Monday 25 March 2013

कहानी दिशाहीन कलम की अणचींती लिखत¹ - रामस्वरूप किसान

रामस्वरूप किसान

राजस्थान के छोटे से जिले हनुमानगढ के नोहर कस्बे के छोटा सा गांव-देहात परलीका अब एक अंतर्राष्ट्रीय पहचान पा चुका है और इसे यह पहचान दिलायी है यहां से डा. सत्यनारायण सोनी और रामस्वरूप किसान के संपादन में निकलनेवाली राजस्थानी त्रैमासिक   कथा पत्रिका ’कथेसर’ ने।  हजार के लगभग जनसंख्या वाले इस गांव ने राजस्थानी साहित्य को कई युवा और प्रतिभावान रचनाकार देने के साथ ही एक ऎसा रचनाकार-संपादक भी दिया है जिसकी अकादमिक शिक्षा को देखते हुए विश्वास करना कठिन लगता है कि पेशे से साठ-पार यह किसान ऎसी विलक्षण प्रतिभा का धनी है, यह नाम है रामस्वरूप किसान। राजस्थानी के समर्थ कवि, अनुवादक व कहानीकार । साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित। अब तक आठ पुस्तकें प्रकाशित। रचनाओं के अंग्रेजी, हिंदी, पंजाबी, तमिल, तेलुगु, मलयालम और मराठी भासाओं में अनुवाद भी हुए हैं । रामस्वरूप किसान और राजस्थानी के प्रख्यात कथाकार डा.सत्यनारायण सोनी  ने अपने संपादन में  ’कथेसर’ जैसी कथा त्रैमासिक देकर राजस्थानी साहित्यिक पत्रकारिता में एक नई ऊर्जा का संचार किया है। कथेसर के ताज़ा अंक में रामस्वरूप किसान ने कहानी को लेकर जो संपादकीय लिखा है, वह इसलिए बेजोड़ है कि वह कहानी के मुहावरे, परिभाषा को एक नई दृष्टि से जानने, समझने को प्रेरित करता है। ’बीच बहस’ में उस संपादकीय का भावानुवाद सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत है।


कहानी दिशाहीन कलम की अणचींती लिखत¹


कहानी लिखने के अनेकानेक तरीके हो सकते हैं। किसी विधा के सृजन का एक सर्वमान्य तरीका खोजना कठिन ही नहीं असंभव है लेकिन फ़िर भी किसी अनगढ वस्तु को गढ़ने के लिए कोई न कोई सही तरीका जरूर होता है। जिससे वह वस्तु एक नायाब वस्तु बन जाती है। कुछ ऎसी सृजन प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई कहानी बेजोड़ कहानी बन जाती है। 
कहानी दिशाहीन कलम का बैगर सोचा-समझा लेखन है। यहां दिशाहीन कलम से  मेरा तात्पर्य कहानी के कलम के इशारे पर न चलकर कलम को अपने इशारे पर चलाने से है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो कहानी के इशारे पर कलम चले न कि कलम के इशारे कहानी। कहानी भटकी हुयी कलम की मंजिल है। जैसे चौंधियाया हुआ व्यक्ति अजीब परेशानी में अज़ीब जगह पहुंच जाता है । उसका ये अजीब ही कहानी है। ये चौंधियाना सायास नहीं अनायास होता है। चलने से पहले सारा सफ़र और मंजिल उसकी आंखों में होती है। फ़िर लेखक के मन ऎसा तूफ़ान आता है कि उसके भंवर में फ़ंस उसका एक-एक कदम अगली दिशा में उठने लगता है। और अंतत्वोगत्वा उसे एक अलग ही मंजिल पर पहुंचा देता है जहां उसके पास एक आश्चर्य और रोमांच के सिवा कुछ भी नहीं होता। ये आश्चर्य और रोमांच ही कहानीपन है। इस तरह कहानी एक ऎसा सफ़र है जिसकी मंजिल पहले से तय नहीं होती। हां, कहानीकार के मन पहले से एक कहानी जरूर होती है पर वह कलम की हद में नहीं आ पाती। इसे कलम की हद में लाने की जिद कहानी को  अवांछित विवरणों और ब्यौरों से भर उसे महज़ एक दस्तावेजी या अखबारी रिपोर्ट बना डालती है। 
मैं यहां एक अच्छी कहानी के बारे में बात करना चाहता हूं जिसका सृजन एक अद्भुत प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में जब कोई कहानीकार कागज़ पर अपनी कलम चलाता है तो सबसे पहले सोची हुयी कहानी ही उसके अवचेतन में होती है। और उसका चेतन मन कहानी को अपनी राह ले चल पड़ता है। यहां कहानी और मन ऎसे एकमेक हो जाते हैं कि यह जानना कठिन हो जाता है कि मन कहानी कह रहा है या कहानी मन को। हां, एक बात साफ़ है कि श्रेष्ठ कहानी मन के मार्ग से होकर ही कहानी बन पाती है। उससे वांछित चीजों की मांग करते हुए अनिश्चय कें भंवर डोलती-डोलती खुद की मंजिल हासिल करती है। इन सारी प्रक्रियाओं में अवचेतन में फ़ीड पहले से मौजुद कहानी उत्प्रेरण का काम करती है।  वह अवचेतन का खिलौना बन चेतन मन में उत्साह जागृत करती रहती है। उसे भटकने से बचाती है। यही कहानी की संश्लेषण प्रक्रिया है जिसके माध्यम से सृजित  कहानी ही एक बड़ी और स्मरणीय कहानी हो पाती है। बाकी अधिकतर कहानीकार तो आदि और अंत के बीच जो भरा जा सके भरकर कहानी लिख मारते हैं।
कहानी इस सूत्र से नहीं लिखी जाती कि इसमें क्या-क्या लिखना, रखना है बल्कि इस सूत्र से रची जाती है कि इस में क्या-क्या अपने आप ही आ गया है। कहानीकार का यह अनिश्चय ही पहले से तयशुदा सोची हुयी कहानी में होता है। 
सभी विधाओं में कोई न कोई कहानी होती है लेकिन कहानी में किसी अन्य विधा की अंशमात्र घुसपैठ ही उसे कमज़ोर बना डालती है। कहानी तो जीरे की खेती है जिसमें जरा भी चूक फ़सल खराब कर देती है। जैसे कविता का अंश कहानी की संवेदना को आहत करता है। कविता का मूल तत्त्व भाव, कल्पना होने के कारण कविता  की अलंकृत भाषा कहानी की भाषा नहीं हो सकती जबकि कहानी का मूल तत्त्व यथार्थ, तथ्यों पर आधारित होता है। दोनों ही एक-दूसरे के विरोधी। नाटक की मिलावट से कहानी में व्यंग्य  प्रहसन हो जाने के खतरे रहते हैं तो निबंध से कहानी वर्णन और विवरणों का पुलिंदा मात्र बन कर रह जाती है और औपन्यासिक विस्तार से कहानी के राम-कहानी हो जाती है। 
सारांश में कहूं तो मेरी दृष्टि में कहानी एक संवेदना की टकसाल है जिसमें विषय और कथावस्तु का मात्र उतना ही रोल होता है जितना किसी कला-चित्र में कैनवास का। कह सकते हैं कि विषय-वस्तु केवल  एक माध्यम भर है कहानी कहने का। कहानी के कुछ समीक्षक जहां कहानी के विषय को समीक्षा का महत्त्वपूर्ण कसौटी मानते हैं तो कुछ वस्तु को और कुछ कहानीकार द्वारा उस विषय-वस्तु को कहानी के रूप देने वाली भाषा, शिल्प- शैली आदि औज़ारों को। (साभार-कथेसर)
- रामस्वरूप किसान
संपादक , कथेसर(राजस्थानी त्रैमासिकी)

1 बिना पूर्वानुमान का लेखन

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