Sunday 18 August 2013

तो असल बात और पीड़ाएं ये हैं (संदर्भ राजस्थानी साहित्य अकादमी पुरस्कार विवाद)

तो असल बात और पीड़ाएं ये हैं (संदर्भ राजस्थानी साहित्य अकादमी पुरस्कार विवाद)

"कुछ नहीं, यह उन चंद लोगों की हताशा, निराशा है जिनके स्वार्थ, हितों की मंशा और मंसूबे अपनी झोलियां भर लेने के बाद भी और बहुत कुछ बटोर लेने के बाद भी आधे- अधूरे रह गए लगते हैं, यह राजस्थान साहित्य जगत और राजस्थानी रचनाकारों को शर्मसार करनेवाली वैचारिक निम्नता है और इसे जातीयता का रंग देना तो उस शब्द के साथ कृतघ्नता भी जिसके रचाव का ऎसे लोग प्रगतिशील होने का दम भरते हैं। 
               लगभग बीस बरसों केंद्रीय साहित्य अकादमी में काबिज़ श्वसुर, दामाद और उनके सरस्वती मानस पुत्र (जिनके लेखन के बारे में उनके घनिष्टतम साहित्यकार मित्र ने भरे मंच से कहा था ’इनका पता ही नहीं चलता ये किस भाषा के लेखक हैं और उन्हें अनुवादक रचनाकार के तमगे से नवाज़ा था) व उनकी सरपरस्ती में पलनेवालों की वर्चस्वता, सत्ता हाथ से निकल जाना उस समय ये नैतिकताएं, ईमानदारियां कहां थी जब इनके काल में (1) ऎसे राजस्थानी साहित्यकार अचानक अवतरित किए जिनकी जानकारी राजस्थानी साहित्य जगत और राजस्थानी के लेखकों को केंद्रीय साहित्य अकादमी से उस लेखक के नाम पुरस्कार घोषित होने पर ही पता चला.. सब ने आश्चर्य किया था..अरे! ये राजस्थानी के लेखक हैं, पहले कभी देखा- सुना तो नहीं। (2) ऎसी कृति को पुस्कार दिया गया जो एक वर्ष तो उस विधा में निर्णायक मंडल द्वारा उस विधा में खारिज़ कर दी गई लेकिन दूसरे वर्ष चूंकि कृति को नहीं, कृतिकार को पुरस्कृत करना था, उसी कृति को उसी विधा में पुरस्कार दिला दिया गया|"
जिन वरिष्ठ और युवा प्रतिभावान, योग्य रचनाकारों के चित्र दूलाराम सहारण पुरस्कार वंचितों का डॉयलॉग लगा फ़ेसबुक पर चस्पां कर राजनीतिज्ञों की तरह भावनात्मक सुहानुभूति बटोरने की कुचेष्टा कर रहे हैं, (चूंकि ये राजनैतिक पृष्ठभूमि से साहित्य के मैदान में आए हैं, इन से ऎसी अपेक्षा करना कोई आश्चर्य नहीं) ये प्रतिभाएं आज पैदा नहीं हुई, ये उस वक्त भी थीं, जब केंद्रीय साहित्य अकादमी में आप राजस्थानी के प्रतिनिधि थे तब आप के ये सच कहां थे, ये ईमानदारीयां और नैतिकताएं कहां छुपी थीं...राजस्थानी में कहावत है पूत के पग पालने दिखते हैं सो दूलाराम जी की अप्रतिम, विलक्षण प्रतिभा को केंद्रीय साहित्य अकादमी में दामाद, सरस्वती मानस पुत्र ने तुरंत पहचानते हुए मात्र एक महाविद्यालयी पुरस्कार की बिना पर उन्हें बरसों से राजस्थानी कलम घिस रहे राजस्थानी रचनाकारों पर वरीयता देते हुए न केवल राजस्थानी परामर्श मंडल में स्थान दिया, राजस्थानी भाषा का पहला  युवा पुरस्कार भी झोली में डाल कर इतिहास रच दिया। धन्य आपकी नैतिकताएं! धन्य आपकी ईमानदारियां!
                  समय परिवर्तनशील है, और एक स्वस्थ मन को इसे सहज भाव से स्वीकारने में कभी कोई संकोच, मलाल नहीं होना चाहिए.. ये सारी विकृतियां तभी उजागर होती हैं या की जाती है जब आप इसे स्वीकार नहीं करते। बीस- पच्चीस बरसों तक राजस्थानी साहित्य में केंद्रीय साहित्य में जो  होता रहा है, राजस्थानी में कलम चलानेवाले इससे अनजान नहीं है। जो हुआ, सब ने देखा है, जब- तब अपना विरोध भी जताया है और अब और आगे भी कुछ गलत होगा तो सच्ची कलम चुप नहीं रहनेवाली..पर ऎसे, इस निम्नता और मर्यादाएं लांघने की हद तक तो कतई नहीं... पुरस्कारों से कोई लेखक नहीं बनता, बनाता वरन अधिकतर तो यही देखा गया है कि पुरस्कारों नें लेखन का क्षरण ही किया है इसलिए ऎसे मामलों को वही लोग तूल देते हैं और गंभीरता से लेते हैं जिनके कुछ न कुछ हित, स्वार्थ पूरे होने से रह जाते हैं या सिध्द होने के बावजूद पेट नहीं भरते हैं। सच्चा रचनाकार तो अपने रचनाकर्म में ही रमा रहता है, पुरस्कारों-सम्मानों  की राजनैतिक और सैंटिगों से एकदम अनजान और परे। मिल गया तो वाह! नहीं मिला तो वाह! हां, पुरस्कारों- सम्मानों के सच, कहानियां सामने आने पर अचंभित होते हुए दुख जरूर महसूस करता है शब्द और शब्दकारों के चरित्र में होते ये क्षरण देख..अरे! ऎसा भी होता है! ऎसा कैसे हो गया?

ये उदगार मेरे नहीं राजस्थान के विभिन्न रचनाकारों से हुई सत्रों के बीच हुई अनौपचारिक बातचीत- चर्चा में थे जो राजस्थानी लोक साहित्य और संस्कृति पर केंद्रीय दो दिवसीय अकादमिक आयोजन में बीकानेर आए थे। अधिकतर वरिष्ठ रचनाकार सोशल मीडीया से जुड़े नहीं हैं लेकिन मीडीया जुड़े लेखकों से उन्हें समाचार सारे मिल रहे हैं और वे आश्चर्य चकित हैं.और इस सारी कहानी और प्रकरण पर एक वरीष्ठ रचनाकार ने हंसते हुए  बहुत ही कम शब्दों में एक राजस्थानी और एक हिन्दी कहावत में चुटकी ली, आप व्यासजी बैंगण खावै, दूजां परहेज बतावै... नौ सौ चूहे खा के बिल्ली हज़ को चली.....
  पुरस्कार विवाद में फ़ेसबुक पर झूठी वाह-वाही लूटनेवाले और शब्द की गरिमा से खेलनेवाले और उसे जातिवादी रंग देनेवाले और केंद्रीय साहित्य अकादमी  लगभग बीस- बाइस बरसों से राजस्थानी की ठेकेदारी संभाले हुए बताएं कि सन 1974 से 2012 तक के 39 उनतालीस बरसों में उन्होंने कितने सर्वहारा वर्ग के रचनाकारों को सम्मानित कराया.. इस सूची में सिर्फ़ एक अल्प संख्यक है और दलित तो एक भी नहीं  जब आप एक अंगुली किसी दूसरे की ओर उठाते हैं  बाकी अंगुलियों की दिशा देख लीजिया कीजिए। आप फ़ेसबुक पर जैसी सूचीयां जारी कर रहे हैं, उससे भी खतरनाक सूचीयां  केंद्रीय साहित्य अकादमी द्वारा अनादरित उन महान विभूतियों की है जहां राजस्थानी के नाम पर अपनी रोटीयां सेंकने वालों द्वारा अधिकतर उन्हें दुशाले ओढाए जाते रहे हैं जो इन  अनादरित व वंचित महान विभूतियों के कद के समक्ष कहीं नहीं ठहरते थे, क्यों कि सब अंदर के मामले थे। 

 राजस्थानी के इन सिरमौर रचनाकारों  पर  नज़रें इनायत नहीं हो सकी सिर्फ़ इसलिए कि वे  दरबारी नहीं बने और न ही कभी इसकी जरूरत समझी क्योंकि इनका लेखन सब पुरस्कारों से बड़ा था और है।
बरसों से सृजनरत राजस्थानी के ये वरिष्ठ रचनाकार पिछले बीस बरसों से केंद्रीय साहित्य अकादमी में राजस्थानी के कोकस से सैटिंग, समीकरण न बैठा पाने का फ़ल भुगत रहे हैं सबसे पहले लक्ष्मीकुमारी चूड़ावत (1984 में पदमश्री व अभी हाल ही में राजस्थान रत्न से सम्मानित), बैजनाथ पंवार, जहूर खां मेहर, रामस्वरूप किसान, मीठेश निर्मोही, भंवरलाल’भ्रमर’, ओम पुरोहित ’कागद’, पारस अरोड़ा, अस्त अली मलकान, माधव नागदा, श्याम जांगिड़, नागराज शर्मा, ओंकार श्री, तेजसिंह जोधा, भवानीशंकर व्यास’विनोद’, राम निवास शर्मा, कैलाश मंडेला, अंबिकादत्त, डा. किरण नाहटा, मदन केवलिया, हनुमान दीक्षित, देवकिशन राजपुरोहित, डा. मदन सैनी, बुलाकी शर्मा, बी.एल.माळी’अशांत’, कानदान कल्पित, डा.सत्यनारायण सोनी, ज़ेबा रशीद, मेहरचंद धामू, डा.नीरज दइया, रवि पुरोहित, दुष्यंत, डा. राजेश कुमार व्यास, मधुकर गौड़,  मनोज स्वामी, श्रीभगवान सैनी, पूरन शर्मा ’पूर्ण’, श्रीलाल जोशी, सूरजसिंह पंवार, पुष्पलता कश्यप, चांदकौर जोशी, शारदा कृष्ण, लीला मोदी के अलावा भी बहुत से ऎसे नाम हैं जिन्हें दुलाराम जी के शब्दों में कहें तो पुरस्कार के बिना भी इनकी लेखकीय ऊर्जा से राजस्थानी के पाठक अच्छी तरह से परिचित हैं।

                   यहां उन विलक्षण प्रतिभाओं का जिक्र भी प्रासंगिक होगा जो  केंद्रीय अकादमी के पुरस्कारों से ही अवतरित हुईं जिन में से कुछ के लेखक होने का पता तो उनके नाम पुरस्कार घोषणा से ही चला और कुछ की ऎसी कोई राजस्थानी कृति ही नहीं थी जिसका कि उल्लेख किया जा सके।

वे जो उपेक्षा और प्रतीक्षा में दिवंगत हो गए..
जनकवि हरीश भादानी, नानूराम संस्कर्ता, मोहम्मद सदीक, धनंजय वर्मा, निर्मोही व्यास, कन्हैयालाल भाटी, दुर्गेश आदि


और अंत में एक मित्रवत आग्रह - 

परम आदरणीय पद्मश्री, राजस्थान रत्न श्री विजयदान देथा हमारे राजस्थान और राजस्थानी के ही नहीं अपितु पूरे राष्ट्र के साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहर हैं अपने स्वर्णिम समय में उन्होंने जो किया, जैसे किया उसे किनारे रख दें तब भी यह सच है कि उन्होंने अपनी अप्रतिम भाषा, शिल्प और शैली में संपूर्ण राजस्थान के विभिन्न अंचलों में अपनी मेहनत और जीवटता से राजस्थानी लोक कथा संग्रह का ऎतिहासिक कार्य किया है जो कि हर नए राजस्थानी युवा हस्ताक्षर के लिए मिसाल ही नहीं, प्रेरणा स्रोत भी रहेगा, आज साहित्य में लेखकों की बाढ और पाठकों का अकाल का संकट समय है और एक- रचना लिख मारने के बाद आत्ममुग्ध हुआ जा रहा है। बिज्जी एक उदाहरण हैं.. ऎसे व्यक्तित्व को इस तरह,  इतना दीन-हीन की तरह प्रस्तुत करना निंदनीय और सर्वथा बिज्जी के उस स्वभाव के विपरीत है जिससे उन्हें जानने व पढनेवाले भलीभांति परिचित हैं। शेर बुढा जाने पर भी शेर ही होता है। अस्तु! 

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