आप अपना एक संसार बना लेते हैं। ये जो बचपन की अनुभूतियां-स्मृतियां हैं, वे आपके भीतर, किसी नॉस्टेलजिया के रूप में नहीं बल्कि जीवन की मूलभूत पहचान के रूप में हमारे बीच होती है। जब भी आप कोई कहानी लिखना चाहते है सम्बंधो की, वे सारे सम्बंध आपके सामने आते हैं जो गांव के लोगों के बीच होते हैं। गांव में आपको हर तरह का चरित्र मिल जाएगा, हर समस्या के साथ, हर अनुभव के साथ, हर रंग के साथ। (स्मृतियों में खोते हुए) उनके साथ आपका अनुभव इतना गहरा होता है कि आपको यह कल्पना करनेे की आवश्यकता नहीं रहती कि इस स्थिति में क्या हो सकता  है? आप घर-घर में झांकते हैं, आर-पार देखते हैं। आपको पता है- किस के घर आज चूल्हा नहीं जला है? किस के चेहरे की हंसी झूठी है? सबसे बड़ी  बात ये है कि गांव आपके लिए एक स्थिति मात्र नहीं होता, वह एक विजन बन जाता है, एक दृष्टिकोण बन जाता है। इसी प्रकार कछार मेरे भीतर रचा-बसा हुआ है। प्रकृति को मैंने उसके विस्तार में, उसके तमाम रंगों में देखा है- जैसे मौसम कैसे आते हैं-जाते हैं, मौसम के साथ आदमी कैसे गाता-हंसता-रोता है, फसलें हंसती हैं, लहलहाती हैं, कटती हैं, नदी बहती है, बाढ़ आती है, लाशें बहती हैं, जानवर बहते हैं, सूखा पड़ता है? और भी न जाने कितने कैसे-कैसे दृश्य? अच्छे, भयकारी दृश्य। मेले-हटिये, लोगों का खाली पेट हंसना, झगड़ा करते हुए भी एक-दूसरे के साथ समरस रहना, लोगों के मरने-जीने, शादी-ब्याह में लोगों का एक साथ एक लय की तरह चलना। यह सब आपके भीतर एक स्थिति के रूप में नहीं बल्कि एक सम्बंध के रूप में, एक दृष्टि के रूप में, एक मूल्य के रूप में होता है। कैसे लोग थे, कितने अच्छे थे? उस गरीबी में भी कितना उल्लास था? ये स्मृतियां आपको फिर से बनाती हैं, आपकी रि-मेकिंग करती हैं, आपके भीतर जो अच्छाइयां हैं, इंसानियत है, उन्हें नया करती हैं। सबसे बड़ी बात यह कि धीरे-धीरे जो शहर उगा है, वह उसी ज़मीन पर उगा है। उसी पर शहर के नए अनुभव उगते चले गए हैं। इस प्रकार गांव की ज़मीन और निरंतर यात्राओं के साथ बनते अनुभव उस ज़मीन से जुड़ते गए और उन नए अनुभवों की जड़ें भी वहीं कहीं हैं। ये अनुभव आधुनिक काल के बनकर कहीं चुक नहीं जाते हैं बल्कि कहीं न कहीं गांव से जुड़कर अपना मूल्यांकन भी करते हैं कि उस दृष्टिकोण, उस परिपेक्ष्य में हम क्या हैं? आधुनिकतावाद आया, अकविता आई, अकहानी आई लेकिन मैं उनके साथ नहीं हो पाया क्योंकि मेरा मानना था कि इनकी अपनी कोई ज़मीन नहीं है। ये सब हवा में उड़कर पश्चिम से आए हैं और कुछ लोगों ने इन्हें अपने गमलों में लगा दिया है। यह देखना जरूरी है कि बाहर से आया वाद हमारे परिवेश में कितना फलीभूत होता है, रूपायित होता है? आज भी मैं जहां रह रहा हूं वहां  उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान से आए मजदूर हैं, रिक्शेवाले हैं। पूरा माहौल-परिवेश लगभग गांव जैसा ही है। रचनाकर्म में मैं हमेशा अपने समय की चेतना के साथ रहा हूं लेकिन परिवेश में रहते हुए। परिवेश से अलग कोई चेतना मुझ तक नहीं आई। हमेशा देखता रहा कि यह जो सिद्धांत आ रहा है, बात आ रही है, कहां दिखायी पड़ रही है? कहां चरितार्थ हो रही है? चरितार्थ होने पर ही इमेज बनती है। आप फैंटेसी के माध्यम से जिन सिद्धांतों को गढ़ रहे हैं वे तो हवाई होते हैं। अपनी कल्पना से इमेज गढ देना अलग बात है और इमेज जन के बीच से उठाना बिल्कुल अलग  बात। यही सब कुछ चलता रहा मेरे साथ.......................
नवनीत पाण्डे- इन दिनों क्या लिख रहे हैं आप?
रामदरश मिश्र- अभी एक कविता मैंने शुरू की है जो ‘कलम’ के बारे में है। मैंने ‘मेज’ के बारे में कविता लिखी। इसी तरह घर की कई चीजों पर कविताएं लिखी जैसे चम्मच, झाड़ू, चाकू, कुर्सी, पंखा आदि पर। मुझे लगा कि ये चीजें हमारी कितनी अपनी हैं, जीवन के साथ इनका कितना जुड़ाव है? और ये हमारे लिए मात्र एक सामान बनकर रह गयीं हैं। उनके साथ हमारी संवेदनाएं कितने गहरे जुड़ी हैं, मैंने महसूस किया और इन पर कविताएं लिखीं। इसी क्रम में एक लंबी कविता भी चल रही है,‘कलम’ पर। इसके अलावा कहानियां, संस्मरणों पर भी कार्य चलता रहता है। स्वास्थ्य के अधिक साथ न दे पाने के कारण गति कुछ धीमी है लेकिन चल रहा है.........................


नवनीत पाण्डे

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