Saturday 2 March 2013

बड़े मुंह छोटे बोल



मित्रो! देखने में आया है कि  बड़े राजनेताओं, मंत्रियों की तरह बड़ी, वरिष्ठ बुध्दिजीवी और विचारवान हस्तियां भी सहनशीलता में अपच का शिकार होने लगी हैं और वे भी अपने वक्तव्यों में शालीनता व मर्यादाएं भूलने लगी हैं.... बड़े मुंह ये छोटे बोल.... आहत करनेवाले, चिंताजनक और विचारणीय है। इसका ज्वलंत उदाहरण अपनी  व्यक्तिगत नाराजगी की भड़ास निकालते हुए जनसत्ता के चर्चित संपादक, वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी जी ने अपनी एक पोस्ट में फ़ेसबुक से जुड़े शिक्षकों, लेखकों और पत्रकारों को भी लपेटे में ले लिया। कुछ अपवादों को छोड़ दें शायद ही कोई उनके आकलन से सहमत हो  

ओम थानवी जी ने एक-दो दिन पहले अपनी एक पोस्ट में उज्जवल भट्टाचार्य की वाल की "मेरी सारी टिप्पणियां अल्पज्ञान पर आधारित है, इसलिये हमेशा शंकित रहता हूं। और रश्क के साथ देखता हूं कि कुछ मित्र बिना कुछ जाने स्वच्छंदता के साथ अपनी बात कहते हैं।" के बहाने फ़ेसबुक से जुड़े लोगों पर बहुत कठोर टिप्पणी की वह भी तब जब ओम थानवी जी  स्वयं भी उसका एक हिस्सा अरसे से बने हुए हैं और फ़िर भी कह रहे हैं  ”फेसबुक पर लोग दिन में कितना-कितना ज्ञान बांटते फिरते हैं ! निस्संकोच। गुरु-गंभीर मुद्रा में। जो दिल में आए, लिख मारते हैं। जैसे दुनिया भर का वैचारिक बोझ उन्हीं पर हो ! मुझे लगता है ऐसे फेसबुक बाबाओं में ज्यादातर वे हैं जो विफल शिक्षक, विफल लेखक या विफल पत्रकार रहे हैं।” क्या आप भी ये सद्कर्म यहां नहीं करते? ”हालांकि मैं भी सफल लोगों में नहीं (वरना किसी चैनल पर कव्वे न लड़ा रहा होता!); पर जिन्हें ज्ञान का अजीर्ण है, अपने कहे पर जरा संशय नहीं, उनका क्या करें?” थानवी जी अगर जनसत्ता में रहकर भी सफ़ल नहीं है तो फ़िर इनकी दृष्टि में सफ़लता के अर्थ व कसौटी क्या है? साहित्य का एक विद्यार्थी होने के नाते जानना-समझना चाहूंगा। इनकी पोस्ट पढते हुए केवल अपवादों को छोड़ दें तो फ़ेसबुक पर कोई उपदेशदाता, ज्ञानबघारक 'बाबाओं' के एकालाप नहीं करता, अधिकतर को अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियां, चित्र,  किसी न किसी विषय-मुद्दे पर अपना दृष्टिकोण, सोच  को ही सामने रखते देखा है। इस बहाने वे किसी पर व्यक्तिगत निशाने साधने की कोशिश करते दिखायी देते हैं... 
थानवी जी आज जहां हैं..जैसे हैं..यह वक्तव्य कम से कम मेरे जैसे साहित्यिक पाठक को आश्चर्यचकित करने वाला है कि  उन जैसा संजीदा, विचारक, विश्लेषक व्यक्तित्व किसी से अपनी व्यक्तिगत नाराजगी, कड़ुवाहट को इस तरह और ऎसी भाषा में कैसे सरे आम अभिव्यक्त कर सकता है वह भी एक ऎसे मुकाम पर पहुंचकर? यह  सोशल नेटवर्किंग साइटों की ही  उपलब्धि और विशेषता ही है, जहां आप ऎसा कर पाए, जहां किसी का एकाधिकार नहीं, ठेकेदारी न होकर एक सम्पूर्ण स्वतंत्र लोकतांत्रिक प्रणाली है, भाई अशोक कुमार पाण्डे की  एक पोस्ट के शब्दों को उधार लूं तो  ”बहुत कन्सेंस कीपर हैं यहाँ. रोज़ फेसबुक यूजर्स को एक ठो सलाह ठेल देते हैं भाई लोग. जैसे सब इनकी गुरुवाई सुनने को बेकल हैं...भैये यह माध्यम न आप लोगों ने किसी को दिया है न किसी ने आप लोगों से कोई सलाह मांगी है..जो अच्छा लगे कीजिए...न अच्छा लगे न कीजिए और यही औरों को भी करने दीजिये. यहाँ किसी की दादागिरी नहीं चलने वाली..आपकी भी नहीं” से सहमति दर्ज़ कराते हुए इस में एक बात और जोड़ना चाहूंगा कि यहां सम्पादकीय धूर्तताओं को भी जगह नहीं है।  शिक्षण, साहित्य और पत्रकारिता जगत के फ़ेसबुक से जुड़े शिक्षकों, लेखकों और पत्रकारों के बारे में थानवी जी का यह आकलन भी आहत करने वाला है..वे  ऎसा सोच ही कैसे सकते हैं? सिर्फ़ इसलिए कि उन्हें किसी से अपनी खुंदक निकालनी है। और इसके लिए उन्होंने फ़ेसबुक पर मौजुद अधिकतर शिक्षकों, लेखकों और पत्रकारों को विफ़ल होने का सर्टिफ़िकेट जारी कर दिया। जैसा कि मैंने पहले निवेदन किया उन जैसे संजीदा और विविध विषय-मर्मज्ञ व्यक्तित्व की कलम ऎसी चूक कैसे कर सकती है, लेकिन यह कड़वा सच है। अपनी टिप्पणी में वे जिस ईमानदारी की वकालत करते हैं,  इस पोस्ट में खुद उनकी बेईमानी दिखायी देती है और वे कहीं पे निगाहें कहीं पर निशाना वाला अपना पसंदीदा खेल खेलते नज़र आते हैं। फ़ेसबुक जैसी सोसल नेटवर्किंग साइटों ने कुछ अपवादों (मनीषा पाण्डे, कट्टर पंथियों  व उन जैसे अपने पूर्वाग्रहों से पीड़ितों को छोड़) सभी को, सभी से संवाद का एक बहुत बड़ा मंच दिया है जिसकी वजह सामाजिक, सांस्कृतिक, कला क्षेत्र में काम करनेवाली नामी-गिरामे हस्तियों से लेकर गुमनाम नामों तक, के बीच संवाद कायम करते हुए, बीच की खाई तो पाटी ही है, साथ ही बहुतेरे उजले-काले अध्यायों को भी सामने रखा है और जिन पर गंभीर चर्चाएं, समीक्षाएं हुयी है। फ़ेसबुक के ही कई शिक्षकों, लेखकों पत्रकारों की रचनाओं को देश की लब्ध-प्रतिष्ठ ( प्रिंट मीडिया) पत्र-पत्रिकाओं ने स्थान देते हुए उनके लेखन को उद्धत  भी किया है। 
मेरे विचार से फ़ेसबुक से जुड़े उन सभी शिक्षकों, लेखकों और पत्रकारों को अपना विरोध दर्ज कराना चाहिए जिनकी काबलियत पर उन्होंने अंगुली उठाते हुए इस तरह का फ़तवा दिया है। उन से ससम्मान एक ही सवाल पूछना चाहता हूं ..सफ़लता से उनका आशय क्या है...वह जो उन या उन जैसे लोग जहां, जो कर रहे हैं  लेकिन यह सफ़लता कैसे हैं, वह तो उनकी या उन जैसे लोगों की काबलियत के आधार पर लगी नौकरी है जिसके लिए उन्हें तनख्वाह मिलती है? और यह काबलियत तो मेरा विश्वास है कि फ़ेसबुक से जुड़े शिक्षकों, लेखकों और पत्रकारों में भी है ही, फ़िर वे विफ़ल कैसे हैं? या  सफ़लता से उनका तात्पर्य दिल्ली के पत्र-पत्रिकाओं में छपनेवाले या दिल्ली में रहनेवाले शिक्षकों,लेखकों और पत्रकारों से है। क्या वे कहना चाहते हैं कि फ़ेसबुक से जुड़े उदय प्रकाश,  राजेन्द्र यादव, बोधिसत्व, नंद भारद्वाज, प्रेमचंद गांधी, मोहन श्रोत्रिय(जिन्हें आपने बाबा घोषित किया है), दुर्गा प्रसाद अग्रवाल, बोधिसत्त्व, मायामृग, अरुण मिश्र, अरुणदेव महेश पुनेठा, प्रभात रंजन, अशोक कुमार पाण्डे, डा. पुरुषोत्तम अग्रवाल, आशुतोष कुमार, दिविक रमेश, श्याम बिहारी श्यामल, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, पूर्णिमा वर्मन, डा. कविता वार्चष्णेय, सुमन केशरी अग्रवाल, रति सक्सेना, वंदना शर्मा, वंदना ग्रोवर, लीना मल्होत्रा, अपर्णा मनोज, मनीषा कुलश्रेष्ट, अंजु शर्मा, विपिन चौधरी, विमलेश त्रिपाठी, नीलोत्पल,नीलकमल, पंकज प्रसून  आदि-आदि..सब(लिस्ट बहुत लम्बी है, कितने नाम लूं क्षमा करें... मित्रो! मैने यहां वरिष्टता सूची का ध्यान नहीं रखा है ) आदि जो देश की लगभग सभी लब्ध-प्रतिष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में छपें है और समान रूप से फ़ेसबुक पर भी सक्रिय है और विश्व के सभी सम सामयिक विषयों और घटनाक्रमों पर अपनी दृष्टि के अनुसार विचार शेयर करते हैं.. विफ़ल लोग हैं? और सिर्फ़ इसलिए कि उदारीकरण, व्यावसायिकरण और बाजारवाद की वजह से उनके स्थान देश के घरानों की पत्र-पत्रिकाओं में रचना-विचार-मंथन के कालम में दस प्रतिशत से भी कम में सिमट कर रह गए हैं .. और सोशल नेट वर्किंग साइट पर वे अपने आपको अपनी तरह अभिव्यक्त कर पा रहे हैं और ऎसा करने के लिए उन्हें यहां किसी सम्पाक के खेद व अभिवादन और किसी के सर्टिफ़िकेट की  जरूरत नहीं है।
कुछ तो कमाल-धमाल होगा ही फ़ेसबुक के लोकतंत्र में कि जो बात आप कहीं और नहीं कह पाते, वहां उनकी सीमाएं हैं, वे यहां साझा करते हैं... और  उनकी पोस्ट के प्रत्युत्तर में जो मैं उनके सामने नहीं कह पाता, शायद वे इजाजत भी नहीं देते .. इस विश्व मंच पर कहने के लिए स्वतंत्र हूं.. भले वे इसे मेरी कुंठा, विफ़लता या किसी भी विशेषण से नवाज़े तो नवाज़े... इस पूरे प्रकरण के बारे में  लिखते हुए मुझे रहीम जी का यह दोहा कई बार याद आया 
रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून, पानी गए न ऊबरे, मोती मानस चून।

5 comments:

  1. आपने सटीक बात कही है . मैं उससे पूरी तरह सहमत हूँ.ओम थानवी का बयान व्यक्तिगत द्वेष भावना का परिचायक है .

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  2. क्या कहूँ बस इतना ही कि व्यक्तिगत रूप से मै फेस बुक पर लोकत्रंत्र की समर्थक हूँ जब सब स्वतंत्र हैं अपने अनुरूप मित्र चुनने के लिए तो जिनसे शिकायतें उन्हें झेल क्यों रहे हैं आप और क्या जरुरी है कि हरेक व्यक्ति की रूचियाँ स्तर अध्ययन एक सा हो, आपसे बहुत कम आपसे ज्यादा पढ़े लिखे या सफल असफल सब हैं यहाँ, अपने मनोनुकूल मित्र चुनिए और प्रसन्न रहिए स्त्रियों को लेकर भी इस तरह की आपत्तियां आती रही हैं कि वे मनमर्जी कविता कहानी उड़ेलती रहती हैं पूरे सम्मान के साथ विनम्र मशविरा है कि जीने दिया जाए आपसे तो प्रोत्साहन की उम्मीद है तंज की नहीं !

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  3. फेसबुक भंडास निकालने का जरिया भी है .हर एक टीप पे ध्यान देना जरूरी नहीं है .

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  4. नवनीत जी, उन्हें जो ठीक लगा उन्होंने कह दिया. जब सामान्यीकरण करेंगे तो यही होगा. हर तरह के लोग हर वर्ग में होते हैं. जैसे अच्छे पत्रकार और बुरे पत्रकार होते हैं, वैसे ही अच्छे और बुरे शिक्षक भी होते हैं. फिर हर अच्छा इंसान भी कभी न कुछ ऐसा कर गुज़रता है जो अच्छा नहीं होता. अब देखो ना, ओम जी भी यहां चूक ही गए ना... तो बेहतर है कि ऐसी बातों का कोई नोटिस न लिया जाए.

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  5. भले ही कोई न स्वीकारे! बहुत से महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर सार्वजनिक मंच पर हमारी चुप्पियां हमारी धूर्ततताएं और कहीं हमारे भविष्य के हितों को प्रभावित न कर दे वाली शंकाओं, भावनाओं को उजागर करती है।

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