Thursday, 26 June 2014

बेचारा पाठक! (संदर्भ अखिलेश का नया उपन्यास ’निर्वासन’) - नवनीत पाण्डे

 बेचारा पाठक! (संदर्भ अखिलेश का नया उपन्यास ’निर्वासन’) - नवनीत पाण्डे



मामला बिल्कुल ताज़ा ताज़ा है...हमारे समय के महत्त्वपूर्ण कथाकार अखिलेश के नए उपन्यास ’निर्वासन’ पर एक ही दिन में हिन्दी के दो दिग्गज आलोचकों के विरोधाभासी वक्तव्य हमारी आलोचना के दो चेहरे हमारे सामने रखते हैं। सवाल ये है कि पाठक क्या करे क्यों कि यह आकलन इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि मामला पाठक की जेब से छ सौ रुपए निकलवाने  का है। शायद ऎसे ही कारण और उदाहरणों ने आलोचक- आलोचना को संदेहों के घेरे ला खड़ा किया है। इससे यह भी प्रमाणित होता है कि आलोचक भी आलोचक होने से पहले एक पाठक ही होता है जिसकी अपनी पसंद नापसंद होती है.. कोई रचना किसी के लिए दो कौड़ी की तो किसी के लिए अमूल्य और महत्त्वपूर्ण हो सकती है। 

Prabhat Ranjan
June 22 · Edited
प्रकाशक द्वारा लखटकिया पुरस्कार के ठप्पे के बावजूद अखिलेश का उपन्यास 'निर्वासन' प्रभावित नहीं कर पाया. कई बार पढने की कोशिश की लेकिन पूरा नहीं कर पाया. महज विचार के आधार पर किसी उपन्यास को अच्छा नहीं कहा जा सकता है. साहित्य भाषा के कलात्मक प्रयोग की विधा है. 'निर्वासन' की भाषा उखड़ी-उखड़ी है. 'पोलिटिकली करेक्ट' लिखना हमेशा 'साहित्यिक करेक्ट' लिखना नहीं होता है. सॉरी अखिलेश! एक जमाने में आपको पढ़कर लिखना सीखा. लेकिन आज यही कहता हूँ- आप चुक गए हैं! (और हाँ! एक बात और, 349 पृष्ठों के इस उपन्यास की कीमत 600 रुपये? क्या यह किताब सिर्फ पुस्तकालयों के गोदामों के लिए ही है, पाठकों के लिए नहीं)

Virendra Yadav
June 22 · Edited
अखिलेश का उपन्यास 'निर्वासन' इन दिनों पढ़ा .सचमुच यह उपन्यास -अपनी समग्रता में अपने समय के सम्पूर्ण यथार्थ का उपन्यास है . यह उपन्यास जिस तरह पश्चिमी आधुनिकता और दिशाविहीन अंधविकास का क्रिटिक प्रस्तुत करता है वह कई नवीनताओं को लिए हुए है . जिन दिनों विकास की डोर पर जीडीपी की पतंग लहराई जा रही हो और विकास माडल के नाम पर सत्ताएं बन-बिगड़ रही हों, इस उपन्यास में अन्तर्निहित विकास बनाम विनाश का विमर्श स्वयमेव नयी अर्थवत्ता ग्रहण कर लेता है . हाल के वर्षों में हिंदी के अधिकांश उपन्यास इन अर्थों में सीमित यथार्थ के उपन्यास रहे हैं कि इनमें किसी एक कालावधि ,विशेष मुद्दे ,प्रवृत्ति या विमर्श की केन्द्रीयता रही है . लेकिन ‘निर्वासन’ एक साथ सवर्ण पितृसत्ता, कुलीनता और उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रत्याख्यान है. अखिलेश का यह उपन्यास दलित हरहू राम से लेकर अमरीका पांडे और गाँव गोसाईंगंज से लेकर महानगरीय यथार्थ का जिस तरह से विस्तार लिए हुए है वह एक साथ स्थानिक और वैश्वीकृत है. अच्छा यह है कि बेदखलियों की यह कथा रोजमर्रा के अनुभवों, अपने इर्दगिर्द मौजूद जीते जागते लोगों , घर-परिवार के घात-प्रतिघातों और बदलते समय के पदचापों को सुनते हुए जिस तरह से रची-बुनी गयी है वह अलग और नयी है . अर्थहीनता को अर्थ देते , उपस्थित में अनुपस्थित को लक्ष्य करते और भोगवाद का प्रतिपक्ष पेश करते हुए अखिलेश का यह औपन्यासिक हस्तक्षेप लेखक की सामाजिक भूमिका का भी निर्वहन है . कहना न होगा कि ‘निर्वासन’ इस दौर के उपन्यासों में एक महत्वपूर्ण और स्वागतयोग्य उपलब्द्धि है.

Maitreyi Pushpa

इन दिनों ! प्रिय रचनाकारों !
तय करो कि तुम पाठकों के लिए लिखते हो या समीक्षक / आलोचकों के लये ?कबीर की मिसाल सामने है जिसने समाज के लिए कहा। तुलसी के लेखन की समीक्षा किसने की ?प्रेमचंद ,निराला और रेणु को जिन्होंने पहले ही हल्ला पटक लिया ,बाद में दांत निपोरते फिरे। इन दिनों समीक्षकों की योग्यता क्या है , दोस्ती और दुश्मनी की दलबन्दी। पाठकों में यह दुर्गुण नहीं होता । दोस्त समीक्षक पीठ ठोकें और पाठक अपना माथा पीटें तो हमारी रचना की जगह कूड़ेदान में होनी चाहिए।

मैं मैत्रेयी जी के विचारों से सहमत हूं, लेखकों को समीक्षकों- आलोचकों से अधिक अपने पाठकों पर भरोसा करना चाहिए और उन्हीं से सीधा संवाद स्थापित करने का ध्येय रखना चाहिए क्योंकि मेरी दृष्टि में रचना वह हाथी हैं जिस में रचित उत्स-मर्म का हर पाठक अपने- अपने अंध-स्पर्श (पाठकीय क्षमता) से दर्शन करता है, आलोचक भी आलोचक से पहले पाठक ही होता है। 

- नवनीत पाण्डे


Wednesday, 25 June 2014

प्रार्थना में हिंसा – नील कमल

मित्रो बीच बहस में  आज प्रस्तुत है मठाधीशी- आलोचना, पुरस्कारों पर उठ रही अंगुलियों व सवालों पर युवा कवि नील कमल का एक धारदार व्यंग्य आलेख 

प्रार्थना में हिंसा – नील कमल

      समाज में हर युग में खल शक्तियां रही आई हैं । भाषा और साहित्य भी समाज का ही अभिन्न हिस्सा है । लाजमी है कि यह खल शक्तियों से अछूता नहीं रह सकता । शुभ और अशुभ का द्वंद्व बहुत पुराना है । मनुष्यता के हित में जो है वही शुभ है,  अच्छा है,  भला है । जो मनुष्यता का अहित करने वाला है वह अशुभ है, बुरा है, खराब है । असुर तमाम खल शक्तियों का ही रूप है । सुर शुभ शक्तियों का प्रतीक है । बहुत से लोग असुर शब्द सुनते ही भड़क जाते हैं । क्यों ? क्योंकि असुर एक जनजाति है । मेरी उन तमाम मित्रों के तर्क के साथ पूरी सहानुभूति है । और करबद्ध निवेदन भी है कि असुर शब्द को वहीं तक संकुचित न करें । मैं बिना किसी पूर्वग्रह के तमाम खल और अशुभ शक्तियों के लिए असुर शब्द का प्रयोग करने की अनुमति चाहता हूँ ।
       मुझे इस बात का ज्ञान है कि असुर जनजातियों को खनिज से लौह धातु बनाने का तरीका मालूम था । आज भी वे बहुत कठिन जीवन गुजारते हैं । उनकी अवमानना का कोई उद्देश्य नहीं । लेकिन समाज में बुरी शक्तियों के लिए असुर शब्द का प्रयोग कोई नई परिघटना नहीं है । महिषासुर वध की कथा भारतीय सन्दर्भों में सभी जानते हैं । बंगाल में तो दुर्गापूजा के पंडालों में महिषासुर-मर्दिनी देवी दुर्गा की पूजा को सांस्कृतिक उत्सव के रूप में मनाने की लम्बी और ऐतिहासिक परम्परा रही है । और पूरी विनम्रता के साथ कहना चाहूँगा कि तीन दशक से भी लम्बे समय के शासन में किसी कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी ने भी इस सांस्कृतिक प्रतीक का विरोध कभी किया हो याद नहीं आता ।
      खल शक्तियों का समाज में होना शुभ नहीं है । शुभ होता तो दुनिया में इतने युद्ध न लड़े जाते । मनुष्य जब अशुभ शक्तियों को लड़ कर परास्त नहीं कर पाता तब वह इनके अंत के लिए प्रार्थना करता है । पूंजीवाद से लड़कर जब हम जीत नहीं पा रहे तब उसके सर्वनाश की कामना तो करते ही हैं । कामना क्या करते हैं,  हम तो सड़कों पर उतर कर नारे भी लगाते हैं । साम्राज्यवाद हो या पूंजीवाद इनके अंत के लिए की गई प्रार्थनाएं मेरे लिए पवित्र रही हैं । अब यदि किन्हीं कारणों से इन शक्तियों को मैं महिषासुर नाम दूँ तो किसी के पेट में दर्द क्यों उठना चाहिए भला ?
      एक बार दुर्गापूजा के समय कलकत्ता के पूजा मंडपों से लौट कर मैंने मित्र को बताया कि मैंने देवी दुर्गा से हिन्दी के तमाम महिषासुरों के समूल नाश के लिए प्रार्थना की है । मित्र सुनते ही उखड़ गए। मेरा हुक्का पानी बंद हो गया । तो क्या यह विचार करना उचित नहीं कि साहित्य के परिसर को गंदा करने वाले और इसके भीतर असाध्य बीमारियाँ फैलाने वाले प्राणियों का स्थान क्या होना चाहिए । एक गृहस्थ अपने अनाज को चूहों से बचाने के लिए उन्हें विष से मारता है, एक किसान अपनी फसल को कीड़ों से बचाने के लिए उन्हे विष से मारता है, घर के कोनों अंतरों में छिपे तिलचट्टो को हम-आप मारते हैं । क्या वह गृहस्थ हत्यारा है जो अपने अनाज को चूहों से बचाना चाहता है ? अपनी फसल को कीड़ों से बचाने वाला किसान क्या हत्यारा है ? और अपने घर को तिलचट्टों से मुक्त करने वाले आप या हम क्या हत्यारे लोग हैं ?
     यहाँ तो बात सिर्फ एक प्रार्थना है कि हिन्दी के महिषासुरों का समूल नाश हो । कुछ उदाहरणों से बात साफ़ होगी । एक साहित्यिक हैं । बड़ी शख्सियत वाले आलोचक हैं । कॉलेजों और युनिवर्सिटियों में नियुक्तियां करवा सकते हैं । इनके आगे पीछे चेलों की फ़ौज घूमती है । चेलों की सेवा और समर्पण से प्रसन्न ये साहित्यक इन्हें कॉलेजों में नियुक्तियां दिलवाने में माहिर हैं । इनकी सुनियोजित उपेक्षा के कारण न जाने कितनी प्रतिभाएं अपनी काबिलियत के अनुरूप जगह न पा सकीं । एक यशस्वी सम्पादक हैं । वे लेखक पैदा कर देते हैं, जब भी चाहें । और उनके पैदा किए लेखक महान मान भी लिए जाते हैं । 
        प्रायोजित चर्चा पुरस्कार योजनाओं आदि का एक रैकेट है । क्या ऐसे संपादकों का बना रहना ठीक है ? एक बड़ा प्रकाशक है । वह लेखक की किताब बेचकर मालामाल है और लेखक सम्मानजनक जीवन जीने तक को मोहताज है । एक वरिष्ठ कवि हैं । ये विभिन्न सम्मान पुरस्कार दिलाने वाली समिति में अपरिहार्य रूप से रहते हैं । कृपा पात्रों को सम्मान और पुरस्कार दिलवाते हैं । इनका क्या किया जाना चाहिए । वन्दना तो नहीं करेंगे न ? अंतिम उदाहरण एक युवा कवि का । वह दस वाक्य हिन्दी के कायदे से नहीं लिख बोल पाता है । लेकिन वह इतना जानता है कि किसका पैर छूने से उसे लाभ मिलने वाला है । वह हर उस जगह शीश नवाता है जहां से उसे लाभ प्राप्त हो सकता है । और एक के बाद एक उसकी किताबें आने लगती हैं । वहीं दूसरी तरफ खून पसीने की कविता लिखने वाले डिप्रेसन की गोलियां खाते मिलते हैं । ऐसे युवाओं का क्या करेंगे आप ? फलने फूलने का आशीर्वाद देंगे ?
       उदाहरण पांच की जगह पचास दिए जा सकते हैं । एक महत्वाकांक्षी युवा लिटरेरी एजेंट का काम करता मिल जाएगा आपको । एक अस्सी साल का कवि महँगी शराब की बोतल से तृप्त एक घटिया किताब का ब्लर्ब लिखता मिल जाएगा आपको । रचना के साथ विज्ञापन का चेक भेज कर खुद को छपवाने वाले साहित्यिक भी दुर्लभ नहीं है । तो प्रश्न यह है कि क्या इनकी बरबादी की कामना भी न की जाए । मैं विश्वास करना चाहता हूँ कि समाज में और साहित्य में भी अच्छे और शुभ का उत्थान हो । प्रतिभाओं को उचित स्थान मिले । जिसकी जो जगह है उससे वह छीनी न जाए । यह क्या इतना आसान है ? क्या ही अच्छा होता कि समाज में इतने अच्छे लोग होते कि बुरे लोग सिर उठा कर चलने का साहस न कर पाते । जो शुभ है, जो सुन्दर है वही सर्वथा सम्मानित होता । वह उपेक्षित न होता । क्या यह सोचना अपने आप में बहुत अव्यवहारिक है ? यदि नहीं तो क्या यह अपने आप हो जाएगा ? इसके लिए किसी शुभ दिन का इंतजार करना चाहिए ? नहीं । ऐसे किसी शुभ दिन के इंतजार से बेहतर है ऐसे दिन के लिए छोटे-छोटे कदम उठाना । कदम उठाने की शुरुआत आगे बढ़ने की इच्छा से होती है । यह हमें ही तय करना होगा कि हमारी प्रार्थनाओं में हम किसको बचाएं और किसको मिटा दें।


– नील कमल
जन्म : १५.०८.१९६८(वाराणसी , उत्तर प्रदेश), शिक्षा : गोरखपुर विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर, कविता-संग्रह "हाथ सुंदर लगते हैं" २०१० में कलानिधि प्रकाशन , लखनऊ से व ’यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है’  ऋत्विज प्रकाशन  से प्रकाशित, कविताएँ,कहानियां व स्वतन्त्र लेख महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित [प्रगतिशील वसुधा , माध्यम , वागर्थ , कृति ओर , सेतु , समकालीन सृजन , सृजन संवाद , पाठ , बया, इन्द्रप्रस्थ भारती , आजकल , जनसत्ता , अक्षर पर्व , उन्नयन , साखी , शेष व अन्य