Friday 12 April 2013

क्रांति भी, रोना भी ,प्यार भी... -गणेश पाण्डेय

गणेश पाण्डेय

मित्रो! बीच बहस में आज प्रस्तुत है कवि-कथाकार, आलोचक गणेश पाण्डेय जी का फ़ेसबुक कवि-कविताओं को बारीकी से टटोलता एक विचारोत्तेजक किंतु महत्त्वपूर्ण आलोचनात्मक आलेख। उनके स्वयं के ब्लॉग पर यह आलेख आ चुकने के बावजूद  विषय की संवेदनशीलता,  सम सामयिकता और महत्त्व को देखते हुए बीच बहस में इसके पुन: प्रकाशन का मंतव्य मात्र यही कि यह अधिक से अधिक पाठकों तक पहुंच सके। दावा तो नहीं पर प्रयास तो किया ही जा सकता है।
गणेश पाण्डेय जी की  ’अटा पड़ा था दुख का हाट (कविता-संग्रह), जल में (कविता-संग्रह), जापानीबुखार (कविता-संग्रह), परिणीता (कविता-संग्रह), अथ ऊदल कथा(उपन्यास), पीली पत्तियाँ(कहानी संग्रह), आठवें दशक हिन्दी कहानी(शोधग्रंथ), रचना,आलोचना और पत्रकारिता(आलोचना) प्रकाशित  कृतियां हैं और वे  साहित्यिक पत्रिका ‘यात्रा’के संपादक हैं और वर्तमान में दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर के हिन्दी विभाग में प्रोफ़ेसर हैं। मोबाइल-09450959317.

क्रांति भी, रोना भी ,प्यार भी... -गणेश पाण्डेय

         आभासी दुनिया की हलचल हो या सचमुच की, कभी-कभी इन से दूर जीवन को बिल्कुल पास से देखने की इच्छा होती है। गहरे धँसकर जीने की इच्छा होती है। सच तो  यह कि कभी-कभी सिर्फ और सिर्फ दर्द को बारबार छूने की इच्छा होती है। ऐसा बहुत कम होता है। जब अखबार, टीवी और आभासी दुनिया के दर्द से बाहर... कुछ ठहर कर देखने की इच्छा होती है। आज अचानक स्वप्निल की सूई-धागा कविता को फिर से पढ़ने के बाद साझा करने की इच्छा हुई। पर बहुत से कवि तो दुनिया को बदल देने का काम हरहाल में आज पूरा कर लेने में लगे होंगे। स्वप्निल की इस ‘सूई-धागा’ का होगा क्या-
’तुम सूई थी और मैं था धागा
सूई के पहले तुम लोहा थी
धरती के गर्भ में सदियों से
सोई हुई

तुम्हें एक मजदूर ने अंधेरे से
मुक्त किया
उसी ने तुम्हें तराश तराश
बनाया सूई
ताकि तुम धागे से दोस्ती
कर सको

धागे के पहले मैं कपास था
जिसे मां जैसे हाथों से चुनकर
चरखे तक पहुँचाया गया
कारीगरों ने मुझे बनाया धागा

मैं अकेला भटकता रहा
और एक दिन मैं तुमसे मिला
इस तरह हम बन गये
सूई धागा
और साथ साथ रहने लगे

तुम्हारे बिना मैं रहता था
बेचैन
और मेरे बिना तुम
रहती थी अधीर

हम दोनों मिलकर ओढ़ते रहे
जिंदगी की चादर
और अपने सुख-दुख को रफू
करते रहे

एक दिन तुम मृत्यु के अंधेरे में
गिर गयी
मैं रह गया अकेला

जब भी मैं तुम्हारे बारे में
सोचता हूँ
तुम मुझे चुभती हो
आत्मा तक पहुँचती है
तुम्हारी चुभन।
(यात्रा 5-6)
             एफबी पर स्वप्निल श्रीवास्तव की इस कविता को यह जानते हुए दिया कि यह कविता एफबी के मिजाज की कविता नहीं है। यह कहना भी पड़ा कि मुझे ऐसा लगता है कि एफबी पर सक्रिय जिन कवियों के पास ऐसे काव्यानुभव या इस जमीन  की कविताएँ नहीं हैं, उन्हें यह कविता पसंद नहीं आयेगी। हिंदी कविता में हम जिसे बड़ी कविता कहते हैं, यह कविता चाहे उन अर्थो में सचमुच बड़ी  कविता न हो पर यह सच है कि यह कविता उस बड़ी जमीन की कविता जरूर है। यह बात मैं अपनी किसी कविता के लिए नहीं कह रहा हूँ। आज कविता को लेकर पसंद  का संकट है। क्या एफबी और क्या बाहर प्रिंट की दुनिया। हर जगह। दरअसल मैं जिसे विनम्रतापूर्वक पसंद का संकट कह रहा हूँ, वह समझ का ही संकट है।  कभी-कभी प्रिय-अप्रिय या मेरा-तेरा कवि व्यक्तित्व से जुड़ी पसंद समझ पर  भारी पड़ जाती है, यह भी सच है। खैर, यह कविता मुझे पसंद है। मेरी समझ भी  इस कविता के पक्ष में है। अच्छी बात यह कि कुछ मित्रों की भी पसंद और समझ  मेरी पसंद और समझ के साथ है। मैं एफबी और अखबार को अलग-अलग समझता हूँ। हालांकि अखबार में भी जो  रोज-रोज नहीं होता है, वह यहाँ होता है। इस माध्यम के चरित्र और स्वभाव  को लेकर कम जानता हूँ। इस माध्यम को बनाने और चलाने वाले लोग पूँजीवादी  हैं या समाजवादी या कुछ और, यह नहीं जानता हूँ। इस माध्यम का अर्थशास्त्र  और राजनीतिविज्ञान या समाजशास्त्र, कुछ नहीं जानता हूँ। कुछ-कुछ यह जानता  हूँ कि यहाँ अपने बारे में दिनरात अच्छी-अच्छी बातें करने वाले लोग हैं।
कुछ लोग दिनरात देश-दुनिया के बारे में अच्छी-अच्छी बातें करने वाले लोग  हैं। कुछ उम्र में बड़े हैं, कुछ मेरी उम्र के जेएनयू , जामिया और डीयू या बाहर के हैं और बहुत से मुझसे छोटे हैं। मेरे बेटे की उम्र के या मेरे शिष्यों की उम्र के। पर इनमें से जो साहित्य में काम करने वाले हैं, उनमें कई उम्र में छोटा होने के बावजूद कविता और आलोचना की दुनिया में अच्छा कर रहे हैं। ‘काफी’ इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि कुछ और न समझ लिया जाय। जाहिर है कि साहित्य की समझ अच्छी है, तभी इनका अच्छा काम है। कुछ  एफबीएफ दो-दो नाव पर एक साथ सवार हैं। दो-दो क्या, कई नावों पर एक साथ  हैं। कुछ हैं जो एक्टिविस्ट भी हैं और लेखक भी। कुछ पचास-पचास प्रतिशत हैं तो कुछ पचहत्तर और पच्चीस प्रतिशत। कुछ सिर्फ एक्टिविस्ट हैं। कुछ  ऐसे भी एफबीएफ हैं जो सिर्फ लेखक हैं। उनमें भी कुछ साधारण लेखक हैं, कुछ उससे बड़े। कुछ तो बहुत बड़े लेखक भी हैं। बहुत बड़े का मतलब जिसकी राजधानी की साहित्यसत्ताओं के निकटता या अंतरंगता हो। कुछ लेखकनुमा पत्रकार हैं, जो पत्रकारिता की दुनिया में साहित्य को लेकर व्याप्त भयंकर नासमझी और भष्टाचार से आँख मूंद कर ज्यादातर अच्छी-अच्छी बात करते हैं। लेखकों और आयोजनों के फोटो देते हैं। कुछ जेएनयू के पूर्व विद्यार्थी भी हैं, सचमुच ये बहुत प्रतिभाशाली हैं। प्रतिभाशाली तो ऐसे भी युवतर लेखक यहाँ हैं जो जेएनयू से नहीं हैं। बाहर से हैं। मुझे इनसे साहित्य संवाद अच्छा लगता है। ये साहित्य के बारे में बहुत अच्छी-अच्छी बात करते हैं। कुछ तो ब्लॉग भी चलाते हैं। घ्यान देने की बात यह कि ये ब्लॉग दिल्ली ही नहीं दिल्ली के बाहर से भी चलाते हैं और अच्छा चलाते हैं। ध्यान खींचते हैं। कुछ जोर-शोर से तो कुछ चुपचाप। ये अच्छा कर रहे हैं। अक्सर मेरा ध्यान अच्छे साहित्य पर चला जाता है। सच तो यह कि इसीलिए इस माध्यम पर आया भी हूँ। दूसरे लोग किसलिए आए हैं, नहीं जानता। सच यह पता नहीं कि वे टाइम पास के लिए आए हैं कि साहित्यिक चुटकुलाबाजी के लिए या राजनीतिक लतीफा सुनाने के लिए या सचमुच बड़े सामाजिक और राजनीतिक या साहित्यिक बदलाव के लिए ?
  इस माध्यम पर कविताएँ खूब पढ़ने को मिलती हैं। कुछ अच्छी और कुछ बहुत कमजोर। अधिकांश कविताएँ साधारण होती हैं। मेरा मानना है कि सिर्फ एक या कुछ खास कवि के यहाँ ही असाधारण कविताएँ अलग से पैदा नहीं होती हैं, तमाम कवियों की तरह इन्हीं साधारण कविताओं के क्रम में कुछ बहुत अच्छी कविताएँ बन जाती हैं। कुछ अविस्मरणीय कविताएँ हो जाती हैं। एक कवि का एजेंडा क्या होना चाहिए ? मेरी समझ से एक कवि का एजेंडा अच्छी कविता लिखना होना चाहिए। क्योंकि मेरा मानना है कि यदि आपका एजेंडा खराब कविता लिखना है तो आप कविता की दुनिया में आये ही क्यों ? ट्रक ड्राइवर होकर शेर कहने का लांगरूट तो खुला ही था। नहीं दोस्तो, अच्छी तरह जानता हूँ कि आप अच्छी कविता लिखने के लिए कविता के संसार में आए हैं। यह भी बहुत अच्छी तरह जानता हूँ कि आप सफर में हैं। मंजिल बस तनिक दूर है। हालाकि मुझे ही कौन अब तक मंजिल मिल गयी है। रास्ते में हम सब हैं। बस यह ध्यान रहे कि रास्ते में ट्रक ड्राइवर भी मिल सकते हैं, इसलिए जरा देख कर चलें। सामने खड्ड है। पहले तय कर लें कि पहले अच्छी कविता कि पहले राजनीतिक और सामाजिक क्रांति कि दोनों नावों पर एक साथ ? मैं बिल्कुल क्रांति के पक्ष में हूँ लेकिन सब एक साथ साधने की कला मेरे पास नहीं है। हाँ, कविता में सामाजिक और राजनीतिक बदलाव का स्वप्न तो देख सकता हूँ पर समाज में चुटकी या बंदूक बजाते हुए तुरत क्रांति हो जाने का सचमुच का स्वप्न नहीं देख सकता। क्योंकि मैं कोई सचमुच का एक्टिविस्ट नहीं हूँ। जब मैं बहुत छोटा था, मेरे कस्बे तेतरी बाजार में एक कॉमरेड हुआ करते थे, कॉमरेड दयाराम, उनकी बहुत इज्जत करता था। वे कहते थे अर्थात स्वीकार करते थे कि तोप का मुकाबला बांस से नहीं किया जा सकता है अर्थात समझ और विचार और सार्थक प्रतिरोध से किया जा सकता है। ऐसे जो भी साथी हैं, आदरपूर्वक उनके सामने नतमस्तक होता हूँ। पर शायद आज कुछ संकट यहाँ भी है। कुछ अच्छे साथी भी जरूर हैं। पर कुछ दूसरे तरह के साथी भी मिल सकते हैं। अभी एफबी पर मनीषा पाण्डेय ने अपने स्टेटस में लिखा है कि ‘मेरा एक ब्वायफ्रेंड था, धुर क्रांतिकारी। एक दिन उसने मुझसे कहा, मनीषा, तुम नौकरी करना और मैं पार्टी का होलटाइमर बन जाऊँगा। तुम एक -दो बच्चे पैदा करना। उनकी टट्टी साफ करना, उनके लिए रातभर जागना, उन्हें पढ़ाना-लिखाना। मैं तो महान कार्यों में लगा हुआ हूँ। जब पार्टी सम्मेलन होगा तो तो वहाँ भी तुम कढ़ाई-कलछुल लेकर तैयार रहना कॉमरेडों की सेवा करने के लिए। उस दिन मेरा दिल किया था कि तुरत बाहर का दरवाजा दिखाऊँ और बोलूँ- खबरदार जो इस तरफ कभी मुड़कर भी देखा। अब अगर क्रांति होनी ही है तो तुम नौकरी करना, मैं क्रांति करूँगी। तुम पूड़ियाँ परोसना, मैं भाषण दूँगी। चूल्हे में गए तुम और तुम्हारे विचार। बहुत उल्लू बना चुके तुम। अब हमारी बारी है।’  
मैं मनीषा जी तरह ऐसा कुछ तो नहीं कह सकता, पर इस खतरे की ओर इशारा जरूर करूँगा कि कविता की दुनिया में क्रांति के नाम पर ऐसे उल्लू बनाने वाले लोगों का आविर्भाव हो चुका है। ऐसे लोगों को मैं ही नहीं, कई एफबी मित्र भी, छद्म क्रांतिकारी कवि कहना अधिक पसंद करते हैं। क्योंकि ये साहित्य के बाहर हर उस जगह क्रांति चाहते हैं, जहाँ इनके लिए जोखिम रत्तीभर न हो। इनके पास साहित्य में सत्ता की चाकरी और बाहर की दुनिया को उलट-पलट देने का फर्जी स्वप्न होता है।  इनकी कविताओं में परिवर्तन का कानफाड़ू तीव्र राग और जीवन में धुर यथास्थितिवाद होता है। इनके लिए विचारधारा और ईमान मुक्तिबोध की तरह एक नहीं, दो है। दोनों एक-दूसरे के विरोधी। इन्हें क्या विचार नहीं करना चाहिए कि बाहर दूसरे देशों और भाषाओं के जिन क्रांतिकारी कवियों की कविताओं को अक्सर याद करते हैं, उनका जीवन भी ऐसा ही रहा है जैसा इनका है। मैं विनम्रतापूर्वक कहता हूँ कि बेशक उनकी तरह या उनसे भी अच्छी कविताएँ लिखो। बिल्कुल क्रांति की आला दरजे की कविताएँ लिखो, अच्छी कविताएँ लिखो और ऐसे दिखो जिससे तुम और तुम्हारी कविताएँ भरोसा पैदा करें बदलाव के लिए। तुम्हारा स्वप्न सच्चा लगे। तुम्हारी कविता की आत्मा से पुरस्कार की इच्छा की गंध न आए। ऐसे किसी कतार में मत दिखो। केशव तिवारी ऐसे छद्म क्रांतिकारी कवियों के लिए शायद ठीक ही कहते हैं कि सिंथेटिक कविताओं से इनका बाजार अटा पड़ा है। पर सुकून की बात यह कि यह ऐसे छद्म क्रांतिकारी कवियों की कविता का सच तो है आज की कविता का पूरा सच नहीं है। कई ऐसे घोषित तौर पर प्रगतिशलील कवि हैं जो छद्म प्रगतिशील नहीं लगते हैं। जिनके लिए कविता की चौहद्दी में जीवन की कविता और परिवर्तन की कविता दोनों शामिल है। आखिर स्वप्निल की कविता ‘सूई-धागा’ को एफबी की कई लेखिकाएँ और लेखक मित्रों ने क्यों पसंद किया है ? प्रेमचंद गांधी की प्रगतिशीलता यह कहते हुए खतरे में क्यों नहीं पड़ती है कि ‘ निश्चय ही यह एक शानदार कविता है...धरती के गर्भ से लेकर कपास के पौधे के शीर्ष तक और फिर मानवीय संबंधों की सघनतम संवेदनाओं को स्वप्निल जी ने बहुत धैर्य के साथ कहा है...मेरे अपने जीवनानुभव से इसमें कुछ और जोड़ा जा सकता है... लेकिन वह शायद इस कविता का अतिरिक्त विस्तार होगा...बचपन में कपास के पौधों और सूई-धागा-ताना-बाना देखने की अनेक स्मृतियाँ हैं...इस कविता ने उन्हें आँगन दिखाया है...’ आखिर यह प्रगतिशीलता जीवनानुभवों की विरोधी क्यों नहीं है ? यह प्रगतिशीलता सिर्फ किताबी या अखबारी क्यों नहीं है ? हमारे समय की कविता में कई कवि हैं जो जितने प्रगतिशील हैं, उतने ही लोकतांत्रिक और निडर भी।
                विनम्रतापूर्वक कहना चाहूँगा कि हमारे समय की कविता में कुछ ‘छद्म प्रगतिशील’ कवियों ने बहुत सारा कूड़ा-करकट कर रखा है। ऐसे आलोचकों ने भी गंदगी इकट्ठा करने का काम ही अधिक किया है। आभासी दुनिया में ही नहीं बाहर भी चालीस-पचास के आसपास के कई कवि -आलोचक भी ऐसा ही कुछ करते दिख जाते हैं। असल में काव्यालोचना की दिल्ली फैक्ट्री ने इतना कूड़ा इधर फैलाया है कि जहाँ देखो वहीं दुनिया को बदलने के नाम पर भूसाछाप ठस गद्यात्मकता का प्राचुर्य, विचारों का प्रकोप और मुँहदेखी प्रशंसा और जातिवाद और नये किस्म के काव्य संप्रदायवाद का खड्ड है। अपने लिखे पर अपनी कोई छाप नहीं है। लगता है कि जैसे किसी सेठ का बही-खाता ठीक करने वाले मुनीम हों। बाहर के कई आलोचकों ने भी इसी तरह की आलोचना की फ्रेंचाइजी ले रखी है। संतोष यह कि कुछ युवा कवि-आलोचक अपने समय की बुराई से अभी बचे हुए हैं। 
युवा कवि-आलोचक नीलकमल ने अभी हाल ही में एक युवा कवि की कुछ नकली कविताओं की ओर मेरा ध्यान खींचा है। यह अच्छी बात है कि कम ही सही पर कुछ कवि-आलोचकों की नजर इधर हिंदी में लिखी जा रही उन कविताओं पर है जिनमें हिंदी कविता की प्रकृति नहीं है। बल्कि बाहर से  आयातित  मुहावरे में लिखी जा रही हैं। जाहिर है कि ऐसी कविताओं को मैं नकली कविता कहता हूं। असल में नये कवियों में दो आने में चाँद खरीद लेने की तीव्र इच्छा ने उन्हें कुछ भी कर गुजरने के लिए विवश किया है। उन्हें पुरस्कार चाहिए, उन्हें अपने जीवनकाल में अमरत्व चाहिए। इसलिए सिर के बल कविता लिखने से भी परहेज नहीं। प्रायोजित इनाम और चर्चा के गठजोड़ ने भी इस तरह की नकली ही नहीं, दूसरे तरह की किताबी और अखबारी कविताओं के आधार पर भी तमाम शहरों के कमजोर कवियों को भी महानगर केशरी या रुस्तमे हिन्द जैसी रेवड़ियाँ बांटने का काम किया है। छोटे-छोटे शहरों के भ्रष्ट पुरस्कारों के लिए मचलते हुए कई कवियों की आत्ममुग्घ गद्गद मुद्राएँ आभासी दुनिया के पटल पर नित्य देखी जा सकती हैं। मेरे ही शहर का कविता का एक ‘सम्मान’ अर्थात पुरस्कार है, जिसे यहाँ पुरस्कारों का धंधा करने वाला एक आदमी निकालता है। न तो उसे साहित्य की कोई जानकारी है न समझ और न ईमानदारी। वह जैसे हाईस्कूल-इंटर के विद्यार्थियों को पानी चढ़ा गोल्डमेडल बाँटता है और व्यापारियों-डॉक्टरों इत्यादि को भी श्रमवीर और न जाने क्या-क्या पुरस्कार-सम्मान बाँटता फिरता है, उसी तरह कविता के साथ भी दगा करता है।
आशय यह कि जिसने सिर्फ ‘पुरस्कारों का धंधा’ कर रखा है, उसकी संस्था के पुरस्कार लेने में भी कथित प्रगतिशील कवियों की प्रगतिशीलता खतरे में 
नहीं पड़ती है, बल्कि साहित्य के भ्रष्टाचार के गले लगकर और पुष्ट ही होती है। यह भी संभव है कि ऐसे पुरस्कार लेने वाले प्रगतिशील लोगों को पुरस्कार की हकीकत ही न मालूम हो। मजे की बात यह कि अनेक शहरों में ऐसे तमाम पुरस्कारों के लिए चयनसमितियों में भ्रष्ट लेखक या लेखकनुमा या अलेखक लोग ही होते है। उनमें से किसी के भी पास मर्द लेखक का जीवन और छवि हो, ऐसा मुझे नहीं लगता। राजधानी से लेकर अनेक छोटे-बड़े शहरों में ऐसे ही भ्रष्ट प्रगतिशीलता का खेल जारी है। इस खेल में क्या प्रगतिशील और क्या गैर प्रगतिशील, सब एक साथ शामिल हैं। पर मेरा मानना है कि चोर की चोरी बाद में रोकना, पहले सिपाही को पकड़ो और उसकी तलाशी लो। जाहिर है कि मेरी बात उन्हें पसंद नहीं आएगी जो इस खेल में शामिल है या शामिल होने के लिए कतार में हैं।
दरअसल मैं कविता का एक साधारण कार्यकर्ता हूँ। कविता का लालबत्ती वाला मंत्री या अफसर नहीं। कविता का बिना दाम का मजदूर हूं। इसलिए पहले तो मैं साहित्य की दुनिया में बदलाव का स्वप्न देखता हूँ। मैं ऐसी बेवकूफी करने से खुद को रोकने की कोशिश करता रहता हूँ कि ऐसा स्वप्न  देखूँ या साहित्य का फ्रॉड करूँ कि साहित्य में तो सब जस का तस काला रहे और देश-समाज सब पलक झपकते बदल जाय। मैं इस पक्ष में भी नहीं हूँ कि शुरू से अंत तक कोई कवि सिर्फ क्रांति की कविताएँ ही लिखे और कुछ कविताएँ घर-संसार, प्रेम और प्रकृति इत्यादि की न हों। एकबार मेरे शहर के ही देवेंद्र कमार उर्फ बंगाली जी ने एक बिल्कुल शुरुआती युवा कवयित्री से कहा था कि जिस उम्र में हो उसमें क्रांति की कविता नहीं, पहले प्रकृति और प्रेम इत्यादि की कुछ कविताएँ लिखो। मित्रो, एफबी मित्रों से यह कहना कतई उचित नहीं है कि वे अपनी ‘हर कविता’ विचार और तात्कालिक मुद्दों पर केंद्रित न लिखें। कोई चाहे तो यहाँ मेरे कान उमेठ सकता है कि फिर मैंने ‘ओ ईश्वर‘ ‘गाय का जीवन’ ही नहीं बल्कि ‘जापानी बुखार’, और ‘सबद एक पूछिबा’ आदि लंबी कविताओं को क्यों लिखा ? नम्र निवेदन यह कि मित्रो सिर्फ यही नहीं लिखा है, बहुत कुछ इससे इतर भी लिखा है। आप भी अपनी ‘हर कविता’ को अर्थशास्त्र या राजनीति विज्ञान का रचनात्मक गद्य न बनाएँ।
अपनी ‘हर कविता’ को तरल संवेदना की जगह ठस अखबारी यथार्थ का कवितानुमा अनुवाद न बनाएँ। जीवन और अपने आसपास के लोगों के दिलों में भी झांकें, उनके मुस्कान और आँसू भी देखें। अरे बाबा अपने आँसू को भी खारा पानी समझ कर व्यर्थ में बहा न दें। उसे अपनी कविता में संभाल कर रखें। जैसे ‘सूई-धागा’ में है। जैसे मेरी ‘कहाँ जलाओगे मेरी देह’ में है, जैसे मेरी ‘‘प्रथम परिणीता’’ में है-

जिस तलुए की कोमलता से
वंचित है
मेरी पृथ्वी का एक-एक कण
घास के एक-एक तिनके से
उठती है जिसके लिए पुकार
फिर से जिसे स्पर्श करने के लिए
मुझमें नहीं बचा है अब
चुटकीभर धैर्य
जिसके पैरों की झंकार
सुनने के लिए
बेचैन है
मेरे घर के आसपास
गुलमोहर के उदास वृक्षों की कतार
और तुलसी का चौरा
जिसकी
सुदीर्घ काली वेणी में लग कर
खिल जाने के लिए आतुर हैं
चांदनी के सफेद नन्हे फूल
और
असमय
जिसके चले जाने के शूल से
आहत है मेरे आकाश का वक्ष
और धरती का अंतस्तल
तुम हो
तुम्हीं हो
मेरी प्रथम परिणीता
मेरे विपन्न जीवन की शोभा
जिसके होने और न होने से
होता है मेरे जीवन में
दिन और रात का फेरा
धूप और छांव
होता है नीचे-ऊपर
मेरे घर
और
मेरे दिल
और दिमाग का तापमान
अच्छा हुआ
जो तुम
जा कर भी जा नहीं सकी
इस निर्मम संसार में मुझे छोड़कर
अकेला
सोचा होगा कैसे पिएंगे प्रीतम
सुबह-शाम
गुड़
अदरक
और गोलमिर्च की चाय
भूख लगेगी तो कौन देगा
मीठी आंच में पकी हुई
रोटी
और मेथी का साग
दुखेगा सिर
तो दबाएगा कौन
आहिस्ता-आहिस्ता
सारी रात
रोएंगे जब मेरे प्रीतम
तो किसके आंचल में पोछेंगे
रेत की मछली जैसी
अपनी तड़पती आंखें
और जब मुझे देख नहीं पाएंगे
तो जी कैसे पाएंगे
कैसे समझाएंगे
खुद को
कैसे पूरी करेंगे जीवन की कविता
कैसे करेंगे मुझे प्यार
अच्छा हुआ
मीता
मेरी प्रथम परिणीता
छोड़ गयी मेरे पास
स्मृतियों की गीता
दे गयी
एक और मीता
परिणीता
जिसके जीवन में शामिल है
तुम्हारा जीवन
जिसके सिंदूर में है तुम्हारा सिंदूर
जिसके प्यार में है
तुम्हारा प्यार
जिसके मुखड़े में है तुम्हारा मुखड़ा
जिसके आंचल में है तुम्हारा आंचल
जिसकी गोद में है तुम्हारी गोद
कितना अभागा हूं
भर नहीं पाया तुम्हारी गोद
तुम्हारे कानों में पहना नहीं पाया
किलकारी के एक-दो कर्णफूल
तुम्हारी आंखों के कैमरे में
उतार नहीं पाया
तुम्हारी ही बालछवि
किससे पूछूं कि जीवन के चित्र
इतने धुंधले क्यों होते हैं
समय की धूल
उड़ती है
तो आंधी की तरह क्यों उड़ती है
प्रेम का प्रतिफल
दुख क्यों होता है
और
अक्सर
तुम जैसी स्त्री का सखियारा
दुख से क्यों होता है
तुम नहीं हो
तुम्हारी सखी है
है दुख है तुम्हारी सखी है
कर लिया है उसी से ब्याह
हूं जिसके संग
देखता हूं उसी में
तुम्हें नित।
(परिणीता)
इन कविताओं से भी अच्छी बहुत-सी कविताएँ हैं। ये तो कुछ भी नहीं, बहुत-सी ताकतवर कविताएँ हैं। बहुत से कवियों के पास ऐसी बहुत-सी कविताएँ हैं। यही जीवन है। यही संसार है। इसी संसार में क्रांति भी करना है, रोना भी है और प्यार भी करना है...


-गणेश पाण्डेय

2 comments:

  1. आदरणीय गणेशजी, आपने अपनी बात बहुत असरदार तरीक़े से कही है..! अच्छा लगा...! आदरणीय नवनीतजी का भी आभार !

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  2. पाण्डेय जी का लेख और उस के अन्तिम भाग में उन की कविता पढ़ कर दोनों पर मुग्ध हो गया । लेख में जो साफ़गोई है उल्लेखनीय है । मैं दिल्ली के माफ़िया से खूब परिचित ही नहीं उस का मारा हूँ । ऐसे महानुभाव अन्य
    शहरों में भी होंगे । लगता है कि मेरा वही दु:ख है जो पाण्डेय जी का है । बधाई ।

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