Monday 6 May 2013

साहित्य के पूँजीवाद से कब लड़ेंगे ? - गणेश पाण्डेय



उफ़! बेचारे अज्ञेय... सोचिए जरा.. उस अनंत विलीन में क्या सोच रहे होंगे? अपने शिष्यों और विरोधियों के बीच छिड़ी इस छिछालेदरी महाभारत पर.. अज्ञेय सीआईए  बनाम.. जैसे एक अघोषित मुकदमा हिन्दी साहित्य व वादों के ठेकेदारी हलकों में बिना मुलजिम इल्ज़ाम लगा तथाकथित वकीलों द्वारा लड़ा जा रहा है और सफ़ाइयां दी जा रही हैं यह भूलकर कि  बिना किसी वाद- विवाद एक लेखक होने के नाते एक लेखक के रूप में अज्ञेय जैसे लेखक की वह भी उनके जाने के इतने बरस बाद यूं कुत्ता घसीटी करना शब्द-साधकों के लिए शर्मनाक तो है ही साथ ही विचारणीय भी। हम भी लेखक हैं.. कहीं न कहीं किसी न किसी हित- अहित के साक्षी- सहभागी और कभी- कभी निर्णायक भी होते ही रहते हैं। जैसे आज अज्ञेय के गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं वैसे कल कोई हमारे भी उखाड़े ही गा। मेरे लेखक मित्रो! हमाम में हम सब नंगे हैं। इसलिए मैं तो कहना चाहूंगा  अगर आप में स्वस्थ बहस और शालीन भाषा प्रयोग में लाने का माद्दा नहीं तो ऎसे प्रकरणों को  समाप्त कर दिए जाने में कोई हर्ज़ बुराई नहीं है ऎसा न हो कि कल हमें हमारे लेखक होने पर शर्म आए। 

इस विषय पर आलोचना संज्ञान लेते हुए कवि, कथाकार, आलोचक गणेश पाण्डेय जी ने अपने फ़ेसबुक स्टेट्स में एक बहुत महत्त्वपूर्ण नोट लिखा है जिसमें उन्होंने जो तर्कसंगत मुद्दे उठाए हैं, उन पर हमारे शब्द समाज को गंभीरता से विचार- मंथन कर यह जांचने की जरूरत है कि हम क्या थे, क्या हैं और क्या होंगे अभी? वह नोट बीच बहस के पाठकों के लिए.... (साभार- गणेश पाण्डेय)



साहित्य के पूँजीवाद से कब लड़ेंगे ? - गणेश पाण्डेय


युवामित्रो द्वारा की जा रही एक अखबार के संपादकजी की तीव्र आलोचना ने ध्यान खींचा है। युवा मित्रों के हौसले के साथ हूँ। युवा ही नहीं बल्कि कुछ वरिष्ठ मित्र भी संपादकजी से असहमत हैं। एक मित्र ने अपनी पीड़ा को जरा तल्ख लहजे में रघुवीर सहाय के मुहावरे से ठीक ही कहा कि ऐसे ही रहा तो अमुक अखबार बच्चों के नम्बर दो के लायक रह जाएगा। एक युवामित्र ने  कहा  कि जैसे रोम के जलने पर वहाँ का शासक वंशी बजा रहा था, संपादकजी भी अपनी वंशी में लीन हैं। पता नहीं धुन में या वंशी में या दोनों में या किसी की याद में। एक अशोकजी हैं एक कमलेश जी हैं। ऐसे कई ‘जी’ साहित्य में सक्रिय हैं। यह ‘जी’ एक सामाजिक-सांस्कृतिक (एक अर्थ में राजनीतिक भी) संगठन के लोगों द्वारा अनिवार्य रूप से लगाया जाने वाला आदरसूचक एक विशेष पद है। संबोधन ही नही, कहीं भी उल्लेख करना हो तो रेल के इंजन की तरह श्री लगाने के बाद अंत में गार्ड के डिब्बे की तरह ‘जी’ जरूर लगता है। पर यही ‘जी’ प्रगतिशील मित्रों के हाथ लगते ही सिर्फ और सिर्फ एक औपचारिक आदर बन जाता है। जैसे नामवरजी। हृदय से सम्मान न भी करते हों तो दिखाने के लिए ही सही। हो सकता है कि बहुत से लोग संपादकजी का भी सम्मान सिर्फ दिखाने के लिए ही करते हों या इसलिए कि वे एक अखबार के संपादक हैं, इसलिए। वे संपादक न रहते तो कितने लोग किस तरह सम्मान करते, यह एक अलग विषय है। पर विनम्रतापूर्वक यह जरूर कहूँगा कि तब लोग उनके लिखे को देखकर करते। अशोकजी का न चाहते हुए भी लोग सम्मान इसलिए करते हैं कि उन्होंने बकौलखुद हजार से अधिक कविताएँ लिखी हैं, जैसे तेंदुलकर ने कई हजार रन बनाए हैं। वे एक बड़े अफसर थे, कई साहित्यिक संस्थाओं के प्रधान थे। पर क्या अपने समय के और अपने आसपास के लेखकों में उनका काम सबसे अच्छा है ? वे जितनी जगह घेरते हैं, सचमुच उतनी जगह के अधिकारी हैं ? मैं बहुत छोटा आदमी हूँ, बड़े संकोच के साथ यह कह रहा हूँ। पर जब कोई साहित्य की एक चली हुई दुकान हो जाएगा तो कुछ लोग तो उस दुकान के साथ रहेंगे ही। दरअसल साहित्य में ऐसी कई दुकानें हैं। सिर्फ अशोकजी ही क्यों , दो और भी हैं। 
                कुछ लेखक संगठन भी दुकान ही हैं। जब मैं दुकान कह रहा हूँ तो उन्हें छोटा नहीं बना रहा हँू बल्कि यह कह रहा हूँ कि जैसे दुकान अपने फायदे की बात सोचती है, इसी तरह यह लोग भी अपनी दुकान के फायदे की बात सोचते हैं। साहित्य में दोनों तरफ यही दुकानदारी है। खरीदने और बेचने का काम एक जैसा चलता है। संपादकजी भी किसी दुकान के से जुड़ गये हों तो कुछ गलत नहीं। आज देश की राजनीति में ही नहीं, साहित्य के देश में भी दबंगों और गिरोहोे का बोलबाला है। वहाँ लालबत्ती है तो यहाँ भी लालबत्ती बँटती है। सारा लफड़ा ही लालबत्ती का है। आप अगर किसी गिरोह में नहीं होंगे तो आपको पूछेगा कौन ? अकेले रहने का साहस जिसके भी पास नहीं होगा, वह इसी तरह के दरबारों के रत्न और उपरत्न बनने की कोशिश करेगा। मित्रो, मैं किसी का व्यक्तिगत रूप से असम्मान नहीं कर रहा हूँ बल्कि इस खतरनाक प्रवृत्ति की ओर इशारा कर रहा हूँ।   कई बार कह चुका हूँ कि यह गिरोहबंदी साहित्य के लिए नुकसानदेह है। इस गिरोहबंदी को बढ़ावा देने वाली चीजों में पुरस्कार और चर्चा है। कम काम करके भी अधिक मान-सम्मान पाने की लालसा भी पूँजीवादी सोच ही है। गैरवाम के लोग यह करें तो कह सकते हैं कि उनका रास्ता ही दूसरा है, हालांकि गलत वह भी है, पर वाम के लोग करते हैं तो हजार गुना अधिक गलत है। जब तक यह सब रहेगा तब तक एक नहीं हजार कमलेश आयेंगे-जायेंगे, हजार आजपेयी-वाजपेयी आते-जाते रहेंगे। मुद्दा सिर्फ सीआईए को मानवता के लिए जादू की छड़ी मानने का होगा या सीआईए के विरोध तक सीमित रहेगा तो साहित्य के जरूरी संघर्ष का मुद्दा कभी केंद्र में नहीं आएगा। आज साहित्य में सबसे बड़ा खतरा साहित्य के पूँजीवाद से है। पूँजीवादी संस्कृति से है। ठीक है कि आप सीआईए को मानवता के लिए वरदान मानने वालों की जमकर आलोचना करें। चोट पर चोट करें। पर यह साहित्य में कुछ बदलाव लाने वाली कोई निर्णायक लड़ाई नहीं हो सकती है। कुछ और भी सोचना होगा।     
               आज बड़े-बड़े संपादकजी लोग डरते हैं कि फलाना जी नाराज हो जाएंगे, इसलिए इसके साथ न दिखो, उसके साथ न रहो, यह न करो, वह न करो या कुछ लोग विरोध वहाँ करेंगे जहाँ पुरस्कार खोने का डर नहीं होगा तो इस तरह के डर हमेशा नुकसान साहित्य का ही करेंगे। एक संपादक चाहे जितना शक्तिशाली हो जाय, यदि उसके पास साहस नहीं है तो वह दो कौड़ी का है। एक लेखक चाहे जितना शोर मचाए लेकिन उसके पास पुरस्स्कर और चर्चा के भ्रष्ट पथ को तजने का साहस नहीं है तो उसकी सारी खुद की या सांगठनिक ताकत भी दो कौड़ी की है। असल बात सिर्फ साहस का है। साहस ही शक्ति की खोज करता है, शक्ति अर्जित करता है। शक्ति से साहस नहीं पैदा होता। जोड़तोड़ और तिकड़म में लगे हुए लेखक-संपादक साहित्य की इन मुश्किलों पर ध्यान देंगे तो साहित्य का भला होगा। पर यह तब होगा जब आप अपना नहीं, साहित्य का भला करना चाहेंगे। कहना यह है संपादकजी और उनसे भिड़ने वाले मित्र अ शोकजी और क मलेशजी के विवाद से आगे बढ़े। साहित्य की जरूरी लड़ाई तक पहुँचें। साहित्य का धंधा करने वाली सभी संस्थाओं और संगठनों और लेखकों का विरोध करें। जैसे संसद में दागी लोग पहुँच जाते हैं, उसी तरह साहित्य की संसदों में दागी और फर्जी लेखक पहुँच जाते हैं। जैसे कई पत्रकार दूसरे रास्ते से संसद में पहुँच जाते हैं, उसी तरह कुछ पत्रकार भी साहित्य की संसद में पहुँचने के लिए दूसरे रास्ते का इस्तेमाल करते हैं।      
                जरूरत आज इस बात की ज्यादा है कि साहित्य की सभी संस्थाओं को भ्रष्टाचार मुक्त करने, उसे अधिक लोकतांत्रिक, अधिक पारदर्शी बनाने के लिए काम करें। वैसे यह सिर्फ एक मामूली विचार है, जरूरी नहीं लोग जिस वाद-विवाद में लगें हुए हैं उससे आगे बढ़कर ऐसा कुछ सोचें या करें। मैं तो ऐसे ही कहता रहता हूँ।

गणेश पाण्डेय